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पारदर्शी कामकाज की वकालत करने वाली मोदी सरकार आंकड़े क्यों छुपा रही है?

रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया (आरबीआई) ने लगातार दूसरी बार द्विमासिक मौद्रिक नीति की समीक्षा के बाद देश की जीडीपी को लेकर कोई अनुमान सामने नहीं रखा। जीडीपी निगेटिव रहेगी, ऐसा कहकर उसने जवाब के बजाय सवाल खड़े कर दिए हैं! 

कितनी निगेटिव रहेगी? कैसे रहेगी? लोगों को आरबीआई से इन सवालों के जवाब की उम्मीद थी। क्योंकि देश का पूरा ख़ज़ाना उसके हाथों से गुज़रता है इसीलिए लोगों को यह अपेक्षा थी कि रिज़र्व बैंक एक अनुमान तो सामने रखेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 

सवाल खड़े होने लगे कि इस सरकार की तरह अब रिजर्व बैंक भी आंकड़ों को छुपाने लगेगा तो क्या होगा? नोटबंदी के बाद भी रिजर्व बैंक पर ये आरोप लगे थे। उस समय बैंक की बागडोर संभालने वाले गवर्नर और उनके सहयोगी अपना कार्यकाल बीच में ही छोड़ गए और हाल ही में दोनों ने ही अपनी अलग-अलग किताब के जरिये सरकार और वित्त मंत्रालय के कामकाज को कठघरे में खड़ा किया है। ये आरोप थे बैंकों के एनपीए के आंकड़ों को लेकर। 

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सवाल यह उठता है कि क्या सरकार आंकड़ों को छुपाने का काम कर रही है? नरेंद्र मोदी सरकार, बार-बार यह दावा करती रहती है कि उसने 70 साल से देश में सरकारों द्वारा जो परम्पराएं चला रखी थीं, उनमें बड़े पैमाने पर बदलाव कर एक नयी तरह की शासन व्यवस्था विकसित की है। 

इनमें से कुछ बदलावों के लिए सरकार के कामकाज को सराहा भी गया और कई बदलावों को लेकर उसे कठघरे में भी खड़ा किया गया और कहा गया कि वे सरकारी आंकड़े जिन्हें सार्वजनिक किया जाना चाहिए, वह उन्हें प्रतिबंधित करने की कोशिश कर रही है। 

रफ़ाल विमान से जुड़े रक्षा सौदे के आंकड़े की यदि बात करें तो सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद जिस तरह के आंकड़े अदालत में पेश किये गए वे किसी पहेली की ही तरह थे। लेकिन इनसे भी ज्यादा जो डरावनी बात है वह अर्थव्यवस्था, रोज़गार से जुड़े आंकड़ों की है।

आर्थिक वृद्धि दर नकारात्मक! 

आरबीआई के गवर्नर ने द्विमासिक मौद्रिक नीति की समीक्षा के दौरान गुरुवार को कहा कि हालांकि चालू वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर नकारात्मक रहेगी लेकिन महामारी पर पहले काबू पा लिया गया तो उसका अर्थव्यस्था पर ‘अनुकूल' प्रभाव पड़ेगा। दास की अध्यक्षता वाली छह सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने तीन दिन चली बैठक के बाद नीतिगत दर को यथावत रखने का निर्णय किया। 

इस मौद्रिक नीति की घोषणा को लेकर लोगों को इंतज़ार था कि आरबीआई क्या रोड मैप प्रस्तुत करने वाला है। यह उम्मीद की जा रही थी कि वो एकदम पक्का नहीं तो मोटा-मोटा अनुमान तो दे  कि अभी तक मिले संकेतों के आधार पर अर्थव्यवस्था का हाल कैसा रहने वाला है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 

इससे पहले मई में भी रिजर्व बैंक के गवर्नर ने ठीक इन्हीं शब्दों में देश की व्यवस्था का हाल बताया था और जीडीपी नकारात्मक रहने की बात कही थी लेकिन तब भी आंकड़ा नहीं बताया था!

सच छुपाने की कोशिश?

जीडीपी घटेगी तो कितनी घटेगी? देश को इस गिरावट मुकाबला करने के लिए कैसे तैयार रहना चाहिए? ऐसे अनेक सवालों का जवाब गवर्नर द्वारा आंकड़े या अनुमान नहीं बताने की वजह से नहीं मिला। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्या रिजर्व बैंक अनुमान नहीं लगा पा रहा है या वो सच सामने रखना नहीं चाहता? या सरकार की तरफ़ से इशारा है कि जैसे 'राष्ट्रहित में दूसरे कई आंकड़े' नहीं बताए जा रहे हैं, वैसे ही यह भी न बताया जाए कि रिज़र्व बैंक की नज़र में जीडीपी कितनी गिर सकती है। 

कोरोना महामारी के कारण देश-दुनिया की अनेक एजेंसियां ही नहीं कंपनियां भी भारत की अर्थव्यवस्था और जीडीपी पर नजर टिकाये हुए हैं , रिजर्व बैंक के इस रुख से निश्चित ही उन्हें भी निराशा ही हाथ लगी होगी।

जीडीपी में 9.5% की गिरावट! 

हाल के दिनों में विश्व बैंक के अनुसार भारत की जीडीपी में 3.2% की, अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के हिसाब से 4.5% और दूसरी कुछ एजेंसियों के अनुमान से  5 से 7.5% तक की गिरावट होने वाली है। लेकिन भारत की ही रेटिंग एजेंसी इकरा का अनुमान है कि जीडीपी 9.5% तक गिर सकती है। 

ऑक्सफ़ोर्ड इकोनॉमिक्स की पिछले हफ्ते जो रिपोर्ट आयी उसमें कहा गया कि अक्टूबर के बाद भारत की अर्थव्यवस्था में और कमज़ोरी दिख सकती है क्योंकि लॉकडाउन के बाद कामकाज दोबारा खोलने का काम सही तरीक़े से नहीं हुआ है। 

ऑक्सफ़ोर्ड की इस रिपोर्ट को इस बात से बल मिलता है कि सरकार ने मई महीने के औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े सामने न रखने का तर्क दिया था और कहा था कि हम एक ऐसे समय से गुज़र रहे हैं जैसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। इसलिए पुराने आंकड़ों से आज के समय की तुलना कर के कोई नतीजा निकालना ठीक भी नहीं है और तर्कसंगत भी नहीं। 

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एनएसएसओ के आंकड़े छुपाए

यह पहली बार नहीं है कि केंद्र सरकार आंकड़ों साथ इस प्रकार का व्यवहार कर रही है। साल 2019 में जब मोदी सरकार को लोकसभा चुनाव के लिए देश के समक्ष जाना था, उस समय एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस) के आंकड़ों को जारी नहीं किया गया। देश-विदेश की तमाम एजेंसियों को इसका इंतज़ार रहता है।

यही नहीं, तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां या देसी कंपनियां भी इस सर्वे के आधार पर कैलेंडर निर्धारित करती हैं। उस समय तमाम एजेंसियों ने इसके लिए सरकार की कार्य प्रणाली के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था पर भी सवाल उठाये थे।

एनएसएसओ सर्वे देश के लोगों के जीवन स्तर से लेकर उनकी आय, व्यय और रोज़गार, स्वास्थ्य आदि की जानकारी देता है लेकिन सरकार रोज़गार के मुद्दे पर घिरी हुई थी लिहाजा वह सर्वे चुनाव के बाद जाहिर किया गया! लेकिन इस तरह से क्या हासिल होने वाला है? कुछ समय बाद तो परिस्थितियां सामने आने ही वाली हैं! तो क्यों न सरकार छिपाने की बजाय पारदर्शिता लाये ताकि आने वाले संकट की उस हिसाब से तैयारी की जा सके। 

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संजय राय

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