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नागरिकता क़ानून: पुलिस की लाठी से भी बैख़ौफ़ महिलाएँ सड़कों पर क्यों?

इतिहास गवाह है कि एक कट्टर और रूढ़िवादी भारतीय समाज में हिंदू और मुसलिम महिलाएँ 1857 के पहले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से पहले बड़े पैमाने पर सड़कों पर कभी नहीं उतरी थीं। और अब हमारी आँखों के सामने इतिहास बन रहा है। धार्मिक भेदभाव को हवा देने वाले नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी के विरोध में करोड़ों भारतीय नागरिकों के साथ हिंदू-मुसलिम महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर देशव्यापी आंदोलन कर रही हैं। कोलकाता में पिछले हफ़्ते एक युवती ने अपने हाथ में जो तख्ती थाम रखी थी, उस पर लिखा संदेश वर्तमान संदर्भों में बेहद मानीखेज है- ‘मेरे पिता जी को लगता है कि मैं इतिहास की पढ़ाई कर रही हूँ; वे नहीं जानते कि मैं इतिहास रचने में मुब्तिला हूँ।’

दिल्ली के जामिया नगर स्थित मुसलिम बहुल मोहल्ले शाहीन बाग़ की महिलाएँ बीते दो हफ़्तों से ज़्यादा समय से सीएए और एनआरसी के ख़िलाफ़ अहिंसक प्रदर्शन करती आ रही हैं। कुछ महिलाएँ तो कई दिनों से घर ही नहीं गई हैं, अन्य महिलाएँ अपने बाल-बच्चों के साथ धरने पर बैठी हैं। अशिक्षित होने के बावजूद अनगिनत महिलाएँ इस बात से पूरी तरह वाक़िफ़ हैं कि राष्ट्रव्यापी एनआरसी लागू करने की सरकारी योजना में दाँव पर क्या लगा हुआ है। ये सभी समझती हैं कि महिलाएँ ज़्यादा असुरक्षित एवं सहज शिकार बन जाने की स्थिति में होती हैं: संपत्ति के कागजात आमतौर पर पुरुषों के नाम पर होते हैं, और कइयों के पास तो भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ ही नहीं हैं।

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असम में संपन्न एनआरसी गवाह है कि वहाँ के हिंदीभाषी और बंगाली समुदाय के जिन लोगों ने असम से बाहर शादी की थी, उनकी पत्नियों का नाम कट चुका है। उन महिलाओं ने अपने-अपने मायकों से दस्तावेज़ जुटाए थे लेकिन वे निर्धारित अर्हताओं पर खरे नहीं उतरे। महिलाओं के मन में व्याप्त असुरक्षा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है क्योंकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने साफ़ कह दिया है कि देशव्यापी एनआरसी में आधार कार्ड वगैरह से काम नहीं चलेगा।

बात सिर्फ़ शाहीन बाग़ की नहीं है; मुंबई, औरंगाबाद, बंगलुरु, जयपुर, पटना, चेन्नई जैसे शहरों में महिलाओं ने खामोश प्रदर्शन किए हैं। धरना-प्रदर्शनों में जिस नारे ने सबका ध्यान खींचा, वह था- ‘जब हिंदू-मुसलिम राज़ी, तो क्या करेगा नाज़ी?’ अभिनेत्री रेणुका शहाणे ने पीएम को संबोधित करते हुए ट्वीट किया- ‘असली टुकड़े-टुकड़े गैंग आपका आईटी सेल है, सर!... उन्हें नफ़रत फैलाने से रोकिए।’ यह महिलाओं की इतिहास दृष्टि, गहरी राजनीतिक समझ, हालात पर पैनी नज़र, निर्भीकता, कल्पनाशीलता, आत्मसंयम और बेहद अनुशासित होने का द्योतक है। प्रतिरोधी आंदोलन में महिलाओं की उपस्थिति, उनकी दृढ़ता और अहिंसक प्रवृत्ति ही इस दावे को खारिज करने के लिए काफ़ी है कि इन प्रदर्शनों को ‘विपक्ष’ अथवा ‘बाहर से उकसावा देने वालों’ द्वारा हवा दी गई है। इन विरोध-प्रदर्शनों के निहितार्थ बड़े गहरे हैं। भारतीय महिलाओं ने जामिया मिल्लिया इसलामिया और समूचे उत्तर प्रदेश में अनाहूत क्रूर पुलिसिया हिंसा के सामने अपनी अहिंसा की ताक़त और संविधान के प्रति निष्ठा दिखा दी है।

ग़ौर करने की बात यह है कि इन महिलाओं को आप वर्गीकृत करना चाहें तो बड़ी मुश्किल होगी। इनमें फ़िल्म अभिनेत्रियों से लेकर शिक्षिकाएँ, नर्सें, निजी दफ़्तरों की कामकाजी महिलाएँ, स्कूली पढ़ाई से लेकर उच्चतर शोध करने वाली छात्राएँ, रोज़ कुआं खोदने और रोज पानी पीने वाली मजदूरिनें, बुरके में सरापा ढंकी महिलाएँ, बालों को हिजाब में छुपाती युवतियाँ, गृहणियाँ- यानी जीवन के हर क्षेत्र से जुड़ी हर आयु-वर्ग की पेशेवर और आम महिलाएं शामिल हैं। 

घरों से निकलकर सड़क पर उतरी इन महिलाओं में अधिकांश संख्या उनकी है, जो अशिक्षित हैं, परिजनों से भयभीत हैं लेकिन पुलिस की लाठी से ज़रा भी नहीं डरतीं!

पहचाने जाने के डर से कुछ तो अपना पूरा या असली नाम भी नहीं बताना चाहतीं लेकिन सीएए और एनआरसी के आसन्न ख़तरों को वे अपनी टूटी-फूटी भाषा से लेकर अंग्रेज़ी और परिष्कृत हिंदी में ज़बान दे रही हैं। 

कई महिला आंदोलकारी हर दशक की शुरुआत में होने वाली जनगणना, एनपीआर 2010, एनपीआर 2019 और एनआरसी के बीच के फर्क को बड़ी स्पष्टता से खोल कर रख रही हैं। वे डिटेंशन शिविरों की हक़ीक़त और हालात से भी वाक़िफ़ हैं और इस मामले में बोले गए मोदी-शाह के ‘झूठ’ को भी भीड़ के सामने उजागर करती हैं। वे इस बात का भी खुलासा करती हैं कि बाप-दादाओं के दस्तावेज़ जुटाने में भारतीयों, ख़ासकर ग़रीबों और मध्य वर्ग के नागरिकों के सामने कैसी-कैसी मुसीबतें पैदा होंगी। एनआरसी, एनपीआर और सीएए की उपयोगिता को लेकर प्रधानमंत्री मोदी, केंद्रीय गृह-मंत्री अमित शाह और केंद्र सरकार के अन्य मंत्रियों द्वारा दिए गए बयानों का अंतर्विरोध सबके सामने ला रही हैं। जामिया की तीन छात्राएँ-आयशा रेना, लबीदा फरजाना और चंदा यादव तो पुलिस की लाठियों के सामने एक साथी छात्र की ढाल बन गई थीं। उन्हें लाठी भांजने वाले पुलिसकर्मियों और साथी छात्र के बीच में पड़ कर प्रतिवाद करते हुए और अकल्पनीय क्रूरता के लिए पुलिसवालों को फटकार लगाते हुए देखा जा सकता है।

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संविधान से छेड़छाड़ के ख़िलाफ़ महिलाएँ

अब तक महिलाएँ प्रायः लैंगिक भेदभाव और मनचलों की छेड़छाड़ के ख़िलाफ़ मुखर होती रही हैं, लेकिन संविधान की मूल भावना के साथ हुई छेड़छाड़ को रोकने के लिए उनका इस तरह आक्रोशित होना भारतीय परिप्रेक्ष्य में अभूतपूर्व है। उन्होंने जता दिया है कि पानी सर के ऊपर से गुज़र चुका है और चुनावी जीत के मद में चूर, बड़बोली, मिथ्यावादी, निरंकुश और अधिनायकवादी सरकार के सामने वे आत्मसमर्पण नहीं करनेवाली हैं। राजनीतिक आरोपों और सत्तारूढ़ खेमे के दावों के विपरीत इन विरोध प्रदर्शनों की ख़ास बात यह है कि महिलाओं की इस अप्रत्याशित जुटान के पीछे किसी संगठन या संस्था या समूह या दल का हाथ नहीं है। विरोध जताने के लिए स्थान या अवसर की परवाह भी नहीं की गई है। 

एक ओर जहाँ दिल्ली को नोएडा से जोड़ने वाले मुख्य हाईवे के एक हिस्से पर क़ब्ज़ा जमाया गया, तो दूसरी तरफ़ पांडिचेरी विश्वविद्यालय की स्वर्णपदक विजेता रबीहा अब्दुर्रहीम और जादवपुर विश्वविद्यालय की देबास्मिता चौधरी ने कैम्पस में आयोजित दीक्षांत समारोहों के मंचों पर ही सीएए का कड़ा विरोध दर्शाया।

दक्षिण भारतीय अभिनेत्री रीमा कलिंगल ने अपने फ़ेसबुक पेज पर लिखा- ‘धर्म के आधार पर हमारे शांतिपूर्ण राष्ट्र को मत बाँटिए।’

सत्ता को क्यों सचेत होना चाहिए?

महिलाओं की यह जागरूकता इस संदर्भ में भी उल्लेखनीय है कि हिंदू समाज में सदा से हावी ज़बरदस्त पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण ने कथित महिला सशक्तीकरण के नाम पर चंद रेवड़ियाँ बाँटने के अलावा कभी भी लड़कियों और महिलाओं के बारे में गहराई से सोचने की ज़हमत नहीं उठाई। इसलाम में प्रदत्त औरतों के हुकूक की लाख दुहाई देने के बावजूद मुसलिम महिलाएँ कठमुल्लों की कठपुतलियाँ बना कर रख दी गईं। महिलाओं को हमेशा ‘भारतीय नारीत्व’ की पवित्र आभा में लपेटे रखने का प्रयास किया गया। इस पसमंजर में वर्तमान विरोध प्रदर्शन हिंदू-मुसलिम महिलाओं की छवियों का एक दिलेर और मर्मभेदी कोलाज पेश करते हैं, जिन्होंने लादी गई हिफ़ाज़त के पिंजरे को तोड़ दिया है और लोकतांत्रिक असंतोष के लबालब भरे तूफ़ानी समंदर में छलांग लगा दी है। उनका बाहर निकला एक-एक क़दम किसी भी जनविरोधी और महाशक्तिशाली सत्ता की चूलें हिला सकता है।

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विजयशंकर चतुर्वेदी

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