Patriarchy (पितृसत्ता) ज़ेरे-बहस है। साथ ही ब्राह्मणवाद। ट्विटर के सीईओ द्वारा कुछ ऐक्टिविस्ट महिलाओं के साथ एक पोस्टर लेकर खड़े हो जाने पर हंगामा खड़ा हो गया है।
भद्रलोक, ट्विटराती, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, टीवी चैनल और प्रिंट मीडिया सब खलबला गए। अब जस्टिस काटजू भी मैदान में आ गए हैं।
दरअसल सोशल मीडिया पर सूचना विस्फोट के इस दौर में ब्राह्मणवादी पितृसत्तावाद या अन्य कोई भी दमनकारी शोषक षड्यंत्रकारी वाद निर्मम स्क्रूटिनी का बायस है। यथास्थितिवाद की दुर्गति एक तयशुदा नतीजा है पर लोग इसे समझ कर भी नहीं समझते!
जस्टिस काटजू का तर्क है कि वे जन्मना ब्राह्मण हैं जिसमें उनका कोई दोष नहीं, और अब वे जातिवाद के उन्मूलन के हिमायती हैं पर वे ब्राह्मण होने के नाते धिक्कारे जाने से आहत हैं। इसका प्रतिकार हिंदी आलोचक वीरेंद्र यादव करते हैं। वे कांग्रेस नेता मनीष तिवारी की स्वीकारोक्ति को नत्थी करते हैं कि ‘ब्राह्मण भारत के नये जू (jews) हैं।’ दिलीप सी. मंडल पिछले कई सालों से सोशल मीडिया पर पीएमओ के अफ़सरों, केंद्रीय सरकार के सचिवों, विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की जातिवार लिस्ट छाप-छाप कर यह सिद्ध करते रहे हैं कि ब्राह्मण होना भारत के लोकतंत्र में एक संगठित लाभान्वित समुदाय होना है जो न सिर्फ दलितों-पिछड़ों को सत्ता के ढाँचे का हिस्सा बनना से रोकता है वरन सवर्णों के भी दूसरे हिस्सों का हिस्सा हड़प जाता है। देश के पीएमओ के 56 वरिष्ठ अफ़सरों में एक भी पिछड़ा/राजपूत अफ़सर नहीं है। 83 केंद्रीय सरकार के सचिवों में कुल एक राजपूत है। न दलित, न पिछड़ा। 90% से ज्यादा उपकुलपति सवर्ण हैं और उनमें 70 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के लगभग 95% न्यायाधीश सवर्ण हैं और आधे से ज्यादा ब्राह्मण हैं!जस्टिस काटजू इन आँकड़ों का अपनी पोस्ट में कोई ज़िक्र नहीं करते बल्कि एक कुतर्क पेश करते हैं जो आरक्षण विरोध के सवर्ण आंदोलनकारी पेश किया करते हैं।ब्राह्मण होते ही (आप चाहें तो ब्राह्मण सरनेम के बावजूद मनुष्य रह सकते हैं) चाहे-अनचाहे आप कर्मकांड, अंधविश्वास, पोंगापंथ, छुआछूत, भेदभाव, पुनर्जन्म, भाग्यवाद आदि के भारी-भरकम पुरातन अस्त्र-शस्त्र धारण कर लेते हैं जिनमें स्त्री, दलित, पिछड़ों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के दमन के रक्तचिन्ह मौजूद हैं - सारी दलित-पिछड़ी क़तारों में विकसित होती चेतना का यह सार है। इसीलिए जब शशि थरूर अपनी अंतरराष्ट्रीय साज-सज्जा से लदी शब्दावली से भरी ‘मैं हिंदू क्यों हूँ’ नामक पुस्तक पेश करते हैं तो प्रतिकार में प्रो. कांचा इलैया जवाब देते हैं, ‘मैं हिंदू क्यों नहीं हूँ’, वीरेंद्र यादव लिखते हैं कि सीधी-सपाट पर बेधक सत्य से लबरेज़ काँचा इलैया का जवाब देश के दमित समाज में थरूर से कहीं ज्यादा दूर तक जाता है और स्वीकृत होता है।शम्भूनाथ शुकुल ज्यादा बेहतर हस्तक्षेप करते हैं। एक ट्रेड यूनियनिस्ट के परिवार में जन्मे इस कनपुरिया ब्राह्मण मूल के व्यक्ति में भविष्य की असलियत दिखती है। ब्राह्मणवादी परंपराओं में पिसती अपने क़रीबी रिश्तों की स्त्रियों के जीवन का कारुणिक वर्णन करते हुए उन्होने पितृसत्ता और ब्राह्मणवाद को तार-तार कर डाला और लिखा, ‘ब्राह्मणवाद, तुम्हारी क्षय हो’।यथास्थितिवाद के पक्षकार तकनीक के युगान्तरकारी हस्तक्षेप को न समझ पाने की भूल कर रहे हैं। न आज की स्त्री, न समाज का कोई दमित हिस्सा डर, लोभ या झूठ से ज़्यादा समय तक फँसाये रखा जा सकता है। सभी राजनैतिक दलों को दमित हिस्सों की स्वीकृत स्थितियों मसलन आरक्षण पर एक स्वर में सार्वजनिक/वैधानिक मंच पर बोलते (भले ही बेमन से, झूठे ) पाना एक ज्वलंत उदाहरण है। सभी राजनैतिक दल (जो समाज की अगुवाई करते हैं) इस बात के स्पष्टीकरण को मजबूर हुए हैं कि उन्होने कितने दलितों-पिछड़ों को सरकार या संगठन में नेतृत्व का हिस्सा दिया है । ‘सोशल इंजीनियरिंग’ आज सबका मूल मंत्र है।साथ ही यह भी सच है कि हजारों सालों की कंडिशनिंग और पितृसत्ता के स्वीकार्य का सबसे ज्यादा शिकार स्त्री हुई है, हो रही है और वही सबसे कम अधिकार पा सकी है । क़ानून तो उसे संरक्षण देता है पर व्यवस्था क़ानून का पालन सिर्फ अपवाद स्वरूप करती है । आत्मनिर्भर स्त्रियाँ इस स्थिति को बदलने की लड़ाई लड़ रही हैं जो संगठित लैंगिक अपमान, हिंसा, डर आदि के ज़रिये दबाई जाती हैं पर प्रतिरोध लगातार बढ़ रहा है। #MeToo ऐसा ही एक क़दम है था और यह एक और शुरुआत है।
अपनी राय बतायें