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लाभकारी कंपनी बीपीसीएल को निजी हाथों में क्यों देना चाहती है मोदी सरकार?

मोदी सरकार 28 सरकारी कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेचने जा रही है। इन 28 कंपनियों में बहुत बड़ी और लाभकारी महारत्न कंपनी है - बीपीसीएल। अचरज में डालने वाली बात है कि एक बड़े लाभकारी उपक्रम को सरकार निजी हाथों में क्यों सौंप रही है? बीपीसीएल के निजीकरण से भारी पैमाने पर रोज़गार छिनेगा। हैरानी की बात है कि बीपीसीएल को बचाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ा संगठित प्रतिरोध ही नहीं हुआ। 
उर्मिेलेश

मौजूदा शासन में घटनाएं इस कदर तेजी से घट रही हैं कि एक घटना के बारे में लोग अपनी राय बनायें तब तक उससे भी बड़ी कोई दूसरी घटना घट जाती है। तरह-तरह के फ़ैसलों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। अभी सरकार ने कोई एक विवादास्पद फ़ैसला लिया और उस पर समाज में चर्चा शुरू हो कि उससे पहले ही कोई और बड़ा फ़ैसला ले लिया जाता है। पिछले कुछ महीनों में कितने सारे मसले, कितने सारे फ़ैसले सामने आ चुके हैं। एक से एक बढ़कर भयावह, विवादास्पद और दूरगामी महत्व या असर वाले! 

दिल्ली की भयानक हिंसा-उपद्रव के बाद इन दिनों मीडिया में कोरोना वायरस छाया हुआ है। यह वाकई भयानक वायरस है, जिससे दुनिया का बड़ा हिस्सा डरा-सहमा हुआ है। इधर, यस बैंक का घोटाला और उसके संस्थागत पतन का मामला सामने आया। अब देश की सबसे बड़ी सरकारी तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड यानी बीपीसीएल बिकने जा रही है। इसके बिकने से पहले या उसके तत्काल बाद कोई और बड़ी ख़बर सामने आ जायेगी। इस तरह ख़बरों से ख़बर को ‘मारने’ का सिलसिला जारी रहेगा। लेकिन इस कॉलम में आज हम सिर्फ बीपीसीएल के निजीकरण के बारे में बात करेंगे।

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28 कंपनियों में बेची जाएगी हिस्सेदारी 

केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने पिछले सप्ताह संसद को बताया कि मोदी सरकार 28 सरकारी कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेचने जा रही है। उन्होंने यह भी बताया कि इस वित्त वर्ष में विनिवेश से 65000 करोड़ जुटाने का लक्ष्य रखा गया है। दरअसल, तमिलनाडु के डीएमके सांसद पी. वेलुसामी ने वित्त मंत्री से घाटे में चल रहीं उन कंपनियों का ब्यौरा मांगा था, जिन्हें हिस्सेदारी बेचने के लिए चिह्नित किया गया है। वित्त राज्य मंत्री ने लिखित जवाब में बताया कि सरकार हानि और लाभ के आधार पर विनिवेश का फ़ैसला नहीं करती बल्कि उन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनिवेश का फ़ैसला करती है जो उनकी प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में नहीं आते। अब अनुराग ठाकुर से कौन पूछे कि भारत जैसे देश के लिए पेट्रोलियम और दवाएं क्या प्राथमिकता का क्षेत्र नहीं हैं?

जिन 28 कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेचने की बात कही गई है, वे इस प्रकार हैं- 1- स्कूटर्स इंडिया लिमिटेड, 2- ब्रिज ऐंड रूफ़ कंपनी इंडिया लिमिटेड, 3- हिंदुस्तान न्यूज प्रिंट लिमिटेड, 4- भारत पंप्स ऐंड कम्प्रेसर्स लिमिटेड, 5- सीमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, 6- सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, 7- भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड, 8- फेरो स्क्रैप निगम, 9- पवन हंस लिमिटेड, 10- एयर इंडिया और उसकी पांच सहायक कंपनियां और एक संयुक्त उद्यम, 11- एचएलएल लाइफ़केयर, 12- हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड,13- शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया, 14- बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड, 15- नीलांचल इस्पात निगम लिमिडेट में विनिवेश की सैद्धांतिक मंजूरी बीती आठ जनवरी को दी गई। 

इसके अलावा इस सूची में, 16- हिंदुस्तान प्रीफैब लिमिटेड (HPL), 17 - इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट्स इंडिया लिमिटेड, 18- भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड (BPCL), 19- कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया (CONCOR), 20- एनएमडीसी का नागरनकर स्टील प्लांट, 21- सेल का दुर्गापुर अलॉय स्टील प्लांट, सलेम स्टील प्लांट और भद्रावती यूनिट, 22- टीएचडीसी इंडिया लिमिटेड (THDCIL), 23- इंडियन मेडिसिन एंड फार्मास्युटिकल्स कॉरपोरेशन लिमिटेड (IMPCL), 24- कर्नाटक एंटीबायोटिक्स, 25- इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (ITDC) की कई इकाइयां, 26- नॉर्थ ईस्टर्न इलेक्ट्रिक पॉवर कॉरपोरेशन लिमिटेड (NEEPCO), 27- प्रोजेक्ट एंड डेवलपमेंट इंडिया लि. 28- कामरजार पोर्ट का नाम शामिल है। 

इन 28 कंपनियों में बहुत बड़ी और लाभकारी महारत्न कंपनी है- बीपीसीएल। अचरज में डालने वाली बात है कि एक बड़े लाभकारी उपक्रम को सरकार निजी हाथों में क्यों सौंप रही है?

देश में तेल का कारोबार करने वाली एक निजी कंपनी ‘बरमा शेल’ के अधिग्रहण से बीपीसीएल का राजकीय कंपनी के रूप में 1976 में उदय हुआ था। तत्कालीन सरकार ने संसद की मंजूरी के साथ इसके लिए बाकायदा अधिनियम बनाया था। 2003 में वाजपेयी सरकार के समय ही इसमें निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी शुरू हुई।

भारी मुनाफ़े के बावजूद निजीकरण क्यों?

सार्वजनिक क्षेत्र की इस कंपनी में सरकारी हिस्सेदारी 53.29 फ़ीसदी है, इसलिए यह सरकारी स्वामित्व की कंपनी के रूप में बरकरार है। लेकिन कंपनी को पूरी तरह निजी हाथों में देने के लिए मोदी सरकार ने 2016 में उसके राष्ट्रीयकरण वाले अधिनियम को फालतू और बेमतलब बताकर ख़त्म कर दिया था यानी निजीकरण का रास्ता उसी वक्त बना लिया गया था। यह कंपनी देश को प्रति वर्ष 1 लाख करोड़ रुपये टैक्स के रूप में देती है। लगातार तीन वर्षों से इसका मुनाफ़ा 5000 करोड़ रहा है। यानी यह हाई-प्रोफिट, बड़े मुनाफ़े वाली सरकारी कंपनियों में शुमार है। 

सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक़, वित्त वर्ष 2018-19 में बीपीसीएल ने देश को टैक्स के रूप में तीन खेप में क्रमशः 95035.24 हजार करोड़ रुपये, 35 करोड़ रुपये और फिर 24 लाख यानी एक लाख करोड़ से ज्यादा की रकम दी थी। बकौल वित्त राज्यमंत्री 28 सरकारी कंपनियों की स्ट्रैटजिक सेल से केंद्र सरकार 65000 करोड़ रुपये कमाना चाहती है पर इन 28 कंपनियों की सूची की एक ही कंपनी बीपीसीएल सरकार को सालाना 1 लाख करोड़ टैक्स के रूप में दे रही है। ये क्या माजरा है? 

देश के संपूर्ण पेट्रोलियम उत्पादन का 25 फीसदी मार्केट-शेयर बीपीसीएल के पास है। इसको बेचने का मतलब है कि भारत सरकार अपनी एक स्ट्रैटेजिक यूनिट को निजी हाथों में दे रही है।

बीपीसीएल भारतीय सेना और रेलवे आदि को प्राथमिकता के साथ अपनी सेवाएं देती है। कॉरपोरेट-सोशल दायित्व मे भी तमाम पीएसयू की तरह बीपीसीएल ने निजी क्षेत्र की कंपनियों के मुक़ाबले बहुत अच्छा काम किया है। बीपीसीएल का कुल टर्नओवर यानी कुल रेवेन्यू इस वक्त 3.37 लाख करोड़ है। टैक्स देने से पहले इस वक्त कंपनी का मुनाफ़ा 10,440 करोड़ है, जो पहले से काफी बढ़ा है। इसने बीते 5 साल में 17,246 करोड़ के डिविडेंड्स (लाभांश) का भुगतान किया है। 

क्यों नहीं होती ठोस बहस?

संसद से सड़क तक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, खासकर बड़े और लाभकारी उपक्रमों के निजीकरण पर जिस तरह की ठोस बहस होनी चाहिए, वह पहले की कुछ बड़ी कंपनियों के विनिवेशीकरण के दौर की तरह आज बीपीसीएल के संदर्भ में भी नहीं दिखाई दे रही है। आख़िर इस बात को हमारे नीति-निर्धारक और अन्य संवैधानिक निकायों के उच्चाधिकारी कैसे भूल जाते हैं कि हमारे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम समाज में आय की असमानताओं को कम करने में अहम भूमिका निभाते हैं। 

संवैधानिक मूल्यों के विरूद्ध फ़ैसला 

ऐसे दौर में जब अपने देश में असमानता तेजी से बढ़ रही है। सार्वजनिक क्षेत्र के एक बड़े उपक्रम को बेचने का फ़ैसला क्या समाज में असमानता बढ़ाने के पक्ष में नहीं होगा? इस तरह का फ़ैसला न सिर्फ हमारी राजनीति के नैतिक मूल्यों, अपितु संवैधानिक मूल्यों के भी विरुद्ध होगा? दरअसल, इस तरह के फ़ैसले संविधान के अनुच्छेद-15 के भी ख़िलाफ़ हैं। ये सामाजिक न्याय के मूल्यों को कुंद करते हैं। ऐसे फ़ैसलों से देश में दलित-आदिवासी और सामाजिक-शैक्षिक स्तर पर पिछड़े वर्गों की नियुक्तियां भी प्रभावित होंगी। इन कंपनियों के निजी क्षेत्र में जाने से उत्पीड़ित और पिछड़े वर्गों को नियुक्तियों के दौरान आरक्षण की सुविधा से वंचित होना पड़ेगा। 

संविधान के तीन खास अनुच्छेद भारत में सामाजिक न्याय का रास्ता आसान करते हैं। ये हैं- 15(4), 16(4) और अनुच्छेद 340। निजीकरण और व्यापक विनिवेशीकरण की प्रक्रिया इन सभी अनुच्छेदों को कुंद करेगी। इसके अलावा इस तरह की सरकारी कंपनियों का बेचा जाना हमारे संविधान की बुनियादी संरचना के वजूद से संबंद्ध संविधान के अनुच्छेद 13, 14, 16, 21 और 32 के विभिन्न प्रावधानों का भी निषेध होगा। किसी भी प्रमुख पीएसयू का विनिवेश या उसे पूरी तरह बेचना किसी सरकार के लिए सिर्फ एक कारोबारी या रूटीन प्रशासनिक विषय नहीं है। वह संवैधानिक विषय भी है। 

बीपीसीएल का विनिवेश हमारे बुनियादी संवैधानिक मूल्यों के पूरी तरह विपरीत है। पर इस बारे में संबंधित पक्षों की तरफ से न्यायालय में याचिका पेश किए जाने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट की तरफ से किसी तरह का प्रभावकारी हस्तक्षेप नहीं हुआ।

किसके हाथ में जायेगी बीपीसीएल? 

बीपीसीएल की खरीद में रूचि दिखाने वाली कई विदेशी कंपनियां, जैसे रोसनेट (रूस) या एडनाक (संयुक्त अरब अमीरात) अपने-अपने देशों की सरकारी कंपनियां हैं। कोई नहीं जानता, बीपीसीएल किसके हाथ में जायेगी। अदानी-अंबानी-एस्सार-वेदांता या किसी विदेशी कंपनी के? दुनिया के 8 देशों में बीपीसीएल एक्सप्लोरेशन के काम में लगी है। ये देश हैं - संयुक्त अरब अमीरात, ब्राजील, रूस, इंडोनेशिया, ईस्ट तिमोर, आस्ट्रेलिया, इजरायल और मोजाम्बिक। बीपीसीएल के पास 9 सब्सिडियरी कंपनियां हैं, इन 9 कंपनियों के 100 फीसदी शेयर बीपीसीएल के पास हैं। मूल कंपनी के निजीकरण के साथ इन कंपनियों का भी निजीकरण हो जायेगा। यानी भारी पैमाने पर रोज़गार छिनेगा। 8 अन्य कंपनियों में बीपीसीएल के 50 फ़ीसदी और 6 अन्य कंपनियों में 25 फ़ीसदी शेयर हैं।

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व्यापक सामाजिक प्रतिरोध का अभाव

हमारे समाज, खासकर हिन्दी भाषी क्षेत्र में निजीकरण-विनिवेशीकरण के सवाल पर व्यापक सामाजिक-राजनीतिक प्रतिरोध का अभाव दिख रहा है। जिन-जिन क्षेत्रों में बीपीसीएल के विनिवेश के विरूद्ध उग्र विरोध हुआ है, वहां सरकार को थोड़ा झुकना पड़ा। असम की नुमालीगढ़ रिफ़ाइनरी इसका ठोस उदाहरण है। सरकार इस रिफ़ाइनरी को बीपीसीएल से अलग कर सरकारी कंपनी बनाए रखने का फ़ैसला कर चुकी है। अब इसका निजीकरण नहीं होगा। यह असमिया समाज के जन-दबाव में हुआ है। इसे अलग इसलिए किया गया क्योंकि बीपीसीएल के साथ इसका निजीकरण न हो और इसका स्वतंत्र अस्तित्व बना रहे। 

बीपीसीएल को बचाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर असम जैसा कोई बड़ा संगठित प्रतिरोध नहीं हुआ। सिर्फ बीपीसीएल के एससी-एसटी कर्मचारी/ अधिकारी संगठनों ने ही पुरजोर ढंग से निजीकण के विरोध में अपनी आवाज़ उठाई।

पिछले दिनों इन संगठनों ने अपनी कंपनी के निजीकरण के सरकारी कदम के विरूद्ध सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया पर 17 फरवरी को न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और एमआर शाह की पीठ ने उनकी याचिका को खारिज करते हुए कहा कि अनुच्छेद 32 के तहत इस केस में कोई मैरिट नहीं है। ऐसे में अब बीपीसीएल को निजी हाथों में जाने से बचाने की कोशिश करने वाले कहां जायें? 

राष्ट्रीय अस्मिता के साथ धोखा 

बीपीसीएल के पास जो रिफ़ाइनरीज हैं और दफ्तरों आदि की जो जमीनें हैं, सिर्फ उनकी कीमत से भी काफी कम रुपये में सरकार इस महारत्ना कंपनी को अपने किसी पसंदीदा-कॉरपोरेट के हवाले करने का मन बना चुकी है। सरकार खुलेआम देश की थाती बेच रही है। देश के हित और हमारी राष्ट्रीय अस्मिता के साथ इतना बड़ा धोखा कर रही है। पर ‘जय श्रीराम’, ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ जैसे 'जय-घोषों' के शोर में भला देश के आर्थिक और समाज के व्यापक हितों के साथ हो रही इस धोखाधड़ी का सच कौन सुनेगा? 

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