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कोरोना: प्रधानमंत्री के संदेश में आपदा से बचाव का कोई बड़ा पैकेज क्यों नहीं?

इस बात को सरकार के सभी बड़े नौकरशाह समझ रहे हैं कि संक्रमण का फैलाव समुदायों-गाँव-कस्बों और गली-मोहल्ले तक नहीं हो, इसकी हरसंभव कोशिश करनी होगी। इसके लिए लोगों के स्वास्थ्य-परीक्षण यानी टेस्टिंग की संख्या बढ़ानी होगी, जो भारत में नाकाफी है। यही ग़लती अमेरिका, इटली और स्पेन आदि ने की थी।
उर्मिेलेश

19 मार्च को जिस वक़्त प्रधानमंत्री मोदी कोविड-19 के गंभीर ख़तरे पर राष्ट्र को संबोधित कर रहे थे, अपने देश में कोरोना वायरस से संक्रमित कुल मामले 173 से ऊपर हो चुके थे। लेकिन इससे मरने वालों की संख्यी अभी तक सिर्फ़ 4 बताई गई है। चार मौतें और एक मरीज ने आत्महत्या कर ली। इस तरह कोविड संक्रमित मृत लोगों की संख्या पाँच मानी जा सकती है।

राज्यों का हिसाब देखें तो सबसे संक्रमित सूबा महाराष्ट्र बताया गया है। दुनिया के तमाम देशों में कोरोना के फैलाव को देखते हुए भारत में अगले दो सप्ताहों में क्या स्थितियाँ होंगी, इसका बड़े चिकित्सा विज्ञानी भी कुछ ठोस अनुमान लगाने से इनकार कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री जी ने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में रविवार को सुबह से शाम के बीच ‘जनता-कर्फ्यू’ लागू करने का लोगों का आह्वान किया। शायद इस बात से ज़्यादा लोग इनकार नहीं करेंगे कि रविवार के दिन लोगों की सीमित आवाजाही को और सीमित करने में यह आह्वान कुछ सहायक हो सकता है। लेकिन कोविड-19 के प्रसार को अगर समय रहते रोका नहीं गया तो लोगों की आवाजाही तो यूँ ही ठप्प हो जाएगी। इसलिए ‘जनता-कर्फ्यू’ और शाम पाँच बजे ‘थाली-ताली-चम्मच बजाने’ के एलान का कोई ख़ास अर्थ नहीं निकलता नज़र आ रहा है। लोगों की आवाजाही तो आवागमन के साधनों को बंद या सीमित करके भी कम की जा सकती है। इसके लिए ‘कर्फ्यू’ जैसे डरावने शब्द की भला क्या ज़रूरत? और फिर सिर्फ़ एक दिन की आवाजाही के रुकने या कम होने से सबकुछ दुरुस्त नहीं हो जाएगा। 

दुनिया भर के बड़े चिकित्सा-विज्ञानियों की मानें तो हमारे जैसे देश को आज सबसे बड़ी ज़रूरत है, प्रभावित क्षेत्रों में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के स्वास्थ्य-परीक्षण यानी टेस्टिंग की। पर प्रधानमंत्री के संदेश में इस बाबत किसी ठोस योजना का एलान नहीं सुना जा सका।

बहुत सारे कयास हैं कि भारत के गर्म मौसम के चलते शायद यूरोप और अमेरिका की तरह कोराना का यहाँ फैलाव बहुत तेज़ी से न हो और इस तरह हमारा देश भयानक महामारी की चपेट से बच जाए! लेकिन इस बारे में अभी तक कोई वैज्ञानिक आधार या अध्ययन सामने नहीं आया है। यह एक नया वायरस है, इसका सबकुछ अज्ञात है।

कोरोना किसी एक देश की कहानी नहीं है। यह एक वैश्विक आपदा बनती जा रही है। प्रधानमंत्री ने भी अपने संदेश में इसका अपने ढंग से ज़रूरी उल्लेख किया। पर आज इसे लेकर जो बात ज़्यादा महत्वपूर्ण होकर सामने आई है, वह यह कि कोविड-19 ने वैश्विक स्तर पर समाजों और सत्ताओं के रिश्तों, मुल्कों के संस्थागत और सभ्यतागत संकट को भी बुरी तरह उजागर किया है। पहले इन विषयों पर लिखा-पढ़ा और बोला जाता रहा है लेकिन आज इस संकट की पूरी तसवीर लोगों के सामने है। इसने एक बार फिर सुसंगत जन-स्वास्थ्य तंत्र की ज़रूरत को दुनिया के तमाम देशों के सामने शिद्दत से रखा है। ग़रीब, अविकसित और विकासशील देशों की बात छोड़िए, बेहद विकसित और अमीर कहे जाने वाले ढेर सारे देशों की सत्ताएँ और उनका समूचा तंत्र भी कोरोना के आतंक के आगे घुटने टेक चुका है या अपनी आबादी के बचाव के लिए किसी संयोग का इंतज़ार कर रहा है। इन अमीर मुल्कों के बीमा-आधारित स्वास्थ्य और चिकित्सा तंत्र की सीमाएँ बुरी तरह उजागर हो रही हैं।

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ताक़तवर देश अपने देश में ही घिरे

अमेरिका, इटली, स्पेन, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे अमीर, विकसित और ताक़तवर देश अपने में ही घिरे हुए हैं। वे अपनी ही आबादियों का ठीक से बचाव नहीं कर पा रहे हैं। बिल्कुल साफ़ नज़र आ रहा है कि वे अपनी मिसाइलों, बमों, युद्धक विमानों और तमाम तरह के अति मारक हथियारों से दुनिया को मिनटों में तबाह ज़रूर कर सकते हैं पर आज वे अपनी आबादियों को भी एक विचित्र और रहस्यमय वायरस से बचाने में बुरी तरह असहाय नज़र आ रहे हैं। उनके शीर्ष नेता वाहियात क़िस्म की बयानबाजियों से पूरी दुनिया में आलोचना के पात्र बन रहे हैं। अभी हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की यूनेस्को सहित कई अंतरराष्ट्रीय मंचों से आलोचना हुई। ट्रंप महराज ने अपने एक बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान में कहा कि कोरोना एक चीनी वायरस है, इसके लिए चीन ज़िम्मेदार और गुनहगार है। इसके जवाब में चीन कुछ कहे, इसके पहले यूनेस्को ने जवाब दिया कि वायरस का कोई मुल्क नहीं होता।

यह बात सही है कि इस वायरस का प्रकोप चीन के वुहान शहर में हुआ। शुरुआती दौर में इस वायरल बीमारी को समझा नहीं जा सका। कुछ हल्कों में कोताही की ख़बरें भी आईं। पर बाद के दिनों में चीन ने अपने ज़बर्दस्त पब्लिक हेल्थकेयर सिस्टम, क्वेरंटीन और लॉकडाउन आदि के ज़रिए सिर्फ़ वुहान में मौतों पर ही नहीं, कंट्रोल किया, उसने देश के दूसरे हिस्सों में इसका फैलाव भी नहीं होने दिया। इसके साथ ही उसने देश के अन्य क्षेत्रों में सामान्य क़ारोबार जारी रखा। 

आज की तारीख़ में चीन से कोरोना के चलते एक भी व्यक्ति की मौत की ख़बर नहीं आ रही है। संक्रमित लोगों की संख्या भी तेज़ी से घट रही है। लेकिन अमेरिका और नाटो के कई सदस्य देश अभी भी चीन को गरियाने में जुटे हैं।

गरियाने और गुटबंदी के बजाय सोचने की ज़रूरत है कि जिस बुरी तरह कोराना का संक्रमण इटली, स्पेन, अमेरिका, फ्रांस और अब इंग्लैंड जैसे देशों में फैला है- क्या इन धनी और विकसित देशों के हेल्थकेयर सिस्टम पर यह एक टिप्पणी नहीं है? क्या इससे इन देशों के निजीकृत बीमा-आधारित स्वास्थ्य नीति का खोखलापन सामने नहीं आया है?

ये सभी विकसित पूंजीवादी देश अपनी-अपनी आबादियों को बचाने के लिए ऐसा कोई क़दम क्यों नहीं उठा पा रहे हैं, जैसा चीन ने वुहान के संक्रमण-विस्फोट को नियंत्रित करने और दूसरे प्रांतों में फैलने से रोककर किया। अब चीन, क्यूबा और वेनेजुएला के डॉक्टरों की टीमें इटली जाकर हालात को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही हैं। पर ऐसा तो कहीं नहीं सुना जा रहा है कि अमेरिका की कोई विशेषज्ञ-टीम इटली जा रही है या ब्रिटेन की कोई ऐसी ही टीम स्पेन या फ्रांस की टीम अमेरिका जा रही है! अमेरिका के बिल्कुल पास लेकिन अमेरिका का हमेशा कोपभाजन रहे एक छोटे से देश क्यूबा ने आपदा की इस घड़ी में जिस तरह की दरियादिली, साहस और अपने स्वास्थ्य तंत्र की दक्षता का प्रदर्शन किया है, उस पर उसे पूरी दुनिया की वाहवाही मिल रही है। कैरेबियन सागर में कोरोना संक्रमित सैलानियों से भरे एक ब्रिटिश क्रूज शिप को कोई भी देश अपने बंदरगाह पर रुकने की इजाज़त नहीं दे रहा था। पर क्यूबा ने उसे न सिर्फ़ इजाज़त दी है अपितु उस पर यात्रा कर रहे मरीजों की दवा-दारू करके उन्हें चंगा भी कर रहा है।

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कोविड-19 के गंभीर ख़तरे के मौजूदा दौर में इस सच को स्वीकारने में हमें संकोच नहीं करना चाहिए कि आज़ादी के 73 साल बाद भी हमारे पास सुंसगत और कारगर जन-स्वास्थ्य तंत्र नहीं है। अपने बजट में हमारा देश पब्लिक हेल्थ पर सिर्फ़ 1.2 फ़ीसदी के आस-पास ख़र्च करता है— हमारा प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य ख़र्च दुनिया के प्रमुख देशों में सबसे कम है। प्रति व्यक्ति सालाना ख़र्च 1112 रुपए यानी प्रति दिन लगभग 3 रुपए के आसपास है।

अगर कोविड-19 तीसरे चरण को पार करते हुए समुदायों, गाँव-कस्बा और गली-मोहल्ले तक जा पहुँचा तो भारत की बड़ी आबादी पर भयानक ख़तरा मंडराता नज़र आएगा। क्या सरकार इस बारे में कुछ सोच रही है?

सीमित जन-स्वास्थ्य तंत्र के मद्देनज़र क्या सरकार के पास व्यापक स्तर पर टेस्टिंग का कोई प्रारूप है? ऐसे ख़तरों से निपटने की हमारे पास क्या रणनीति है? ज़ाहिर है, ‘जनता-कर्फ्यू’ जैसे प्रयोग इसकी कारगर रणनीति नहीं हो सकते! प्रधानमंत्री को इस गंभीर चुनौती पर देशवासियों को अपने संदेश में ज़रूर कुछ सुझाना चाहिए था या सरकार की तरफ़ से कुछ बड़े क़दमों की घोषणा करनी चाहिए थी। साथ में जनता के लिए भी किसी पैकेज की घोषणा होनी चाहिए थी कि कोविड-19 के मद्देनज़र जिन लोगों के पास कोई काम नहीं है या भविष्य में जिनका काम छिन सकता है या जिनके काम पर जाने की स्थिति नहीं होगी, ऐसे डेली-वर्कर्स, निम्न-आय वर्गीय लोगों असंगठित क्षेत्र के कर्मियों और अन्य ग़रीब लोगों के लिए सरकार क्या करने जा रही है? उनके भरण-पोषण के लिए क्या किया जाएगा? ‘राष्ट्र के नाम संदेश’ में इस बाबत कुछ भी पता नहीं चला।

इस बात को सरकार के सभी बड़े नौकरशाह समझ रहे हैं कि संक्रमण का फैलाव समुदायों-गाँव-कस्बों और गली-मोहल्ले तक नहीं हो, इसकी हरसंभव कोशिश करनी होगी। इसके लिए लोगों के स्वास्थ्य-परीक्षण (टेस्टिंग) की संख्या बढ़ानी होगी, जो भारत में नाकाफी है। यही ग़लती अमेरिका, इटली और स्पेन आदि ने की थी। 

सियासत से ख़ास
भारत जैसे विशाल, ग़रीब और विविधता भरे मुल्क में ‘सेल्फ-आइसोलेशन’ और ‘वर्क फ्रॉम होम’ जैसे इलीट शहरी लोगों के लिए उपयोगी हो सकते हैं, आम आबादी, ख़ासकर ग़रीबों और निम्न-आय वर्गीय लोगों के लिए तो बिल्कुल नहीं। यह वो आबादी है, जो न तो लंबे समय तक ‘सेल्फ-आइसोलेशन’ झेल सकती है और न ही ‘वर्क फ्रॉम होम’ का फ़ॉर्मूला आजमा सकती है। अचरज की बात है कि प्रधानमंत्री जी ने इस बाबत कोई टिप्पणी ही नहीं की। 
केरल की सरकार ने हाल ही में अपने प्रदेश के लिए, ख़ासतौर पर ज़रूरतमंद समुदायों के लिए 20 हज़ार करोड़ के एक बड़े पैकेज का एलान किया है। फिर केंद्र राष्ट्रव्यापी स्तर पर ऐसे किसी एलान से क्यों बच रहा है? प्रधानमंत्री इस तरह के किसी संभावित पैकेज में सहयोग के लिए निजी क्षेत्र, पीएसयूज और देश के बड़े अमीरों का भी आह्वान कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया। इसके उलट, उनके संदेश में आर्थिक मोर्चे पर सरकार की बीते कई सालों की अर्जित विफलताओं को ढंकने में इस आपदा का आवरण तलाशने की कोशिश दिखी। वित्त मंत्री की अगुवाई में कोविड-19 इकोनॉमिक टास्क फ़ोर्स के गठन के एलान से क्या कुछ निकलेगा, यह तो भविष्य बताएगा। लेकिन अभी भविष्य से ज़्यादा बड़ा सवाल वर्तमान का है!
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