जब तक बीसीसीआई के खजाँची अरुण धूमल मीडिया रिपोर्टों को यह कहकर खारिज कर पाते कि विराट कोहली वर्ल्ड कप से ठीक पहले या उसके बाद कप्तानी छोड़ने वाले नहीं हैं, तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी। दरअसल, हक़ीक़त तो यही है कि बोर्ड चाहे कोई भी दलील दे, इस बात से क़तई इंकार नहीं किया जा सकता है कि कोहली पहली बार कप्तानी के मामले में बुरी तरह से फंस गये हैं।
अब देखिये न, बोर्ड सचिव जय शाह ने किस तरह से कोहली के सामने धर्म-संकट की स्थिति पैदा कर दी। बेहद सोच-समझ कर कोहली और रवि शास्त्री के सामने महेंद्र सिंह धोनी जैसा हाथी ड्रेसिंग रूम में लाकर बिठा दिया। इसकी एक वजह थी क्योंकि शाह को कुछ खिलाड़ियों ने साफ़-साफ़ कहा था कि अगर इस जोड़ी यानी कि कोहली-शास्त्री की निरंकुशता पर लगाम लगानी है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ धोनी की मौजूदगी ही ऐसा कर सकती है।
अब, विडंबना देखिये कि कोहली अगर पहली बार वर्ल्ड कप जीतने में कामयाब होते हैं तो जीत का सेहरा मास्टर-माइंड धोनी को जायेगा लेकिन हारे तो फिर से आलोचना कोहली की ही होगी। यानी चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी और इस चाल में फंस गए कोहली!
धोनी को मेंटोर के तौर पर टीम में शामिल करके बोर्ड ने साफ़ कर दिया कि कोहली की कप्तानी नोटिस पीरियड में चल रही है। वहीं रोहित को यह जतला दिया गया है कि इंग्लैंड दौरे पर ज़िम्मेदारी पूर्वक बल्लेबाज़ी करने से उन्हें भविष्य के कप्तान के तौर पर उनकी दावेदारी को बेहद गंभीरता से लिया जा रहा है। लेकिन, कई मायनों में देखा जाए तो राजनीति की बजाए बीसीसीआई की इस चाल में हर पक्ष का फ़ायदा ही नज़र आता है। अगर कोहली टी20 वर्ल्ड कप में नाकाम होते हैं तो उनके पास शालीन तरीक़े से कप्तानी को अलविदा कहने का यह एक उचित मौक़ा होगा। रोहित को आख़िर में वो ज़िम्मेदारी मिल ही जायेगी जिसकी वकालत पिछले कई सालों से फैंस और क्रिकेट जानकार कर रहे हैं।
तीसरी बात यह है कि बोर्ड के पास भी यह मौक़ा है कि जब तक रोहित कप्तान बने रहते हैं उनके पास यह मौक़ा होगा कि वो भविष्य के कप्तान के तौर पर के एल राहुल या फिर ऋषभ पंत में से किसी की क्षमता को परख सके।
लाल, सफेद गेंद में अलग कप्तानी की ज़रूरत क्यों?
“आज का दिन कोहली जैसे कप्तान के लिए ख़ास तौर पर अहम है जो काफ़ी जूनूनी हैं। वो भावना छिपाते नहीं हैं और अपनी टीम को उन्होंने लॉर्ड्स में कहा कि इंग्लैंड पर कहर बरपा दो तो उनकी टीम ने पूरे जोश के साथ कहर बरपा दिया। लेकिन, इस पिच पर आख़िरी दिन आपको क्रिकेट की सूझ-बूझ रखने वाले सलाहकार की ज़रूरत पड़ेगी। इस मामले में स्लिप में मौजूद रोहित शर्मा की मौजूदगी कोहली जैसे जूनूनी के लिए काफ़ी अहम है। क्योंकि ऐसे दिनों पर सिर्फ़ जूनून से ही नहीं बल्कि रणनीति और बेहतर चाल की ज़रूरत पड़ती है।”
इस बात में शायद ही कोई बहस हो कि कोहली सौरव गांगुली वाले जूनूनी स्कूल से ताल्लुक रखते हैं तो रोहित दूसरी तरफ़ बिलकुल धोनी वाले शांत स्कूल का प्रतिनिधित्व करते हैं। नासिर हुसैन की मानें तो एक अच्छी क्रिकेट टीम की कप्तानी में इन दोनों गुणों का संतुलित मात्रा में होना सबसे बेहतर होता है।
बहरहाल, जूनूनी स्कूल की सोच की अपनी सीमायें हैं। गांगुली भले ही भारत को एक बेहद आक्रामक छवि देने में कामयाब रहे लेकिन वर्ल्ड कप तो वो भी नहीं जीत पाये। वहीं धोनी ने क्रिकेट का अद्भुत ग्रैंड स्लैम अपने नाम किया। उनके नाम टी20 वर्ल्ड कप के अलावा वन-डे वर्ल्ड कप और चैंपिंयस ट्रॉफी भी है। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में भले ही न सही लेकिन आईपीएल में धोनी से ज़्यादा ट्रॉफी जीतकर रोहित ने यह कहने की कोशिश तो ज़रूर की है कि अगर उन्हें सफेद गेंद की कप्तानी समय पर नहीं दी गयी तो इसका नुक़सान जितना उन्हें हुआ है, हो सकता है भारतीय क्रिकेट को उसका नुक़सान ज़्यादा हुआ हो।
टेस्ट क्रिकेट में अगर कप्तान कहीं चूकता दिखाई देता हो तो ड्रिंक्स इटंरव्ल्स से लेकर लंच और चाय के दौरान कोच और स्पोर्ट स्टाफ़ इतनी सलाह कोहली जैसे कप्तान को ज़रूर दे सकते हैं कि स्थिति काबू से बाहर ना हो जाए लेकिन टी20 फॉर्मेट में जहाँ हर पल आपको त्वरित गति से फ़ैसले लेने पड़ते हों, रोहित जैसे शानदार सूझ-बूझ वाले कप्तान की ज़रूरत होती है। अगर कोहली टेस्ट टीम संभालें और रोहित सफेद गेंद की टीम तो इससे भला भारतीय क्रिकेट का ही होने वाला है।
वैसे भी भारतीय क्रिकेट में सुनील गावस्कर-कपिल देव वाला या फिर अज़हरुद्दीन-तेंदुलकर वाला शीत-युद्ध का दौर ख़त्म हो चुका है। नई सदी और नई संस्कृति में पेशेवर नज़रिये का बोलबाला है और रोहित और कोहली में वह समझदारी है कि वो अपने दायित्व को उदाहरण के तौर पर नई पीढ़ी के सामने पेश कर सकते हैं।
हाल ही में पाकिस्तान के पूर्व कप्तान रमीज राजा ने मुझे एक दिलचस्प बात बतायी। राजा का कहना था कि अगर इमरान ख़ान ने 1992 का वर्ल्ड कप नहीं जीता होता तो उनकी लीडरशीप को वो तवज्जोह नहीं मिलती क्योंकि क्रिकेट में अच्छे कप्तान के लिए ट्रॉफी जीतना अनिवार्य ही है। टेस्ट क्रिकेट के दो सबसे कामयाब कप्तान क्लाइव लॉयड और रिकी पोंटिंग के बेहद क़रीब कोहली पहुँच चुके हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन दोनों कप्तानों के पास एक एक नहीं वनडे क्रिकेट की 2 -2 वर्ल्ड कप ट्रॉफी भी हैं। इसलिए जब भी महान कप्तानों का इतिहास में ज़िक्र होगा तो कोहली सिर्फ़ लाजवाब टेस्ट रिकॉर्ड के चलते बेस्ट ऑफ़ द बेस्ट की क़तार में खुद को नहीं खड़ा कर पायेंगे।
कप्तान कोहली से ज़्यादा बल्लेबाज़ कोहली की ज़रूरत
टीम इंडिया को फ़िलहाल कप्तान कोहली की बजाए उस बल्लेबाज़ कोहली की ज़रूरत ज़्यादा है जो अपने बल्ले के दम पर पिछले एक दशक से भारतीय क्रिकेट का सबसे बड़ा मैच-विनर रहा है। इंग्लैंड में चेतेश्वर पुजारा और अंजिक्य रहाणे का संघर्ष टीम इंडिया को बिलकुल नहीं अखरता अगर कोहली फॉर्म में होते। इस बात पर यक़ीन करना मुश्किल है कि क़रीब दो साल से कोहली के बल्ले से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में एक भी शतक नहीं लगा है। इस दौरान खेले गये 12 टेस्ट में उनका औसत क़रीब 26 है जबकि उनका करियर औसत क़रीब 51 का। यही हाल इस दौरान खेले गये 15 वन-डे मुक़ाबलों का है जहाँ कोहली का औसत क़रीब 60 से गिरकर 43 पर आ गया है। आश्चर्य नहीं कि कोहली का यह संघर्ष पुराने जानकारों को सचिन तेंदुलकर के दौर की याद दिलाये जब वो भी कप्तानी के बोझ के तले अपने बल्लेबाज़ी के पराक्रम को खोते जा रहे थे।
हर कप्तान की भी एक समय सीमा होती है
“भारत में भी हर कप्तान के लिए भी एक समय सीमा होती ही है जहाँ पर आपको अपना अपना सर्वश्रेष्ठ देना पड़ता है। हो सकता है कि आने वाले समय में ये समय सीमा और छोटी होती जाए।” यह कहना था टीम इंडिया के पूर्व कप्तान राहुल द्रविड़ का जब उन्होंने 2007 में इंग्लैंड में टेस्ट सीरीज़ जीतने के बाद अचानक हर किसी को चौंकाते हुए संन्यास का फ़ैसला लिया। क़रीब 14 साल बाद कोहली भी फिर से इंग्लैंड में एक अहम टेस्ट सीरीज़ जीतने के बेहद क़रीब पहुँचे हैं और अब उनसे भी यही सवाल हो रहे हैं कि आख़िर हर कप्तान के लिए भी एक समय सीमा होती ही है।
द्रविड़ के संन्यास के बाद भारतीय क्रिकेट में धोनी की कप्तानी का स्वर्णिम युग आया। क्या कोहली के कप्तानी छोड़ने के बाद रोहित के साथ भी इतिहास खुद को दोहरा सकता है?
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