ऐसा लगता है कि चुनाव के बाद त्रिशंकु लोकसभा बनेगी। क्षेत्रीय नेता मई में राजसी पोशाक पहनने का दिवा स्वप्न देख रहे हैं। राजनीति का अंतिम फल सत्ता ही है। राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा पालने वाला हर नेता चाहे वह छोटा-मोटा हो या बहुत बड़ा, इंद्रप्रस्थ के चमचमाते सिंहासन को हथियाना चाहता है। अब जबकि चुनाव नतीजे आने में सिर्फ़ दो हफ़्ते बचे हैं, कई नेताओं ने ख़ुद को किंगमेकर की भूमिका के लिए तैयार कर लिया है।
साल 2019 का चुनाव सिर्फ़ आदर्शों और सिद्धान्तों की लड़ाई नहीं है। देश के 542 लोकसभा क्षेत्रों के मतदाताओं के सामने अजीब ढंग से दो ही विकल्प हैं, या तो वह नरेंद्र मोदी हैं या फिर क्षेत्रीय नेता।
बाक़ी बची हुई 118 सीटों के लिए अंतिम समय में होने वाले मोदी के सुनामी जैसे धुआँधार प्रचार से चुनाव नतीजों पर असर पड़ेगा, पर वह आंशिक ही होगा।
भारतीय मीडिया के तेवर को देख कर लगता है कि कुछ अपवादों को छोड़ कर टेलीविज़न समेत पूरा मीडिया काफ़ी सौम्य हो गया है और बाहर से देखने पर निष्पक्ष भी लगने लगा है। क्या ऐसा पाँच चरणों के लिए हुए एग्जिट पोल की वजह से हुआ है? क्षेत्रीय नेता मई में राजसी पोशाक पहनने का दिवा स्वप्न देख रहे हैं।
केसीआर ने अपनी योजना को शुरू करने के लिए केरल के मार्क्सवादी मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन को चुना। विडंबना यह है कि केसीआर की छवि बीजेपी समर्थक की है और वह बीजेपी और नरेंद्र मोदी के धुर-विरोधियों के साथ ही साँठ-गाँठ कर रहे हैं।
केसीआर की साख संदेह के घेरे में है क्योंकि उनकी पार्टी दक्षिण भारत की अकेली ऐसी पार्टी है, जिस पर आयकर, प्रवर्तन निदेशालय यानी एनफ़ोर्समेंट डाइरेक्टरेट और सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेसियों के छापे वग़ैरह नहीं पड़े हैं। केंद्रीय सरकार बनाने की संभावनाएँ तलाशने में उनकी हद से ज़्यादा दिलचस्पी से भी कई राजनीतिक सवाल उठते हैं। कांग्रेस से उनकी पुरानी खिसियाहट का नतीजा यह होगा कि वह भविष्य के किसी भी गठजोड़ से कांग्रेस को बाहर रखेंगे।
केसीआर बीजेपी विरोधी पार्टियों से बात कर रहे हैं, शायद उन्होंने यह निष्कर्ष निकाल लिया है कि साउथ ब्लॉक का अगला रंग केसरिया नहीं होगा।
कांग्रेस का मानना है कि दक्षिण भारत के 5 में से 4 राज्यों में उसे बीजेपी से ज़्यादा सीटें मिलेंगी। इसका अपवाद केरल है, जहां मोदी की थोड़ी बहुत पकड़ हो गई है। इसलिए केसीआर बार-बार अपनी जेब से राजनीतिक कैलकुलेटर निकालते रहते हैं।
टीआरएस के अंदर के लोगों के मुताबिक़, वहाँ चल रहे नंबर के हिसाब-किताब का कुल लब्बोलुवाब यह है कि बीजेपी को बहुमत नहीं मिलने जा रहा है। उनका अनुमान है कि ग़ैर-कांग्रेस और ग़ैर-बीजेपी की कुल सीटों से ज़्यादा सीटें तीसरे मोर्चे को मिलेंगी। यह गणना प्रोबैबलिटी के विज्ञान पर आधारित है।
साल 2014 में बीजेपी यूपीए विरोध और मोदी समर्थन की लहर पर सवार होकर 400 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, उसमें से 282 सीटें वह जीत गई थी। इनमें से 225 सीटें तो 11 राज्यों से ही निकलीं। इनमें से आधी सीटें तो बीजेपी ने कांग्रेस से छीनी थीं।
बीजेपी की सफलता की दर राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में लगभग शत-प्रतिशत थी। बीजेपी ने उत्तर प्रदेश की 80 में से 71 सीटें जीत लीं थी जो एक रिकॉर्ड है। बीजेपी विरोधियों का कहना है कि केंद्र और राज्य में सत्ता विरोधी लहर की वजह से बीजेपी अपनी पुरानी कामयाबी को नहीं दुहरा पाएगी। अब तक मोटे तौर पर यह होता आया है कि दिल्ली के मतदाता 60 प्रतिशत नेताओं को दुबारा नहीं चुनते हैं।
प्रोबैबलिटी का सिद्धांत कांग्रेस के साथ
तीन सौ सीटें जीतने का बीजेपी का आकलन बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है और कोई चुनाव विशेषज्ञ या इतिहासकार इसकी पुष्टि नहीं करता है। इसके अलावा यह भी सच है कि ऐसा करने के लिए बीजेपी को न केवल अपनी मौजूदा सीटें बचानी होंगी, बल्कि उसे पश्चिम बंगाल, ओडिशा और दक्षिण भारत में भी पहले से बहुत बेहतर प्रदर्शन करना होगा और यह बहुत बड़ी बात होगी। इसलिए लगता है कि प्रोबैबलिटी का सिद्धांत कांग्रेस के साथ है।शरद पवार और चंद्रबाबू नायडू जैसे दूसरे क्षेत्रीय क़द्दावर नेता भी मोदी की वापसी रोकने के लिए मिल कर काम कर रहे हैं। मोदी की सफलता इस पर निर्भर है कि उनका निजी करिश्मा लोगों को कितना प्रभावित करेगा कि वे वोट डालते समय बीजेपी को भूल जाएँ और सिर्फ़ यह याद रखें कि उन्होंने क्या किया है।
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