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क्या पार्टियों के घोषणापत्र बुनियादी चीजों को फिर नज़रअंदाज़ करेंगे?

मुझे यह पूरा विश्वास है कि राजनीतिक पार्टियों के मेनिफेस्टो यानी घोषणापत्र फिर बुनियादी चीजों को नज़रअंदाज़ करेंगे। राजनीतिक पार्टियों को आपसी प्रतिस्पर्धा में बड़ी-बड़ी बातें करना कम करना चाहिए और सही मायनों में देशभक्ति के अर्थ को चरितार्थ करना चाहिये।
प्रभु चावला
राजनीतिक महाभारत का नया संस्करण तैयार हो रहा है। आधा दर्जन राष्ट्रीय और पचास से ज़्यादा क्षेत्रीय पार्टियों ने सामूहिक निर्देश शस्त्र - नया भारत समावेशी भारत, सहिष्णु भारत, समृद्ध भारत, मजबूत भारत और संयुक्त भारत जैसे नारों से लैस मैनिफेस्टो मिसाइल तैयार कर लिए हैं। पर क्या ये सब बाद में अपने शब्दों पर खरे उतरेंगे? और क्या ये ख़ूबसूरत शब्द भद्दी, गाली गलौज वाली, अपमानजनक, जातिवादी और ओछी भाषा पर भारी पड़ेंगे? लेकिन पिछले चुनाव का अनुभव यही कहता है कि ऐसा नहीं होगा। आने वाले दिनों में चुनाव प्रचार की यही भाषा होगी क्योंकि चुनाव अक्सर सकारात्मक वायदों के विपरीत नकारात्मक मुद्दों पर जीते जाते हैं। मीडिया घरानों के ख़जाने उन विज्ञापनों की चकाचौंध से भरे जाते हैं जो सरकारों की कामयाबियों की कहानियाँ बयाँ करते हैं। जल्द ही चमचमाते कार्यक्रमों में नए मेनिफेस्टों और विज़न डाक्यूमेंट्स रिलीज़ किए जाएँगे। जैसा कि पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल चुटकी लेकर कहते थे 'सिर्फ मेनिफेस्टो के कवर पर नई तस्वीर लग जाती है, शेष वैसे का वैसा ही रहता है क्योंकि वायदे कभी पूरे नहीं होते।' संदेश बहुत स्पष्ट है कि कवर के आधार पर मेनिफेस्टो की पड़ताल मत करना। 
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आज भी है 'ग़रीबी हटाओ' का नारा

देवीलाल गाँव के रहने वाले थे। वह हमेशा ज़मीन से जुड़े नेता थे। वह मज़ाक नहीं कर रहे थे। उनकी इस चुहल के दशकों बाद आज हिंदुस्तान दुनिया की छठी सबसे बड़ी और सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है। पिछले तीस सालों में प्रति व्यक्ति आय में तीन सौ फीसदी का इज़ाफा हुआ है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आज भारत की बहुत इज्ज़त है। इसके पास विश्व स्तरीय एयर पोर्ट और स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएँ हैं। भारतीय विदेशों में धड़ल्ले से अपने क्रडिट कार्ड इस्तेमाल करते हैं और देश के अंदर विमानन उद्योग दहाई अंकों से ज्यादा की गति से तरक्की कर रहा है। पिछले दस सालों में भारत में अरबपतियों की संख्या में 500 फीसदी की वृद्धि हुई। दुनिया के 200 सबसे अमीर लोगों में लगभग एक दर्जन भारतीय हैं। लेकिन ग़रीबी हटाओं का नारा आज भी ज़िंदा है।
हमारे सामाजिक राजनीतिक जीवन की यह कैसी विडम्बना है? भारत एक ग़रीब देश है, लेकिन यह विकासशील अर्थव्यवस्था के तौर पर जाना जाता है। भारत की पहचान एक ऐसे अमीर देश की थी, जहाँ गरीब रहते थे। लेकिन यह अमीर देश चंद बेहद अमीर लोगों का बंधक बना हुआ है।
समृद्धि और विकास के चिन्ह इसकी पहचान को रेखांकित करते हैं। लेकिन ग़रीबी रेखा के नीचे यहाँ सबसे अधिक ग़रीब लोग रहते हैं। यह दुस्वप्न अभी ख़त्म नहीं हुआ है। आज़ादी के 73 साल बाद भी स्थानीय नेता कृषि ऋण माफ़ करने की वकालत करते हैं। यूपीए सरकार ने अगर 2014 में 60 हज़ार करोड़ कृषि ऋण माफ किया तो एनडीए सरकार किसानों के लिए हर साल दो लाख करोड़ रुपए देने की बात कर रही है। चार दशक पहले किसान देश की जीडीपी में 50 प्रतिशत का योगदान करते थे और ग्रामीण आबादी का 60 प्रतिशत उनपर निर्भर था। अब वे जीडीपी में 17 फीसदी का योगदान करते हैं लेकिन गाँव-देहात के 50 फीसदी लोगों का पेट भरते हैं। हर चुनावी घोषणा पत्र में उनको बेहतर जीवन का वायदा किया गया है, लेकिन किसानों की आत्म हत्याओं का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा है।
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आरक्षण की विकृति

मुझे यह कहने में ज़रा भी हिचक नहीं है कि आरक्षण की विकृति काफ़ी हद तक भारत की समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार है। शुरुआत में दस साल के लिए जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था यह सोच कर की गई थी कि समाज में जिन लोगों के साथ भेद भाव किया जाता है, उनको देश की मुख्य धारा में लाया जा सके। आज अधिक से अधिक जातियाँ आरक्षण की माँग कर रही हैं। राजनीतिक पार्टियाँ गरीबी हटाओ कार्यक्रमों को लागू करने की वकालत का कोई भी मौका नहीं छोड़ती हैं। लेकिन सात दशकों बाद भी हर चौथा भारतीय गरीबी की रेखा के नीचे जीवन जी रहा है। हर मेनिफेस्टों में नेता लाखों रोज़गार दिलाने का वादा करते हैं, लेकिन फिर भी दस में से एक योग्य युवा आज भी बेरोज़गार है। नेता हर पाँच साल में गरीबों को मकान दिलाने का वादा करते हैं, लेकिन बीस प्रतिशत लोगों के पास आज भी पक्के मकान नहीं हैं। वोटों की भीख माँगने वाले 24 घंटे साफ पीने लायक़ पानी की सप्लाई का वादा करते हैं लेकिन 70 प्रतिशत भारतीय आज भी स्वच्छ पीने लायक पानी के लिए तरस रहा है। भारत दुनिया की आबादी का 16 प्रतिशत है लेकिन स्वच्छ पीने लायक पानी के मामले में उसका हिस्सा सिर्फ़ चार प्रतिशत ही है।
स्वच्छ भारत अदभुत जुमला है। नरेंद्र मोदी की तरह अतीत में किसी और नेता ने भारतीय समाज की मानसिकता में बुनियादी बदलाव लाने की कोशिश नहीं की। पर शुरुआती कामयाबी के बाद अब इस स्वप्न को साकार करने में कोई दिलचस्पी दिखाई नहीं देती।
ज़्यादातर शहर गंदे हैं। छोटे कस्बों और गाँव की हालत बहुत खराब है। ये महामारी के अड्डे हैं। यह समझ में नहीं आता कि साफ़-सफ़ाई के लिए ज़िम्मेदार स्थानीय निकायों को सफ़ाई करने के लिए क्यों नहीं मजबूर किया गया? स्मार्ट सिटी स्कीम के बहाने मृतप्राय शहरों को नए सिरे से ज़िंदा करने और बड़े महानगरों को स्वच्छता के मामले में विश्व स्तरीय बनाने की मुहिम के पीछे मोदी का सोचना था कि इससे भारत में निवेश और पर्यटन दोनों बढ़ेंगे। लेकिन सरकारी तंत्र ने कुछ जगहों पर वाइफ़ाई कनेक्शन और शौचालय बनाने के अलावा कुछ नहीं किया। स्कूलों, गाँवों, ग्रामीण मकानों और शहरी झुग्गी-झोपड़ियों में शौचालय बनाने का मक़सद था गंदे भारत की छवि को बदलना। लेकिन स्थानीय निकायों ने सतत पानी की सप्लाई का कोई जरिया ही नहीं बनाया और न ही ज़रूरी कर्मचारियों की भर्ती की। नतीज़ा यह निकला कि देश भर में 60 फीसदी नव-निर्मित शौचालय खाली पड़े हैं । जिनका कोई इस्तेमाल नहीं करता।
हमारे राजनेता आईआईटी, आईआईएम और एआईएम जैसे 500 करोड़ की लागत से बनने वाले संस्थाओं का निर्माण करने के लिए बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। इन संस्थाओं में दो हज़ार से भी कम छात्र पढ़ते हैं। विडम्बना यह है कि छोटे कस्बों और गाँवों के स्कूलों में कायदे के प्रशिक्षित अध्यापक और दूसरी सुविधाएँ भी नहीं हैं।
छोटी-छोटी बच्चियाँ बड़ी संख्याँ में स्कूलों से नाम कटा लेती हैं। ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो अच्छे स्कूलों में अपने बच्चों के दाखिले के लिए नेताओं और नौकरशाहों के चक्कर काटते रहते हैं। अगर भारत ने अति उत्तम शैक्षणिक संस्थाएँ बना ली हैं तो बड़े बड़े उद्योगपति, नौकरशाह और नामचीन हस्तियाँ अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए अमेरिका इंग्लैण्ड और सिंगापुर क्यों भेजते हैं और पैसे ख़र्च करते हैं?
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बेहाल स्वास्थ्य सेवा

निजी स्वास्थ्य सुविधाएँ और जीवन बीमा कंपनियाँ फल-फूल रही हैं और जम कर पैसे बना रही हैं। लेकिन गाँवों और छोटे कस्बों में 80 फ़ीसदी लोग बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं, मामूली दवाओं और डॉक्टरों के लिए लम्बी लाइनों में खड़े होने के लिए क्यों अभिशप्त हैं? 75 फीसदी से अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर पूर्णकालिक मेडिकल कर्मचारी भी नहीं हैं। छोटे- छोटे शहरों से बेहद गंभीर बीमार मरीज बड़े शहरों के मँहगे और सरकारी अस्पतालों में एडमीशन के लिए वीआईपी के चक्कर काटते हैं।
मुझे यह पूरा विश्वास है कि राजनीतिक पार्टियों के मेनिफेस्टो यानी घोषणापत्र फिर बुनियादी चीजों को नज़रअंदाज़ करेंगे। राजनीतिक पार्टियों को आपसी प्रतिस्पर्धा में बड़ी-बड़ी बातें करना कम करना चाहिए और सही मायनों में देशभक्ति के अर्थ को चरितार्थ करना चाहिये। 1990 में जो आर्थिक सुधार की शुरुआत की गई थी उसका मक़सद था समृद्धि पैदा करना, और इसने किया भी, लेकिन 90 फीसदी समृद्धि सिर्फ़ 4 प्रतिशत लोगों तक ही रह गई। हमारी राजनीति को अपनी अभिजात्यीय चमक छोड़नी चाहिए ताकि सिर्फ कुछ अरबपति ही स्वस्थ और अमीर न बनें। बल्कि इस देश का हर नागरिक स्वस्थ हो। इन नेताओं को 'भारत' के लिए घोषणा पत्र बनाना चाहिए, न कि 'इंडिया' के लिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर दूसरा भारतीय गाँवों और छोटे कस्बों में रहता हैं। हमारा नारा होना चाहिए स्वच्छ शिक्षा, स्वच्छ चिकित्सा, स्वच्छ शासन और स्वच्छ सोच ताकि एक स्वस्थ-समृद्धि-स्वच्छ-समावेशी भारत बन सके। गरीबी के समंदर में अमीरी के कुछ द्वीप खड़ा करने का मंत्र ‘मेरा भारत महान’ विचार के सख़्त ख़िलाफ़ है।   
(संडे स्टैंडर्ड से साभार)
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