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गाँधी-150: वकालत के पेशे में कैसे चली सच्चाई की दुकान?

पिछली कड़ियों में आपने पढ़ा कि गाँधीजी की शुरुआती ज़िंदगी आम इंसान की तरह ही थी, लेकिन जैसे-जैसे वह आगे बढ़ते जाते हैं वह कुछ सिद्धांतों और विचारों पर चलने वाले बनते जाते हैं। इन्हीं सिद्धांतों और विचारों पर अमल करके वह हम सबसे अलग बन गए। लेकिन इस बीच ऐसा दौर भी आया जिसमें वह वकालत के पेशे में रहे। इस कड़ी में पढ़िए कि उन्होंने वकालत की चुनौतियों का कैसे सामना किया।
नीरेंद्र नागर

गाँधीजी के निजी जीवन से जुड़ी हमारी सीरीज़ में हमने अब तक यह जाना है कि कैसे उन्होंने अपनी किशोरावस्था में बीड़ी पीने के लिए चोरियाँ कीं, दोस्त के उकसावे पर माँसाहार किया और वेश्यालय तक भी पहुँच गए। लेकिन हमने यह भी देखा कि इन सबसे वह आसानी से निकल भी आए। कारण था उनका सच की शक्ति पर विश्वास। बचपन में सत्यवादी हरिश्चंद्र और श्रवण कुमार के नाटकों ने उनपर ऐसा गहरा असर किया था कि माता-पिता से छुपकर किया गया कोई भी काम उनके लिए नैतिक संकट बन जाता। यही कारण था कि उन्होंने माँसाहार छोड़ दिया और चोरी की बात अपने पिता के सामने स्वीकार कर ली।

मगर एक सवाल किसी भी व्यक्ति के दिमाग़ में आ सकता है कि सत्य के इस पुजारी ने जब वकालत का पेशा अपनाया होगा तो उसने कैसे अपनी प्रैक्टिस चलाई होगी। क्या वह कामयाब हुआ होगा या फिर उसने समझौते किए होंगे? आज की इस कड़ी में हम यही जानेंगे कि गाँधीजी ने वकालत के पेशे से जुड़ी उलझनों और चुनौतियों का कैसे सामना किया जिसके बारे में उन्होंने ख़ुद सुन रखा था कि वह झूठ के गोरखधंधे के बिना नहीं चल सकता।

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सबसे पहले हम यह जानेंगे कि गाँधीजी ने वकालत को अपना करियर कब और क्यों चुना।

दरअसल, पिता की मृत्यु के बाद परिवार पर आर्थिक संकट आ गया था जिससे उबरने के लिए उनके एक पारिवारिक मित्र ने सुझाया कि मैट्रिक पास कर चुके गाँधी लंदन में जाकर बैरिस्टरी पास कर लें ताकि पिता जिस पद पर थे, उसे हासिल करने की योग्यता प्राप्त कर सकें। लेकिन लंदन जाना इतना आसान नहीं था। पैसे चाहिए थे। फिर माँ भी सहमत नहीं थीं क्योंकि उन्हें लगता था कि बेटा विदेश में जाकर माँस-मदिरा और विदेशी स्त्रियों के जाल में फँस जाएगा। इन्हीं कारणों से बिरादरी वालों ने भी विरोध किया और उन्हें जाति से बाहर कर दिया। माँ की अनुमति भी तब मिली जब गाँधीजी ने एक जैन मुनि की सलाह पर उन्हें यह वचन दिया कि वह विदेश में रहते हुए इन तीनों से दूर रहेंगे। ख़ैर, पैसों का किसी तरह जुगाड़ हो गया और गाँधीजी तीन साल की पढ़ाई के बाद राजकोट लौटे। लेकिन राजकोट में उनकी प्रैक्टिस जमनी संभव नहीं थी क्योंकि वहाँ एक अनुभवहीन वकील को कौन दस गुना फ़ीस देता केवल इसलिए कि वह लंदन से बैरिस्टरी पास करके आया है! सो दोस्तों की सलाह पर वह बंबई चले गए ताकि वहाँ कुछ साल रहकर हाई कोर्ट का अनुभव पा लें, भारतीय क़ानून का अध्ययन कर लें और जो कुछ काम मिल जाए, उससे अपना ख़र्चा चला लें।

लेकिन बंबई में भी इतना जल्दी काम मिलना संभव नहीं था। जल्दी ही उन्हें पता चल गया कि किसी भी बैरिस्टर को पैर जमाने में 5-7 साल लग जाते हैं और कोई ख़ुशकिस्मत हुआ तो भी उसे कम-से-कम तीन साल तो लगने ही हैं। वैसे भी वह लंदन से पढ़कर आए थे और भारतीय क़ानूनों के बारे में उनकी ख़ास जानकारी नहीं थी। सो कौन उन्हें काम देता और क्यों देता जबकि वह कमिशन देने को भी तैयार नहीं थे। गाँधीजी अपने पहले केस के बारे में लिखते हैं - 

यह एक छोटा मामला था। मुझसे कहा गया, ‘आपको दलाल को कुछ कमिशन देना होगा।’ मैंने साफ़ इनकार कर दिया।

‘लेकिन नामी फ़ौजदारी वकील अमुकचंद जी, जो महीने के तीन से चार हज़ार कमा लेते हैं, वह भी कमिशन देते हैं।’

‘उनका अनुकरण करने की मेरी कोई इच्छा नहीं है,’ मैंने जवाब दिया, ‘मैं महीने के 300 रुपयों से ही ख़ुश हो जाऊँगा। पिताजी को भी इससे ज़्यादा नहीं मिलते थे।’

‘लेकिन वे दिन अब नहीं रहे। बंबई में ख़र्चे भयानक रूप से बढ़ गए हैं। आपको व्यावहारिक होना चाहिए।’

गाँधीजी अपनी ज़िद पर अड़े रहे और उन्हें वह केस बिना दलाली के मिल गया। मामला आसान था - केवल एक घंटे का काम था जिसके लिए उन्होंने 30 रुपये की फ़ीस ली थी। लेकिन जब वह अदालत में पहुँचे तो क्या हुआ, यह उन्हीं की भाषा में पढ़िए-

छोटे मामलों की अदालत में यह मेरा श्रीगणेश था। मैं प्रतिवादी पक्ष का वकील था और उस हैसियत से मुझे वादी पक्ष के गवाहों से जिरह करनी थी। लेकिन खड़े होते ही मेरा दिल बैठ गया। सिर भी जैसे सुन्न हो गया। क्या पूछूँ, कुछ सूझ ही नहीं रहा था। जज महोदय ज़रूर हँस रहे होंगे और वकीलों ने इस तमाशे का आनंद लिया होगा। मगर मेरी आँखों के सामने तो अँधेरा छाया हुआ था। मैं बैठ गया और एजेंट से कहा कि मैं यह मामला नहीं लड़ सकता, आप पटेल को यह मामला दे दो, मैं अपनी फ़ीस लौटा दूँगा। पटेल साहब को 51 रुपयों पर रखा गया। उनके लिए तो यह बच्चों का खेल था।

उसके बाद गाँधीजी अदालत से भाग लिए। यह भी नहीं पता किया कि उनके मुवक्किल ने केस जीता या हारा। वह इस अनुभव से इतने शर्मिंदा हुए कि आगे के लिए फ़ैसला कर लिया कि वह तब तक कोई भी केस नहीं लेंगे जब तक उन्हें अपने ऊपर भरोसा न हो जाए।

वैसे इस फ़ैसले की ज़रूरत नहीं थी। वह जानते थे कि कोई इतना बेवक़ूफ़ नहीं होगा जो केस हारने के लिए उनको अपना मामला सौंपे।

इस घटना के बाद उनको अर्ज़ी-दावा लिखने का एक काम मिला जो उन्होंने ठीक तरह से किया और इससे उनको भरोसा हुआ कि कम-से-कम यह काम वह अच्छी तरह कर सकते हैं। लेकिन बिना पैसे लिए यह काम वह कब तक करते! बीच में अंग्रेज़ी शिक्षक की नौकरी के लिए भी आवेदन किया लेकिन स्नातक न होने से उनको यह नौकरी भी नहीं मिली। अब बंबई में हाई कोर्ट में बैठकर दूसरों के मुक़दमे सुनने और बीच-बीच में झपकियाँ लेने के अलावा उनके पास कोई काम नहीं था। इसलिए उन्होंने राजकोट लौटने का फ़ैसला कर लिया। उन्हें लगा, भाई जो वहाँ छोटा वकील था, वहाँ अर्ज़ी-दावे लिखने का ही काम दिला देगा तो कुछ-न-कुछ कमाई हो ही जाएगी और यहाँ का भारी-भरकम ख़र्च भी बच जाएगा।

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कमिशन के जाल में कैसे फँसे!

गाँधीजी इसके बाद राजकोट पहुँचे। वहाँ आवेदन और अर्ज़ी-दावे लिखने में अच्छी-ख़ासी आमदनी हो जाती थी - क़रीब 300 रुपये प्रतिमाह। भाई के पार्टनर की जमी-जमाई प्रैक्टिस थी। बड़े मुक़दमे वे बड़े वकीलों को दे देते थे और छोटे-मोटे मुक़दमों के आवेदन लिखने का काम गाँधीजी को। हालाँकि कमिशन देने का चक्कर यहाँ भी आया। गाँधीजी इसके बारे में ईमानदारी से लिखते हैं -

मैं क़बूल करता हूँ कि कमिशन न देने की जिस ज़िद पर मैं बंबई में पूरी निष्ठा के साथ अड़ा रहा, वह मुझे यहाँ छोड़नी पड़ी। मुझसे कहा गया कि दोनों मामले अलग हैं। बंबई में कमिशन दलालों को दिया जाता था, यहाँ कमिशन उन वकीलों को दिया जाता है जो आपको काम दिलवाते हैं। और यहाँ ही नहीं, बंबई में भी यही होता है कि सभी बैरिस्टर बिना किसी अपवाद के, अपनी फ़ीस का एक हिस्सा कमिशन के तौर पर देते ही हैं।

गाँधीजी के भाई ने उन्हें समझाया - ‘मैं भी किसी का पार्टनर हूँ, और मेरी पूरी कोशिश रहती है तुम्हें तुम्हारे योग्य काम दिलाने की। मुझे कमिशन न मिले तो कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि तुम जो कमा रहे हो, वह परिवार में ही आ रहा है। लेकिन अगर मेरे पार्टनर को कमिशन नहीं मिलेगा तो उसका तो नुक़सान ही होगा क्योंकि यदि वही काम वह किसी और को दे तो उसे कमिशन ज़रूर मिलता।’

गाँधीजी ने बेमन से भाई का यह तर्क मान लिया या उनके अपने शब्दों में कहें तो ‘ख़ुद को धोखा दिया’। राजकोट में भाई की मदद से गाँधीजी की गाड़ी तो चलने लगी लेकिन उसी भाई के लिए उनको एक ऐसा क़दम उठाना पड़ा जिसने उनकी ज़िंदगी बदल दी।

भाई के लिए पैरवी 

गाँधीजी के भाई पोरबंदर के राणा को गद्दी मिलने से पहले उनके सलाहकार और सचिव रह चुके थे और उनपर आरोप था कि उन्होंने उन्हें ग़लत सलाह दी। पॉलिटिकल एजेंट उनसे ख़फ़ा था। गाँधीजी उस अंग्रेज़ अधिकारी को लंदन के दिनों से जानते थे और भाई ने गुज़ारिश की थी कि वह इस परिचय का लाभ उठाकर उनसे मिलें। गाँधीजी इसके ख़िलाफ़ थे। उनको लगता था कि यदि उनका भाई दोषी है तो उनको उसका ख़मियाज़ा भुगतना चाहिए और यदि वह निर्दोष हैं तो उन्हें विधिवत याचिका दायर करनी चाहिए और निर्णय को स्वीकार करना चाहिए। मगर भाई को यह सलाह रास नहीं आई। उन्होंने कहा, ‘यह काठियावाड़ है। यहाँ पहुँच से ही काम बनता है। अगर भाई होते हुए भी तुम उस अधिकारी से मिलकर, जिसे तुम जानते हो, मेरा काम नहीं करवाओगे तो यह तो ग़लत है।’

गाँधीजी भाई का आग्रह नहीं ठुकरा सके। वह उस अफ़सर से मिले लेकिन यहाँ उसका रूप वैसा नहीं था जैसा उन्होंने इंग्लैंड में देखा था। अधिकारी ने उनको पहचान तो लिया लेकिन छूटते ही चेतावनी भी दी, ‘मुझे उम्मीद है कि आप उस जान-पहचान का अनुचित लाभ उठाने के लिए नहीं आए हैं।’ इसके बाद क्या हुआ, पढ़िए गाँधीजी की ज़ुबान से-

साहब अधीर हो रहे थे। उन्होंने कहा, ‘आपका भाई प्रपंची है। मैं आपसे और कुछ नहीं सुनना चाहता। मेरे पास समय नहीं है। यदि आपके भाई को कुछ कहना है तो उनसे कहें कि वह विधिवत प्रार्थनापत्र दें।’ 

यह जवाब काफ़ी था और संभवतः उचित भी। लेकिन स्वार्थ अंधा होता है। मैं इसके बाद भी अपनी बात कहता रहा। साहब खड़े हो गए और कहा, ‘अब आप जा सकते हैं।’ ‘लेकिन मेरी बात तो सुन लीजिए,’ मैंने फिर कहा। इसपर वह ग़ुस्से से भड़क उठे। उन्होंने अपने चपरासी को बुलाया और मुझे बाहर करने का आदेश दिया। जब चपरासी आया, तब भी मैं बाहर जाने से हिचक रहा था। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा और खींचता हुआ-सा मुझे कमरे से बाहर ले गया।

दुखी और क्रोधित गाँधीजी ने बाहर आते ही साहब को एक नोट भिजवाया कि आपने मेरा अपमान किया है और यदि आप माफ़ी नहीं माँगते तो मैं आपके विरुद्ध कार्रवाई करूँगा। साहब ने भी तुरंत जवाब दिया कि ‘आप मेरे कहने, और बाद में चपरासी के कहने, पर भी कमरे से बाहर नहीं जा रहे थे और ऐसी स्थिति में उसे हल्के-फुल्के बल का उपयोग कर आपको बाहर निकालना पड़ा। आपको जो करना हो, आप करने के लिए स्वतंत्र हैं।’

विचार से ख़ास

जब गाँधीजी दिखे लाचार!

गाँधीजी साहब का जवाब अपनी जेब में रखकर घर लौटे। भाई को बताया। वह भी दुखी हुए। कुछ वकीलों से बात की कि क्या किया जाए। उन्हीं दिनों मशहूर बैरिस्टर फीरोज़शाह मेहता राजकोट आए हुए थे। मध्यस्थ के मार्फ़त उनसे राय पूछी गई तो उन्होंने कहा, ‘भारत में कई वकीलों-बैरिस्टरों के साथ ऐसा हो चुका है। गाँधी से कहो, अगर उसको राजकोट में रहकर कमाना-धमाना है तो यह चिट्ठी फाड़ दे और अपमान को भूल जाए। अगर उसने साहब के ख़िलाफ़ मामला किया तो मिलेगा तो कुछ नहीं, उल्टे पूरी आशंका है कि वह ख़ुद को बर्बाद कर देगा।’

गाँधीजी के लिए यह सलाह ज़हर से कम नहीं थी। लेकिन उनके पास कोई चारा नहीं था। मगर इस घटना से एक लाभ भी हुआ। उन्होंने इसके बाद संकल्प ले लिया कि वह जीवन में कभी अपनी जान-पहचान का ग़लत फ़ायदा उठाने की कोशिश नहीं करेंगे।

इस घटना के बाद उनके जीवन की धारा ही बदल गई। वह दक्षिण अफ़्रीका चले गए। वहाँ उन्होंने राजनीति के साथ-साथ वकालत के पेशे में भी नाम कमाया और वह भी सच्चाई और ईमानदारी पर टिके रहकर। कैसे, यह हम जानेंगे अगली कड़ी में।

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