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1857: साझी विरासत जिसको हिन्दुत्ववादी मटियामेट करने में लगे हैं

आज 1857 स्वतंत्रता संग्राम की 163वीं सालगिरह है। 10 मई 1857, दिन रविवार को छिड़े भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में देश के हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों ने मिलकर विश्व की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताक़त को चुनौती दी थी। हमें आज इस सच्चाई को क़तई नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि आज की साम्प्रदायिक राजनीति दरअसल 1857 के दौरान हिंदू-मुसलमान-सिख एकता से परेशान अंग्रेज़ हाकिमों का पैंतरा था जिसे हिंदुस्तानी चाकरों ने कार्यान्वित किया।
शमसुल इसलाम

10 मई 1857, दिन रविवार को छिड़े भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में देश के हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों ने मिलकर विश्व की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताक़त को चुनौती दी थी। इस अभूतपूर्व एकता ने अंग्रेज़ शासकों को इस बात का अच्छी तरह अहसास करा दिया था कि अगर भारत पर राज करना है तो हर हालत में देश के सबसे बड़े दो धार्मिक समुदायों, हिंदू-मुसलमान के बीच सांप्रदायिक बँटवारे को अमल में लाना होगा। यही कारण था कि संग्राम की समाप्ति के बाद इंग्लैंड में बैठे भारतीय मामलों के मंत्री (लॉर्ड वुड) ने भारत में अंग्रेज़ी राज के मुखिया (लॉर्ड एल्गिन) को यह निर्देश दिया कि अगर भारत पर राज करना है तो हिंदुओं और मुसलमानों को लड़वाना होगा और ‘हम लोगों को वैसा सब कुछ करना चाहिए, ताकि उन सब में एक साझी भावना का विकास ना हो।’

इस दर्शन को अमल में लाने के लिए गोरे शासकों और उनके भारतीय चाटुकारों ने यह सिद्धांत पेश किया कि हिंदू और मुसलमान हमेशा से ही दो अलग क़ौमें रही हैं। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जिसको अंग्रेज़ शासकों ने ‘फ़ौजी बग़ावत’ का नाम दिया था, हिंदुओं-मुसलमानों-सिखों के व्यापक हिस्से एकजुट होकर ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के ख़िलाफ़ इतनी बहादुरी से लड़े और क़ुर्बानियाँ दीं कि फ़िरंगी शासन विनाश के कगार पर पहुँच गया। हालाँकि अंग्रेज़ जीत गए लेकिन यह ग़द्दारों और जासूसों द्वारा रचे गए षड्यंत्रों की वजह से ही संभव हो सका।

विचार से ख़ास

इस महान स्वतंत्रता संग्राम की यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं है कि इसका नेतृत्व नानासाहब, दिल्ली के बहादुरशाह ज़फ़र, मौलवी अहमदशाह, तात्या टोपे, ख़ान बहादुरख़ान, रानी लक्ष्मीबाई, हज़रत महल, अज़ीमुल्लाह ख़ान और शहज़ादा फ़िरोज़शाह ने मिलकर किया। इस संग्राम में मौलवी, पंडित, ग्रंथी, ज़मींदार, किसान, व्यापारी, वकील, नौकर, महिलाएँ, छात्र और सभी जातियों-धर्मों के लोग भी शामिल हुए और जानों की क़ुर्बानियाँ दीं। 

हिंदू-मुसलिम सांप्रदायिकता के मौजूदा झंडाबरदारों को इस ऐतिहासिक सच्चाई से अवगत कराना ज़रूरी है कि, 11 मई, 1857 को जिस क्रांतिकारी सेना ने मुसलमान बहादुर शाह ज़फ़र को भारत का स्वतंत्र शासक घोषित किया था, उसमें 70 प्रतिशत से भी ज़्यादा सैनिक हिंदू थे। बहादुरशाह ज़फ़र को बादशाह बनाने में नाना साहब, तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 

1857 के संग्राम से संबंधित समकालीन दस्तावेज़ देश के चप्पे-चप्पे पर घटी ऐसी दास्तानों से भरे पड़े हैं, जहाँ मुसलमान, हिंदू और सिख इस बात की परवाह किए बिना कि कौन नेतृत्व कर रहा है, और कितनी भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है, एक होकर लड़े और 1857 की जंगे-आज़ादी में एक साथ प्राणों की आहुति दी।

उस समय की सच्चाइयाँ बहुत स्पष्ट रूप से यह बताती हैं कि हिंदू-मुसलमान पृथकतावाद और दोनों संप्रदायों के बीच विद्वेष का अस्तित्व उस समय एक समस्या के रूप में मौजूद नहीं था।

विभिन्न धर्मों के लोगों ने जिस तरह की साझी शहादत की दास्तानें रचीं उसके कुछ उदाहरण जो समकालीन दस्तावेज़ों में उपलब्ध हैं यहाँ पर प्रस्तुत हैं।

दिल्ली

फ़िरंगियों ने दिल्ली (जिसे 11 मई 1857 के दिन इंक़लाबियों ने अंग्रेज़ी शासन से मुक्त कराके एक स्वतंत्र भारत की राजधानी घोषित किया था) पर क़ब्ज़े को अपनी नाक का सवाल बना लिया था। उनको लगता था कि अगर एक बार दिल्ली हाथ में आ गई तो पूरे देश में भड़के हुए संग्राम को दबाना मुश्किल नहीं होगा। 1857 में जून से लेकर सितम्बर माह तक अंग्रेज़ सेना ने दिल्ली की ज़र्बदस्त घेराबंदी की हुई थी और उनका लगातार यह प्रयास चला था कि दिल्ली में मौजूद इंक़लाबी सेना और लोगों को धर्म के नाम पर बँटवाया जाए। लेकिन समकालीन दस्तावेज़ इस सच्चाई को रेखांकित करते हैं कि अंग्रेज़ों के खादिमों और जासूसों की तमाम कोशिशों के बावजूद हिंदू-मुसलमान-सिख मिलकर दिल्ली की हिफ़ाज़त करते रहे। दिल्ली की इंक़लाबी सेना की कमान जिन लोगों के हाथों में थी उन लोगों के नाम थे मोहम्मद बख़्त, सिघारी लाल, ग़ौस मोहम्मद, सिरधारा सिंह और हीरा सिंह। इंक़लाबी सेना जिसे फ़िरंगी ‘पुरबिया’ सेना कहते थे उसमें भी विशाल बहुमत हिंदुओं का ही था। 

हिंदू-मुसलमान एकता किस उत्तम दर्जे की थी उसका अंदाज़ा उस घटना से लगाया जा सकता है जब अंग्रेज़ों के हमले का मुक़ाबला करने के लिए शहाजहाँ के ज़माने की एक तोप को ठीक-ठाक करके मोर्चे पर लगाया जा रहा था।

इस तोप को पहली बार चलाने से पहले बहादुरशाह ज़फ़र और दूसरे सैनिक अधिकारियों की मौजूदगी में पंडितों ने इसकी आरती उतारी, मालाएँ चढ़ाईं और आशीर्वाद दिया। अंग्रेज़ जासूस सांप्रदायिक ज़हर न फैला पाएँ इसलिए इंक़लाबी सेना ने दिल्ली में भी गौ-वध पर प्रतिबंध की घोषणा करते हुए यह एलान किया कि जो भी ऐसा करते हुए पाया जायेगा उसे तोप से उड़ा दिया जाएगा।

हरियाणा

हांसी (अब हरियाण में) में अंग्रेज़ शासकों के ख़िलाफ़ हुकुमचंद जैन और मुनीर बेग का साझा महान प्रतिरोध इस सिलसिले का एक जीता जागता उदाहरण है। हुकुमचंद जैन, हांसी और कारनाल के कानूनगो, फ़ारसी और गणित के विद्वान और अपने क्षेत्र के एक बड़े ज़मींदार थे। 1857 के संग्राम की भनक मिलते ही वह दिल्ली दरबार पहुँचे जहाँ तात्या टोपे भी मौजूद थे। उन्होंने अपने क्षेत्र में इंक़लाब का बीड़ा उठाया और अपने क़रीबी साथी मिर्ज़ा मुनीर बेग के साथ, जो ख़ुद भी फ़ारसी और गणित में पारंगत थे, मिलकर सशस्त्र विद्रोह की तैयारियाँ शुरू कीं। इन दोनों ने मिलकर इंक़लाबी सेना के दिल्ली नेतृत्व के साथ मिलकर आज के हरियाणा क्षेत्र (उस दौर में भी यह क्षेत्र हरयाणा के नाम से ही जाना जाता था) को अंग्रेज़ों की दासता से मुक्त कराने की रणनीति बनाई। एक निर्णायक युद्ध में दिल्ली से सहायता न पहुँच पाने और कुछ अंग्रेज़ों के दलाल राजाओं की ग़द्दारी की वजह से इन्हें हार का सामना करना पड़ा।

सितम्बर के अंत में इंक़लाबियों के हाथ से दिल्ली निकल जाने के बाद इन दोनों को हांसी में गिरफ्तार किया गया और मौत की सज़ा सुनाई गई। अंग्रेज़ शासक इन दोनों से इतने खौफ़-ज़दा थे और हिंदू-मुसलमान एकता की इस शानदार मिसाल से इतने परेशान थे कि उन्होंने 19 जनवरी 1858 को फाँसी देने के बाद हुकुमचंद जैन को दफ़नाया जबकि मुनीर बेग को जलाया गया। अंग्रेज़ों द्वारा किए गए इस कुकर्म का एकमात्र उद्देश्य था, दो धर्मों के अनुयाइयों की एकता का मज़ाक उड़ाना और उन्हें ज़लील करना। फ़िरंगियों ने एक और शर्मनाक काम यह किया कि बहादुर हुकुमचंद जैन के 13 वर्षीय भतीजे फ़कीरचंद जैन को भी हांसी में सार्वजनिक तौर पर फाँसी दी क्योंकि इस बच्चे ने उन्हें फाँसी देने का विरोध किया था।

अयोध्या

अयोध्या स्वतंत्र भारत में हिंदू-मुसलमानों के बीच में नफ़रत फैलाने का एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। बाबरी मसजिद-रामजन्म भूमि विवाद ने दोनों संप्रदायों के बीच में अविश्वास और हिंसा के माहौल को निर्मित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन 1857 में इसी अयोध्या में किस तरह मौलवी और महंत व साधारण हिंदू-मुसलमान-सिख अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ एक होकर लड़ते हुए फाँसी के फंदों पर झूल गए इसकी अनगिनत दास्तानें हैं।

मौलाना अमीर अली अयोध्या के एक मशहूर मौलवी थे और वहाँ के प्रसिद्ध हनुमानगढ़ी मंदिर के पुजारी बाबा रामचरण दास थे। अंग्रेज़ों के साथ एक युद्ध में दोनों को बंदी बनाया गया और अयोध्या में कुबेर टीले पर एक ईमली के पेड़ पर एक साथ फाँसी पर लटका दिया गया।

अयोध्या ने ही इस संग्राम के दो विभिन्न धर्मों से संबंध रखने वाले दो और ऐसे नायक पैदा किए जिन्होंने अंग्रेज़ फ़ौज को नाकों चने चबवा दिए। अच्छन ख़ान और शम्भुप्रसाद शुक्ला दो दोस्त थे जिन्होंने ज़िला फै़ज़ाबाद में राजा देबीबक्श सिंह की क्रांतिकारी सेना की कमान संभाली हुई थी। एक युद्ध के दौरान इनको बंदी बनाया गया, और, समकालीन सरकारी दस्तावेज़ इस शर्मनाक सच्चाई को उजागर करते हैं कि इन दोनों क्रांतिकारियों की जान लेने से पहले भयानक यातनाएँ दी गईं और दोनों के गले सार्वजनिक रूप से रेते गए। 

राजस्थान

कोटा रियासत (अब राजस्थान में) पर अंग्रेज़ परस्त महाराव का राज था। यहाँ के एक राजदरबारी थे, राजा जयदलाल भटनागर जो उर्दू-फ़ारसी और अंग्रेज़ी भाषाओं पर समान महारत रखते थे, इन्होंने महाराव और अंग्रेज़ शासकों के ख़िलाफ़ बग़ावत का झंडा बुलंद किया। इस विद्रोह में इनका साथ देने वालों में प्रमुख थे, वहाँ के सेनापति मेहराब ख़ान। इन लोगों ने मिलकर देश भर के अन्य क्रांतिकारी समूहों से संपर्क स्थापित किया और कोटा में अंग्रेज़ अधिकारियों और सैनिकों पर हमला बोला। बाद में ये लोग लक्ष्मीबाई के साथ कई मोर्चों पर अंग्रेज़ सेना से लोहा लेते रहे। लाला जयदलाल 1860 तक अंग्रेज़ों के हाथ नहीं लगे लेकिन उसी साल 15 अप्रैल को जयपुर में गिरफ़्तार किए गए और कोटा में 17 सितंबर 1860 को फाँसी पर लटकाए गए। मेहराब ख़ान को भी अंग्रेज़ 1860 में ही गिरफ़्तार कर सके और उन्हें भी कोटा में सार्वजनिक रूप से फाँसी दी गई।

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केंद्रीय भारत

मालवा : मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में अंग्रेज़ फ़ौजों को लगातार छकाने वाली जो इंक़लाबी सेना सक्रिय रही उसके साझे नायक तात्या टोपे, राव साहब, फ़िरोज़शाह और मौलवी फ़ज़ल हक़ थे। इन लोगों ने मिलकर अंग्रेज़ों से जितनी लड़ाइयाँ जीतीं उस तरह की मिसालें कम ही मिलती हैं। मौलवी फ़ज़ल हक़ अपने 480 हिंदू-मुसलमान-सिख साथियों के साथ 17 दिसंबर, 1858 को रानौड़ के युद्ध में शहीद हुए। तात्या टोपे 1859 तक स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करते रहे और 18 अप्रैल, 1859 को ग्वालियर के सिंधिया राजघराने की ग़द्दारी की व़जह से बंदी बनाए गए और सिंधिया रियासत में स्थित शिवपुरी में फाँसी पर लटकाए गए। और फ़िरोज़शाह कभी भी अंग्रेज़ों के हाथ नहीं आए।

झाँसी : मध्य भारत में रानी लक्ष्मीबाई के इंक़लाबी प्रतिरोध से सभी वाक़िफ़ हैं। लेकिन बहुत लोग यह नहीं जानते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई के तोप ख़ाने के मुखिया एक पठान, ग़ुलाम ग़ौस ख़ान थे। रानी की घुड़सवार सेना के मुखिया भी एक मुसलमान खुदाबख़्श थे। जब झाँसी पर अंग्रेज़ों ने हमला बोला तो झाँसी के क़िले में रानी की सेना का नेतृत्व करते हुए दोनों 4 जून, 1858 को शहादत पा गए। इस सच्चाई से भी बहुत कम लोग वाक़िफ़ हैं कि लक्ष्मीबाई की निजी सुरक्षा अधिकारी एक मुसलमान महिला मुंदार (मुंज़र) थीं। उन्होंने रानी का साया बनकर झाँसी, कूंच कालपी और ग्वालियर के युद्धों में अंग्रेज़ी सेना का मुक़ाबला किया। कोटा-की-सराए (ग्वालियर) युद्ध में वे लड़ते हुए रानी के साथ (18 जून, 1858) शहीद हुईं।

रूहेल खंड: रूहेल खंड के इलाक़े में ख़ान बहादुर ख़ान के नेतृत्व में बहादुरशाह ज़फ़र की सरकार की सहमति से स्वतंत्र राज स्थापित कर लिया गया था। बहादुर ख़ान के मुख्य सहयोगी खुशीराम थे। इन्होंने मिलकर रूहेल खंड का राजकाज चलाने के लिए आठ सदस्यों वाली हिंदू और मुसलमानों की साझी समिति का गठन किया। अंग्रेज़ दोनों संप्रदायों के बीच दंगा न करा पाएँ, इसके लिए एक हुक्मनामे के द्वारा गौ-वध पर प्रतिबंध लगा दिया गया। दिल्ली में इंक़लाबी शासन के पतन के बाद अंग्रेज़ों ने अपना निशाना रूहेल खंड को ही बनाया। खा़नबहादुर ख़ान, खुशीराम और उनके 243 सहयोगियों को एक ही दिन (20 मार्च, 1860) को बरेली कमीश्नरी के सामने सामूहिक फाँसी दी गई। अंग्रेज़ शासकों ने इन क्रांतिकारियों की अंत्येष्टी करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि इनके शव बहुत दिनों तक सूलियों पर झूलते रहे।

1857 के संग्राम के दौरान हिंदू-मुसलमान-सिख एकता किसी एक क्षेत्र और समूह तक सीमित नहीं थी। इन धर्मों के अनुयायियों के बीच एकता एक ज़मीनी सच्चाई थी जिससे महिलाएँ भी अछूती नहीं थीं।

पश्चिमी उत्तरी प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के परगना थाना-भवन में ही 11 महिलाओं को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत करने के जुर्म में एक साथ फाँसी पर चढ़ाया गया। इनमें से कुछ नायिकाओं के नाम इस प्रकार हैं; असगरी बेगम जो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ शस्त्र विद्रोह में नेतृत्वकारी भूमिका निभाती रहीं। अंग्रेज़ों ने इन्हें बंदी बनाकर ज़िंदा जला दिया। इस क्षेत्र की एक अन्य इंक़लाबी महिला का नाम आशा देवी था जो गुर्जर परिवार में पैदा हुईं। इन्हें भी अंग्रेज़ी सरकार के ख़िलाफ़ हथियार उठाने के जुर्म में 1857 में फाँसी दी गई। एक अन्य इंक़लाबी नौजवान महिला भगवती देवी थीं जो त्यागी परिवार में पैदा हुई थीं जो फाँसी पर लटकाई गईं। इसी क्षेत्र से एक और इंक़लाबी महिला हबीबा थीं जिनका संबंध एक मुसलमान गुर्जर परिवार से था। हबीबा ने अंग्रेज़ी सेना के ख़िलाफ़ मुज़फ़्फ़रनगर के आसपास विभिन्न युद्धों में हिस्सा लिया और आख़िरकार गिरफ़्तार करके सूली पर लटकाई गईं। इसी क्षेत्र से एक अन्य नौजवान महिला मामकौर, जिनका संबंध चरवाहों के परिवार से था, ने भी 1857 के संग्राम के आरंभिक दौर में ही फाँसी के फंदे को चूमा। 1857 के संग्राम में देश का चप्पा-चप्पा इस तरह की दास्तानों से साक्षात करता दिखाता है।

विलियम रसल लंदन के एक अख़बार ‘द टाइम्स’ का संवाददाता बनकर ‘बग़ावत’ का आँखों-देखा हाल भेजने के लिए भारत आया था। उसने  मार्च 2, 1858 को भेजी गई अपनी रपट में लिखा कि-

अवध के तमाम मुख्य सरदार चाहे वे मुसलमान हों या हिंदू, एक हो गए हैं और शपथ ले चुके हैं कि वे अपने नौजवान बादशाह, बिरजिस कदर के लिए अपने ख़ून का आख़िरी क़तरा भी बहा देंगे।


विलियम रसल, द टाइम्स का पत्रकार, लंदन

एक अन्य अंग्रेज़ अफ़सर, थॉमस लो ने मध्य भारत में अंग्रेज़ सेना के अभियानों में लगातार हिस्सेदारी की थी। उस क्षेत्र में ‘बाग़ियो’ की स्थिति का वर्णन करते हुए उसने अपने संस्मरणों में लिखा कि- 

‘राजपूत, ब्राह्मण, मुसलमान और मराठा, ख़ुदा और मोहम्मद को याद करने वाले और ब्रह्म की स्तुति करनेवाले सब इस जंग में (हमारे ख़िलाफ़) थे।’ 

फ्रेड रॉबर्ट्स, एक अंग्रेज़ सेना-नायक था जो लखनऊ पर क़ब्ज़ा करने वाले अभियान में शामिल था। यहाँ भी अंग्रेज़ सेना, जासूसों और षड्यंत्रों की मदद से लखनऊ में दाखिल हो सकी थी। फ्रेड ने लखनऊ पर आक्रमण की नवम्बर, 1857 की दास्तान एक पत्र में बयान करते हुए लिखा कि जब वे शहर में दाखिल हुए तो सैकड़ों हिंदू-मुसलमान-सिख ‘बाग़ी’ बुरी तरह जख़्मी होकर सड़कों पर पड़े थे और... 

“आगे बढ़ने के लिए उनपर चढ़कर गुज़रना होता था। वे मरते हुए भी हमारे प्रति अपनी नफ़रत का इज़हार कर रहे थे और गालियाँ बकते हुए कह रहे थे ‘हम बस खड़े हो जाएँ फिर तुम्हें ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे’।’’

ख़राब से ख़राब हालात में भी हिंदू-मुसलमान-सिख इस तरह की साझी शहादतों की अनगिनत मिसालें पूरे देश में पेश कर रहे थे। यह एकता का जज़्बा किस दर्जे का था उसका अंदाज़ा 1857 की जंग-ए-आज़ादी के इस उर्दू तराने से लगाया जा सकता है जो इस महान संघर्ष के प्रमुख रणनीतिकारों में से एक अज़ीमुल्लाह ख़ान ने रचा था। यह तराना इंक़लाबी सेना का सलामी गीत भी था और दिल्ली से छपने वाले उर्दू अख़बार 'पैयाम-ए-आज़ादी' में 13 मई को छपा था।

हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा

पाक वतन है क़ौम का जन्नत से भी प्यारा।

यह हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा

इसकी रूहानियत (आध्यात्मिकता) से रोशन है जग सारा।

कितना क़दीम (प्राचीन), कितना नईम (सुखद) सब दुनिया से न्यारा

करती है ज़रख़ेज़ (उपजाऊ) जिसे गंगो-जमन की धारा।

ऊपर बर्फ़ीला पर्वत पहरेदार हमारा

नीचे साहिल पर बजता सागर का नक़्क़ारा।

इसकी खानें उगल रहीं सोना, हीरा, पन्ना

इसकी शान-शौकत का दुनिया में जयकारा।

आया फ़िरंगी दूर से, ऐसा मंतर मारा

लूटा दोनों हाथों से प्यारा वतन हमारा।

आज शहीदों ने तुमको, अहले-वतन ललकारा

तोड़ो ग़ुलामी की ज़ंजीरें, बरसाओ अंगारा।

हिंदू-मुसलमान, सिख हमारा भी प्यारा-प्यारा

यह है आज़ादी का झंडा इसे सलाम हमारा।

हिंदू-मुसलमानों का एक-दूसरे के लिए मर-मिटने की दास्तानों का यह गौरवशाली इतिहास 162 साल पहले सचमुच में अस्तित्व में था। इसकी आज भी पुष्टि की जा सकती है। ये सच्चाइयाँ अंग्रेज़ी हुक़ूमत के अभिलेखागारों, लोगों के निजी संग्रहों और वृतांतों में सुरक्षित हैं। इस देश के हिंदू और मुसलमानों के बीच नफ़रत क्यों पैदा कराई गयी और किन लोगों ने इसको हवा दी, इस बात को समझना ज़रा भी मुश्किल नहीं है। फ़िरंगियों का मानना था, जैसा कि उस समय के एक बड़े अंग्रेज़ अफ़सर, चार्ल्स मेटकाफ, ने कहा था कि ‘‘1857 का विद्रोह हिंदुओं और मुसलमानों का साझा काम था।’’ इस तरह स्वाभाविक है कि 1857 के संग्राम में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच ज़र्बदस्त एकजुटता ने विदेशी शासकों की नींद हराम कर दी थी और उनकी हुक़ूमत ख़त्म होने का ख़तरा सर पर मंडरा रहा था। इस ख़तरे को हमेशा के लिए तभी टाला जा सकता था जब हिंदू और मुसलमान अलग-अलग दिशाएँ पकड़ें। हिंदू और मुसलमान सांप्रदायिकता के झंडाबरदारों ने वास्तविकता में अंग्रेज़ शासकों की मदद करने के अलावा और कोई दूसरा काम नहीं किया है। हमें आज इस सच्चाई को क़तई नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि आज की साम्प्रदायिक राजनीति दरअसल 1857 के दौरान हिंदू-मुसलमान-सिख एकता से परेशान अंग्रेज़ हाकिमों का पैंतरा था जिसे हिंदुस्तानी चाकरों ने कार्यान्वित किया।

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