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पिछड़ी जाति के बच्चों की उच्च शिक्षा के पक्ष में नहीं थे तिलक, आजीविका छिनने का डर था! 

भारत सरकार नई शिक्षा नीति लेकर आई है। इसमें स्थानीय भाषा में शिक्षा, तकनीकी और रोज़गार परक शिक्षा, ग्रेजुएशन 3 साल से बढ़ाकर 4 साल का करने का प्रस्ताव है। हिंदुत्व की परिकल्पना पेश करने वाले पहले राष्ट्रवादी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भी कुछ इसी तरह की शिक्षा का सपना देखा था।

अगर हम उच्च शिक्षा की बात करें तो सरकार ने निम्नलिखित प्रमुख प्रस्ताव रखे हैं-

1.   यूजीसी और एआईसीटीसी की जगह हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ़ इंडिया बनेगा।

2.   उच्च शिक्षा को विदेशी क़ारोबारियों के लिए खोला जाएगा।

3.   एग्ज़िट ऑप्शन के साथ 4 साल का मल्टी डिसिप्लिनरी ग्रेजुएशन कार्यक्रम शुरू किया जाएगा। यानी विज्ञान, कला या वाणिज्य जैसे विभेद नहीं रहेंगे और विद्यार्थियों को एक स्तर तक पढ़ाई कर बीच में कोर्स छोड़ने का विकल्प होगा।

4.   एमफ़िल का कार्यक्रम ख़त्म किया जाएगा।

5.   नैशनल रिसर्च फ़ाउंडेशन का गठन होगा।

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शिक्षा में विदेशी क़ारोबारियों/विश्वविद्यालयों को आने देना या न आने देना बहुत विवादास्पद मसला रहा है। आरएसएस से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच सहित तमाम संगठन इसका विरोध करते रहे हैं। साथ ही समाजवादी इसका इस आधार पर विरोध करते रहे हैं कि विदेशी संस्थान शिक्षा देने नहीं, बल्कि धंधा करने आएँगे। स्वाभाविक है कि बड़ी पूँजी लगाकर उच्च शिक्षा के कॉलेज खोलने वालों के अपने क़ारोबार होंगे और निजीकरण के दौर में उन्हीं को नौकरी मिल पाएगी, जो विदेशी संस्थान से शिक्षा ग्रहण करेंगे। कुल मिलाकर ग़रीब आदमी की पहुँच से उच्च शिक्षा दूर होने जा रही है।

तिलक का भी यही मानना था कि कम से कम लोगों को ग्रेजुएट बनाया जाए। एक मार्च 1885 को मराठा अख़बार में उन्होंने ‘रीजंस फ़ॉर राइजिंग द स्टैंडर्ड ऑफ़ एजुकेशन’ शीर्षक से अपने लेख में लिखा, ‘छोटे कस्बों में स्कूल खोलने, फ़ीस कम करने, स्कॉलरशिप देने से ग्रेजुएट की संख्या बढ़ेगी।’ उन्होंने चेतावनी दी कि ऐसी स्थिति में प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में भेदभाव होगा और प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के चयन में दिक्कत आएगी।
प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में भेदभाव और प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के चयन में दिक्कत होने जैसी स्थिति से बचने के लिए तिलक ने सुझाव दिया कि 3 साल की जगह 4 साल का स्नातक हो, इससे हर साल बढ़ रहे ग्रेजुएट की संख्या कम होगी।

तिलक का यह भी मानना था कि निम्न जाति के बच्चों को उच्च जाति के बच्चों के साथ नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, यह भारत की धार्मिक मान्यताओं ख़िलाफ़ है। उन्होंने लिखा, ‘अछूत बच्चों की शिक्षा को दिया जाने वाला सरकारी समर्थन ब्रिटिश महारानी की उस घोषणा के विरुद्ध है जिसमें उन्होंने गारंटी दी है कि धार्मिक मान्यताओं में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा।’

केंद्रीय शिक्षा नीति 2020 में उच्च शिक्षा में विदेशी क़ारोबारियों को अनुमति देने और निजी क्षेत्र का हस्तक्षेप बढ़ने पर स्वाभाविक रूप से पठन-पाठन से वह तबक़ा दूर होने जा रहा है, जिनकी भुगतान करके पढ़ाई कर पाने की क्षमता नहीं है। गाँव में रहने वाला किसी ग़रीब का बच्चा अब ग्रेजुएशन कर लेने या आईएएस बनने का सपना नहीं देख सकता है।

तकनीकी शिक्षा और तिलक

नरेंद्र मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति में तकनीकी शिक्षा पर बहुत ज़ोर दिया गया है। साफ़ संकेत है कि सरकार ढेर सारे ग्रेजुएट निकालने या मानविकी विषयों की शिक्षा देने के ख़िलाफ़ है। जहाँ बच्चों के संपूर्ण मानसिक विकास के लिए बच्चों पर बोझ न डालने पर पर ज़ोर दिया जा रहा है, वहीं सरकार ने शिक्षा के क़ारोबार को क़ानूनी बना दिया। सरकार के शिक्षा के नए ढांचे 5+3+3+4 में बच्चे को 3 साल की उम्र में प्ले स्कूल में डालना होगा। उसके बाद वह किंडरगार्टन में 2 साल पढ़ेगा। उसके बाद पहली और दूसरी कक्षा में पढ़ेगा। यह 5 साल का फ़ाउंडेशन स्टेज है। यानी शहरों में पढ़ाई के नाम पर चल रही शोशेबाज़ी और लूट को क़ानूनी मान्यता मिल गई है। इसे गाँवों को भी झेलना होगा, जहाँ पहले से ही शिक्षा व्यवस्था बेहद मुश्किल दौर में है। फ़ाउंडेशन पूरा करने के बाद 8 साल से 11 साल की उम्र में प्रिपरेटरी स्टेज होगा, जहाँ बच्चा तीसरी, चौथी और पाँचवीं में पढ़ेगा और इसके बाद मिडिल स्टेज यानी 11 से 14 साल के दौरान वह छठी से आठवीं तक की पढ़ाई करेगा। सेकंड्री स्टेज 9वीं से 12वीं तक दो चरणों में चलेगा। इसी दौरान उपलब्ध ढाँचे में बच्चे अपने मनपसंद विषय चुन सकेंगे।

नई नीति में डिजिटल और ऑनलाइन लर्निंग के लिए एक समर्पित टीम की बात कही गई है, जो ख़ासकर स्मार्टफ़ोन और लैपटॉप रखने की क्षमता वाले लोगों के लिए है। नीति के मुताबिक़ बच्चों को छठी से आठवीं कक्षा के दौरान बढ़ई, बिजली मिस्त्री, धातुओं का काम, माली का काम, बर्तन बनाने का काम सिखाया जाएगा।

तिलक भी ऐसी ही रणनीति चाहते थे, जिसमें बच्चों को व्यावसायिक शिक्षा दी जाए। उन्होंने ‘कुनबी’ बच्चों को शिक्षा देने का विरोध किया। उन्होंने कहा कि लिखने, पढ़ने और इतिहास, भूगोल व गणित जानने का उनके व्यवहारिक जीवन में कोई मतलब नहीं है। उन्होंने कहा कि यह उनकी बेहतरी से ज़्यादा उनके लिए हानिकारक होगा। 15 मई 1881 को उन्होंने मराठा अख़बार में ‘अवर सिस्टम ऑफ़ एजुकेशन : ए डिफेक्ट एंड क्योर’ शीर्षक से लिखा, ‘आप किसान के लड़के को हल जोतने, लोहार के बेटे को धौंकनी से, मोची के बेटे को सूआ के काम से पकड़कर आधुनिक शिक्षा देने के लिए ले जाएँगे। ...और लड़का अपने पिता के पेशे की आलोचना करना सीखकर आएगा। उसे अपने खानदानी और पुराने पेशे में बेटे का सहयोग नहीं मिलेगा। ऐसा करने पर वह लड़का रोज़गार के लिए सरकार की तरफ़ देखेगा। आप उसे उस माहौल से अलग कर देंगे जिससे वह जुड़ा हुआ है, ख़ुश है और उनके लिए उपयोगी है, जो उन पर निर्भर हैं। उनकी बहुत सी चीजों से आप उन्हें दूर कर देंगे।’

तिलक ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि अन्य बच्चों के लिए जो पाठ्यक्रम है वह कुनबी बच्चों के लिए अनुपयोगी है। उन्हें वही विषय पढ़ाए जाने चाहिए जो उनकी जीविका के लिए ज़रूरी है। उन्होंने गाँवों में बढ़ई, लोहार, दीवार जोड़ने वाले मिस्त्री, और दर्जी के लिए टेक्निकल स्कूल खोलने की सलाह दी। -(फ़ाउंडेशंस ऑफ़ तिलक्स नैशनलिज़्म, परिमाला वी राव पेज 139, 140)

'कुनबी बच्चों को शिक्षा देना धन की बर्बादी'

तिलक ने कहा कि कुनबी बच्चों को शिक्षा देना धन की बर्बादी है। वह धन बर्बाद किया जा रहा है जो करदाताओं से लिया जाता है। इस शिक्षा का समाज के एक ख़ास तबक़े पर बुरा असर पड़ रहा है। बंगाल में भी भद्रलोक ने तिलक का साथ देते हुए निचली जातियों को अंग्रेज़ी शिक्षा दिए जाने का विरोध किया। तमाम लोगों को यह चिंता होने लगी कि निम्न जाति के लोग ज़्यादा मज़दूरी, समानता और उन नौकरियों की माँग करने लगेंगे, जो भद्रलोक करता है। उन्होंने लिखा, ‘स्कूलों में कुनबी बच्चों की हाजिरी सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने बाद में प्राइमरी स्कूलों को राजस्व अधिकारियों के नियंत्रण में दे दिया। उन्हें खेती करने व अन्य पेशे में लगे लोगों के बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित करने का काम करना था। लेकिन किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि इस ज़ोर ज़बरदस्ती करने का क्या फ़ायदा है और इससे लाभ की जगह हानि ज़्यादा हो रही है।’

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तिलक ग़रीब बच्चों को मदद देकर पढ़ाने के भी ख़िलाफ़ थे। बॉम्बे और पूना में अंग्रेज़ सरकार और कुछ रियासतों ने स्कॉलरशिप देकर बच्चों को पढ़ने को प्रेरित किया। 1856 में 45 की जगह 10 बच्चों को स्कॉलरशिप दिया जाने लगा। ऐसे में एल्फिंस्टन कॉलेज के 35 बच्चों को स्कूल छोड़ना पड़ा, जो ग़रीब सुधारवादी ब्राह्मणों के बच्चे थे। कई सालों के बाद इस मसले पर तिलक की टिप्पणी दिलचस्प है। उन बच्चों की पढ़ाई छूट जाने पर तिलक ने ‘ब्राह्मण भिखारी विद्यार्थी’ कहकर उनका मज़ाक़ उड़ाया था।

सरकार ने स्थानीय भाषा में प्राथमिक शिक्षा देने की बात कही है। मौजूदा स्थिति यह है कि सम्मानजनक नौकरियाँ व काम अंग्रेज़ी जानने वालों को मिलता है।

उच्च एवं उच्चतम न्यायालय हो, सेना के अधिकारी स्तर पर भर्तियाँ, शोध कार्य, विदेश मंत्रालय सहित सभी शीर्ष स्तरों पर अंग्रेज़ी वाले ही बेहतर तनख़्वाह और पद पाते हैं। स्थिति यह है कि गाँव-गाँव में लोग अंग्रेज़ी का महत्त्व समझ गए हैं और यह राजनीतिक मसला बन गया है कि सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ाई हो। दक्षिण भारत में जहाँ भाषाई आधार पर राज्य बने थे, आंध्र प्रदेश की जगन मोहन रेड्डी सरकार की कवायद है कि प्राथमिक स्तर पर सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी में शिक्षा हो। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्राइमरी में अंग्रेज़ी शिक्षा देने की बात कर रहे हैं। नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के ख़िलाफ़ आधुनिक व बेहतर अंग्रेज़ी शिक्षा का नारा देकर ही चुनाव जीता था। 

ममता बनर्जी ने बंगाल में 35 साल से काबिज वाम मोर्चे की सरकार के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ी को ही मुद्दा बनाया था और जगह-जगह जनसभाओं में कहा कि वामपंथी नेताओं के बेटे विदेश में अंग्रेज़ी पढ़कर बैरिस्टर बनते हैं और सरकार ग़रीबों को बांग्ला पढ़ाकर खाने को मोहताज कर देती है। ऐसे में देखा जाए तो जनता और बाज़ार का दबाव अंग्रेज़ी शिक्षा को लेकर है। वहीं सरकार ने तिलक को अपनाने का पक्ष लिया है, जिन्होंने कहा था कि महिलाओं, ग़ैर-ब्राह्मणों को अंग्रेज़ी शिक्षा देकर हिंदुत्व को नष्ट किया जा रहा है। 10 मई 1887 को केसरी अख़बार में ‘मॉडर्न एनिमिज ऑफ़ हिंदुत्व’ नामक लेख में उन्होंने कहा, ‘पूना में गर्ल्स हाई स्कूल में इंग्लिश, मैथमेटिक्स, साइंस पढ़ाया जा रहा है। यह हिंदुत्व की आत्मा के ख़िलाफ़ है।’

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प्रीति सिंह

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