क्या बीजेपी एक बार फिर सवर्णों की पार्टी बनती जा रही है? यह सवाल इसलिए पूछा जा रहा है क्योंकि अंग्रेजी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक़, बीजेपी ने हिंदी राज्यों में टिकट वितरण में अधिकतर सवर्णों को ही टिकट दिया और वे बड़ी संख्या में जीतकर भी आए हैं। हालाँकि यह बात अलग है कि जीत मिलने के बाद अपने पहले भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि अब देश में सिर्फ़ दो ही जाति हैं, एक ग़रीब और दूसरी जो ग़रीबी मिटाने में मदद कर रही है। बता दें कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला है।
हिंदी राज्यों में इस बार बीजेपी की सवर्णों को ज़्यादा से ज़्यादा टिकट देने की रणनीति पर बात करने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं। मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के लागू होने के बाद 90 के दशक में उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में पिछड़े वर्ग से कई नेता उभर कर सामने आये। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव तो बिहार में लालू प्रसाद यादव पिछड़ों के बड़े नेताओं के रूप में सामने आए। इसका असर यह हुआ कि 90 के दशक में पिछड़े वर्ग के सांसदों की संख्या दुगनी यानी 11% से बढ़कर 22% हो गई।
उस दौर में जब कांग्रेस को ब्राह्मणों को आगे बढ़ाने वाली और बीजेपी को ‘ब्राह्मण-बनिया’ पार्टी माना जाता था तो, इन दोनों पार्टियों ने भी इस बात को समझा कि पिछड़ों की अब और ज़्यादा अनदेखी नहीं की जा सकती। इसी रणनीति के तहत बीजेपी ने 1991 में पिछड़े वर्ग से आने वाले कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया।
हालाँकि, पिछले एक दशक में एक बार फिर बीजेपी के उभरने के साथ ही सवर्ण सांसदों की संख्या बढ़ी और पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व घटने लगा। यह दौर 2009 में शुरू हुआ और 2014 में जब पहली बार मोदी सरकार बनी तो वैसे ही हालात बनने लगे जैसे मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के लागू होने से पहले थे। पिछड़े वर्ग के सांसदों की संख्या गिरने का एक बड़ा कारण ख़ुद इस वर्ग से भी जुड़ा हुआ है। पहला कारण यह है कि पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण अब अपनी उच्चतम सीमा तक पहुँच चुका है और दूसरी कारण यह कि इस वर्ग का कोई भी नेता अब मतदाताओं से यह नहीं कह सकता कि तुम मुझे वोट दो तो तुम्हें आरक्षण का ज़्यादा लाभ मिलेगा। इसके साथ ही यह बात भी अहम है कि पिछड़ा वर्ग पूरी तरह जातियों में बँट गया। बिहार में यादव राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ तो कुर्मी जनता दल यूनाइटेड के साथ चले गए।
उस दौर में बीजेपी में जब सवर्णों की भागीदारी बढ़ी तो पिछड़ा वर्ग भी उसी तरह पार्टी में आगे बढ़ा। इसने ‘मंदिर बनाम मंडल’ के मुद्दे को कमजोर कर दिया क्योंकि बीजेपी जानती है कि धार्मिक ध्रुवीकरण से जातिगत बँटवारे या जातियों के बीच के तनाव को कम किया जा सकता है।
बीजेपी यह भी जानती है कि धार्मिक ध्रुवीकरण लोगों को उनकी जाति और वर्ग को भुलाने में मदद कर सकता है। बहरहाल, अब हम बात करते हैं 2019 के लोकसभा चुनाव की। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक़, हिंदी भाषी राज्यों में बीजेपी ने 199 उम्मीदवारों में से 88 सवर्ण उम्मीदवारों को टिकट दिया। इससे बीजेपी की रणनीति का पता चलता है।
लेकिन ग़ौर करने लायक और दिलचस्प बात अनारक्षित सीटों को लेकर है। इन 199 सीटों में से 52 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं, इसलिए वहाँ बीजेपी कोई जोड़-तोड़ नहीं कर सकती थी लेकिन 147 अनारक्षित सीटों पर ही उसने 88 सवर्ण उम्मीदवारों को टिकट दे दिया। इसमें से 80 उम्मीदवार जीतकर आए हैं।
बीजेपी को ब्राह्मणों की पार्टी तो माना ही जाता था लेकिन योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद राजपूत भी इसकी ओर आने लगे। यूपी में बीएसपी को जाटवों और एसपी को यादवों की पार्टी माना जाता है।
बीजेपी को 2014 में मिली जीत का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि सवर्ण वर्ग में 2009 में बीजेपी के ब्राह्मण सांसद 30% थे जो 2014 में बढ़कर 38.5% हो गए। जबकि 2009 में बीजेपी में राजपूत सांसद 43% थे जो पिछले दस सालों में घटकर 34% रह गए। कुल मिलाकर बीजेपी में सवर्ण सांसदों की संख्या बढ़ी है।
बीजेपी में ब्राह्मणों और राजपूत सांसदों की संख्या बढ़ने का एकमात्र कारण टिकट बँटवारे में इन वर्गों को अहमियत दिया जाना है। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक़, हिंदी भाषी राज्यों के 199 उम्मीदवारों में से पार्टी ने 37 ब्राह्मणों और 30 राजपूतों को टिकट दिया जिनमें से 33 ब्राह्मण और 27 राजपूत उम्मीदवार चुनाव जीतकर आए हैं।
पिछड़ा वर्ग, विशेषकर यादव मतदाताओं के बीच जिन्हें एसपी का समर्थक माना जाता है, इनमें से बीजेपी ने दूसरी छोटी जातियों को टिकट दिया। ऐसा भी बीजेपी ने रणनीति के तहत किया क्योंकि उसका मानना था कि ये जातियाँ यादवों के प्रभुत्व के कारण उससे नाराज हैं।
इसके विरोध में पिछड़े वर्ग की अन्य जातियाँ जैसे ग़ैर यादव, ग़ैर कुर्मी, ग़ैर कोइरी, ग़ैर लोध और ग़ैर गुर्जर का प्रतिनिधित्व 23% से बढ़कर 31% हो गया। इन आंकड़ों को अगर आप ग़ौर से देखें तो बीजेपी की रणनीति का पता चलता है। अख़बार के मुताबिक़, हिंदी भाषी राज्यों के 199 उम्मीदवारों में यादवों को सिर्फ़ 7 टिकट दिये गये और इनमें से 6 को जीत मिली जबकि कुर्मी उम्मीदवारों को 8 टिकट दिये गए और इनमें से 7 को जीत मिली। यानी ग़ैर यादवों को ज़्यादा टिकट दिए गए।
इसी तरह, दलितों के बीच बीजेपी ने ग़ैर जाटव जातियों को टिकट देकर जाटवों को अलग-थलग करने की कोशिश की। बीजेपी ने 35 में से सिर्फ़ 3 जाटव उम्मीदवारों को टिकट दिया जबकि पासी वर्ग को 5 टिकट दिये। जबकि दूसरी तरफ़, एसपी-बीएसपी के महागठबंधन ने यूपी में 10 जाटव उम्मीदवारों को टिकट दिया।
अब सवाल यह है कि बीजेपी यह क्या कर रही है। प्रधानमंत्री कहते हैं कि देश में सिर्फ़ दो ही जाति हैं। लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान वह ख़ुद को अति पिछड़ा बताते रहे। दूसरी ओर, बीजेपी ने टिकटों के वितरण में पूरी तरह सवर्णों को प्राथमिकता दी है।
लेकिन राजनीतिक विश्लेषक चुनाव नतीजे आने के बाद भौंचक हैं। क्योंकि नतीजों को देखकर स्पष्ट पता चलता है कि बीजेपी को लगभग सभी जातियों का वोट मिला है। उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन बनने के बाद यह आशंका जताई जा रही थी कि बीजेपी को दलितों, पिछड़ों और पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों का साथ नहीं मिलेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और बीजेपी ने राज्य की 80 में से 62 सीटों पर जीत हासिल की है। इसी तरह बिहार में भी वह अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ कांग्रेस के साथ विपक्षी दलों का लगभग सूपड़ा साफ़ करने में सफल रही है। आंकड़े तो यह कहते हैं कि बीजेपी में सवर्ण वह भी ब्राह्मण और राजपूत सांसदों की संख्या बढ़ रही है। यही तो बीजेपी की राजनीति है जिसमें वह अगड़ा और पिछड़ा का राजनीतिक मेल बनाकर जातियों की दलदली राजनीति में भी अपने एजेंडे को कायम रख सकती है।
अपनी राय बतायें