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बर्बरता करने वाले पुलिसकर्मियों की पीठ क्यों थपथपा रहे हैं प्रधानमंत्री?

दिल्ली के रामलीला मैदान में पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से पुलिस का गुणगान किया था और वहाँ मौजूद भीड़ से पुलिस की जय-जयकार करवाई थी, उसका मक़सद अब साफ़ हो चुका है। देशभर में और ख़ासतौर पर दिल्ली सहित बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश, गुजरात और कर्नाटक में पुलिस ने नागरिकता संशोधन क़ानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे नागरिक समाज, विपक्षी नेताओं और कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ एक तरह से युद्ध छेड़ दिया है। पुलिस का सर्वाधिक बर्बर चेहरा उत्तर प्रदेश में देखने को मिल रहा है। उत्तर प्रदेश की पुलिस जो कुछ कर रही है और पुलिस के आला अधिकारी जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल प्रदर्शनकारियों और ख़ासकर अल्पसंख्यक समुदाय के लिए कर रहे हैं, उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ गुंडागर्दी ही कहा जा सकता है।

ब्रिटिश हुक़ूमत के दौरान स्वाधीनता सेनानियों और आम जनता के साथ पुलिस किस निर्ममता से पेश आती थी, उसके क़िस्से अब तक हम या तो किताबों में पढ़ते आए हैं या उस समय जवान रहे बुजुर्गों के मुँह से ही सुनते आए हैं। लेकिन इस समय उत्तर प्रदेश में नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी का शांतिपूर्ण तरीक़ों से हो रहे विरोध का पुलिस जिस बर्बर तरीक़े से दमन कर रही है, उसे देखकर सहज कल्पना की जा सकती है कि औपनिवेशिक काल में हमारे बुजुर्गों ने किस तरह की पुलिस बर्बरता का सामना किया होगा।

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देश के कई शहरों में शांतिपूर्ण ढंग से अपना विरोध जता रहे प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठी, गोलियाँ बरसाई हैं, लोगों के वाहनों को तोड़ा-फोड़ा है, लोगों को घरों में घुसकर मारा है और महिलाओं से बदसलूकी की है। उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में पुलिस की हिंसा से अब तक 30 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और अनगिनत लोग जख्मी हुए हैं। पुलिस की तमाम हिंसक हरकतों, पुलिस अधिकारियों के आपत्तिजनक बयानों के वीडियो और फोटो भी सामने आ चुके हैं।

हालाँकि मुख्यधारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा इन सारी घटनाओं पर पर्दा डालकर हक़ीक़त को सामने आने से रोकने का भरसक आपराधिक प्रयास कर रहा है, फिर भी सरकार के शीर्ष पर बैठे लोगों को अन्य स्रोतों से वस्तुस्थिति यानी पुलिस की कारगुज़ारी की जानकारी तो निश्चित ही मिल रही होगी। फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली को संबोधित करते हुए पुलिस का अभूतपूर्व महिमामंडन किया और वहाँ मौजूद उस भीड़ से पुलिस की जय-जयकार भी कराई, जो प्रधानमंत्री का भाषण शुरू होने से पहले नागरिकता क़ानून और एनआरसी का विरोध करने वालों के ख़िलाफ़ नारे लगा रही थी- 'देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को’।

प्रधानमंत्री का यह रवैया एक व्यक्ति के तौर पर भी बेहद अफ़सोसजनक है। प्रधानमंत्री ने ऐसा करके पुलिस द्वारा देश के विभिन्न शहरों में प्रदर्शनकारी छात्रों, नौजवानों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर की गई बर्बर कार्रवाई का न सिर्फ़ स्पष्ट रूप से बचाव किया है, बल्कि आगे भी ऐसा करने के लिए पुलिस को अपनी ओर से हरी झंडी दिखाई है और अपने समर्थकों को भी इस तरह की कार्रवाइयों में पुलिस का साथ देने के लिए प्रेरित किया है। यही नहीं, इससे पहले एक अन्य मौक़े पर प्रधानमंत्री सार्वजनिक तौर पर नागरिकता क़ानून का विरोध करने वालों को इशारों-इशारों में मुसलिम बताते हुए यह भी कह चुके हैं कि इस क़ानून के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे लोगों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है। इस सभा में वे नागरिकता क़ानून का विरोध कर रहे विपक्षी नेताओं को भी पाकिस्तान और आतंकवादियों का हमदर्द तक क़रार दे देते हैं।

देश में जिस तरह के हालात बने हुए हैं, उसके मद्देनज़र प्रधानमंत्री से अपेक्षा तो यह थी कि वह पुलिस से संयम बरतने को कहते। यह न भी कहते तो कम से कम ऐसे मौक़े पर पुलिस का महिमामंडन करते हुए अपने समर्थकों को पुलिस की 'मदद’ करने के लिए तो न कहते।

लेकिन उन्होंने जो किया, उसे किसी भी दृष्टि से उनके पद की ज़िम्मेदारी और गरिमा के अनुरूप नहीं कहा जा सकता। इन सार्वजनिक उद्गारों के बाद अगर पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई और भीड़ की हिंसा में स्वाभाविक रूप से तेज़ी आ जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिये। तय है। यह तेज़ी दिल्ली, उत्तर प्रदेश और गुजरात में साफ़ देखी जा सकती है।

प्रधानमंत्री ने रामलीला मैदान की रैली में ड्यूटी के दौरान पुलिसकर्मियों के समक्ष आने वाली चुनौतियों का जिक्र करते उनकी क़ुर्बानियों को भी याद किया। उन्होंने आज़ादी के बाद से लेकर अब उन 33 हजार पुलिस कर्मियों के सम्मान में नारे भी मौजूदा भीड़ से लगवाए, जो अपनी ड्यूटी के दौरान किसी न किसी घटना-दुर्घटना के चलते मारे गए। इसमें कोई हर्ज नहीं।

पुलिसकर्मियों के लिए नारे लगवाए

प्रधानमंत्री ने रामलीला मैदान में पुलिस कर्मियों की कुर्बानियों को भी याद किया। उन्होंने आज़ादी के बाद से लेकर अब उन 33 हज़ार पुलिस कर्मियों के सम्मान में नारे भी मौजूदा भीड़ से लगवाए, जो अपनी ड्यूटी के दौरान किसी न किसी घटना-दुर्घटना के चलते मारे गए। इसमें कोई हर्ज नहीं। दुर्दांत अपराधी तत्वों से या किसी तरह की आपदा से जूझते हुए अगर किसी पुलिसकर्मी की जान जाती है तो उसका सम्मानपूर्वक स्मरण होना ही चाहिए, लेकिन यह स्मरण तब नहीं किया जा सकता, जब पुलिस की भूमिका संदेह के घेरे में हो और उसकी ग़ैर-क़ानूनी हरकतों के प्रमाण सार्वजनिक हो चुके हों। क़ायदे से प्रधानमंत्री को उस मंच से पुलिस को कड़ी नसीहत देनी चाहिए थी। कड़ी नसीहत न भी देते तो पुलिस से संयम बरतने और लोगों के साथ शालीनता से पेश आने की अपील तो वह कर ही सकते थे।

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क्या मोदी को जन आंदोलन का एहसास नहीं?

दरअसल, प्रधानमंत्री ने अपने पूरे भाषण में पुलिस की शान में कुल मिलाकर जो कुछ कहा उससे उनकी उस राजनीतिक पृष्ठभूमि का पता चलता है, जिसका जन सरोकारों से कोई ताल्लुक नहीं रहा। किसी भी जन आंदोलन के दौरान पुलिस आंदोलनकारियों से किस तरह पेश आती है, इसका अहसास उसी व्यक्ति को हो सकता है, जो अपने छात्र जीवन या राजनीतिक जीवन में कभी किसी जनांदोलन या संघर्ष का हिस्सा रहा हो। अगर नरेंद्र मोदी का अपने राजनीतिक जीवन में सड़क या संघर्ष की राजनीति से कोई ताल्लुक रहा होता तो वह रामलीला मैदान में पुलिस की पीठ थपथपाने से पहले उन असंख्य बेगुनाह लोगों का स्मरण भी कर लेते, जो आज़ादी के बाद से अब तक फ़र्ज़ी मुठभेड़ों और पुलिस हिरासत में मारे गए हैं। वह छत्तीसगढ़ की उस आदिवासी अध्यापिका और सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी को तो ज़रूर याद कर लेते, जिसके गुप्तांगों में छत्तीसगढ़ पुलिस ने पत्थर भर दिए थे या वह हाल ही में आई छत्तीसगढ़ के ही सात साल पुराने सारकेगुडा कांड की न्यायिक जाँच रिपोर्ट का स्मरण कर लेते, जिसमें कहा गया है कि पुलिस और सुरक्षा बलों ने 17आदिवासी महिला-पुरुषों और बच्चों को नक्सली बताकर मौत के घाट उतार दिया था। 

अगर प्रधानमंत्री पुलिस की कार्यशैली से परिचित होते तो पंजाब, कश्मीर और पूर्वोत्तर, झारखंड और आंध्र प्रदेश के उन बेगुनाह लोगों का मारा जाना भी उनके ज़हन में ज़रूर होता, जिन्हें नक्सली या आतंकवादी कह कर मार दिया गया।

यह एक हक़ीक़त है कि नरेंद्र मोदी लंबे समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी में सक्रिय होने पर भी बतौर मैदानी कार्यकर्ता की भूमिका में मोदी कभी नहीं रहे। उन्होंने शायद ही कभी किसी आंदोलन या जन संघर्ष के कार्यक्रम में हिस्सेदारी की हो। गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले तक वह लगातार पार्टी संगठन का ही काम करते रहे। और एक राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर उनका शायद कभी भी पुलिस से पाला नहीं पड़ा। इसीलिए उन्हें अपने लंबे राजनीतिक जीवन में अपनी ही पार्टी या अन्य किसी ग़ैर-कांग्रेसी दल के अपने समकालीन दूसरे नेताओं की तरह जेल तो क्या, पुलिस थाने तक जाने की नौबत नहीं आई। हाँ, गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपना राजकाज चलाने और अपने विरोधियों को राजनीतिक हाशिये पर पहुँचाने के लिए पुलिस प्रशासन का भरपूर इस्तेमाल किया।

पुलिस की हिंसा को प्रधानमंत्री के इस समर्थन के दूरगामी नतीजे हमारे लोकतंत्र को अपूरणीय क्षति पहुँचाने वाले होंगे।

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अनिल जैन

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