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JEE, NEET के लाखों परीक्षार्थियों के भविष्य से क्यों खिलवाड़ कर रही है सरकार?

देश में एक अजीबोगरीब माहौल है। हर एक मुद्दे पर देश बँटा दिखता है। दो अलग-अलग विचार एक-दूसरे से लड़ते नज़र आते हैं। दिक्कत इसलिए भी और बढ़ जाती है क्योंकि दोनों पक्ष अपने-अपने विचारों पर अमल को नाक का विषय बना लेते हैं। सहमति बनाने के लिए कोई पहल नहीं होती। जो होता है एकतरफ़ा होता है। देश के 26 लाख छात्र इसी द्वंद्वात्मक राजनीतिक परिवेश के बुरे नतीजे को झेल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप भी सवालों को ख़त्म करने के बजाए सवाल पैदा कर रहा है।

ज्वाइंट एन्ट्रेंस एक्जाम यानी JEE की परीक्षा 1 से 6 सितंबर के बीच और नेशनल एलिजिबिलिटी कम इन्ट्रेंस टेस्ट यानी NEET की परीक्षा 13 सितंबर को निर्धारित है। JEE के लिए 9.53 लाख और NEET के लिए 15.97 लाख छात्रों ने रजिस्ट्रेशन कराया है।

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प्रश्न दो हैं- 

  1. क्या लाखों छात्रों की ज़िन्दगी को कोरोना काल में दाँव पर लगा दिया जाए?
  2. क्या कोरोना की वजह से देश के लाखों छात्रों का एक साल बर्बाद कर दिया जाए?

महामारी ले रही है देश की परीक्षा 

इन दोनों प्रश्नों की पृष्ठभूमि में कोरोना का गहराता संकट है जो यह बताता है कि भारत कोरोना संक्रमण के मामले में अगले चार से पाँच दिन में नंबर दो और फिर दो हफ्ते में नंबर एक हो जाने वाला है। प्रतिदिन कोरोना संक्रमण की रफ्तार 60 हज़ार से 70 हज़ार के बीच बनी हुई है। यह भुला देने वाला आँकड़ा नहीं है कि एशिया में कुल कोरोना मरीज़ों का आधा सिर्फ़ हिन्दुस्तान में है।

उपरोक्त दोनों सवालों की पृष्ठभूमि सिर्फ़ कोरोना महामारी के आँकड़े नहीं हैं। इस महामारी को देखने का नज़रिया ही इन परस्पर विरोधी सवालों की जड़ में है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को समूचे देश को लॉकडाउन में भेजने का फ़ैसला किया था तो एक महत्वपूर्ण नारा दिया था- ‘जान है तो जहान है।’ जनता ने तब भी इस नारे पर विश्वास किया था, आज भी इस नारे पर यक़ीन करती है। 

‘जान है तो जहान है’ का नारा देने वाले ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने ही अपने नज़रिए को बदल डाला। तीसरा लॉकडाउन आते-आते नरेंद्र मोदी ने नया नारा अपना लिया- ‘जान भी जहान भी।’

‘जान है तो जहान है’ और ‘जान भी जहान भी’ की सोच में द्वंद्व

जब नेशनल टेस्टिंग एजेंसी यानी NTA ने 3 जुलाई को परीक्षा के लिए नोटिफ़िकेशन निकाला, तब ‘जान भी जहान भी’ की सरकारी सोच ही हावी थी। जब 6 अगस्त को छात्रों ने सुप्रीम कोर्ट में परीक्षा स्थगित कराने की याचिका डाली तब उसमें ‘जान है तो जहान है’ की सोच दिखायी पड़ रही थी। एक तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार में कोरोना से लड़ाई को लेकर जो द्वंद्व रहा है वही द्वंद्व लाखों छात्रों के लिए हो रही परीक्षा और उसे रुकवाने की माँग में दिख रहा है।

समूचा विपक्ष, लाखों की तादाद में छात्र और अभिभावक आज भी अपने बच्चों की जान को प्राथमिकता दे रहे हैं। और, यह बहुत स्वाभाविक है। देश-दुनिया से आवाज़ उठ रही है कि यह परीक्षा टाल दी जानी चाहिए। सिर्फ़ कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ही नहीं, दिल्ली के उपमुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया, बंगाल की सीएम ममता बनर्जी समेत तेजस्वी यादव, असदुद्दीन ओवैसी सरीखे नेता परीक्षा को रद्द करने की माँग कर रहे हैं। कई नेताओं ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी भी लिखी है।

सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद बना हुआ है सवाल

मगर, देश के सुप्रीम कोर्ट को ऐसा नहीं लगता कि परीक्षा रद्द की जानी चाहिए। 17 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने परीक्षा नहीं कराए जाने को लेकर दायर सभी याचिकाएँ खारिज कर दीं। सर्वोच्च न्यायालय का साफ़ कहना था- ‘कोरोना वायरस के कारण देश में सब-कुछ नहीं रोका जा सकता है।’

केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक भी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के हवाले से अपनी सरकार के फ़ैसले का बचाव कर रहे हैं। वह कह रहे हैं कि परिस्थितियों के अनुरूप तारीख़ें पहले भी आगे-पीछे की गयी हैं लेकिन परीक्षा कराना भी ज़रूरी है-  

'हम लोगों ने, जब परिस्थितियाँ थीं तो एक बार थोड़ा सा पीछे किया, दूसरी बार पीछे किया, क्योंकि ऐसी परिस्थितियाँ थीं कि लोग तैयार भी नहीं थे। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम मानते हैं कि महामारी की स्थिति है, लेकिन अंततः जीवन जीना है और छात्रों के भविष्य को लंबे समय तक संकट पर नहीं रखा जा सकता और उनका पूरा अकादमिक साल बर्बाद नहीं किया जा सकता।'

महामारी को देखते हुए परीक्षा की व्यवस्था का दावा

सुप्रीम कोर्ट के दो टूक फ़ैसले के बावजूद परीक्षा रद्द किए जाने की माँग पर आंदोलन दिन ब दिन तेज़ होता जा रहा है। मगर, इस आवाज़ को सुनने से केंद्र की सरकार इनकार कर रही है। उसका तर्क है कि महामारी को देखते हुए परीक्षार्थियों के हित में सारी तैयारी की गयी है। इनमें से कई का वे ज़िक्र कर रहे हैं-

  • JEE परीक्षा के सेंटरों की संख्या 570 से बढ़ाकर 660 कर दी गयी है
  • NEET परीक्षा के सेंटरों की संख्या 2846 से बढ़ाकर 3843 कर दी गयी है
  • परीक्षा पहले 8 शिफ्ट में होनी थी, अब इसे बढ़ाकर 12 शिफ्ट में कर दिया गया है
  • प्रति शिफ्ट परीक्षार्थी अब 1.32 लाख के बजाए 85 हज़ार होंगे
  • 99 फ़ीसदी परीक्षार्थियों को पसंदीदा सेंटर दिया गया है
  • JEE की परीक्षा में एक सीट छोड़कर परीक्षार्थी बैठेंगे
  • NEET परीक्षा के दौरान एक कमरे में 24 के बजाए 12 परीक्षार्थी होंगे

सरकार का यह भी दावा है कि JEE का एडमिट कार्ड 90 फ़ीसदी छात्रों ने डाउनलोड कर लिया है। इसका मतलब है कि वे परीक्षा देना चाहते हैं। वहीं, इसका दूसरा मतलब यह भी है कि छात्रों को लोग बरगला रहे हैं। 

मगर, यह सोचने की बात है कि एडमिट कार्ड डाउनलोड नहीं करने का कोई आंदोलन तो चल नहीं रहा है। ऐसे में इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि सौ फ़ीसदी परीक्षार्थी इसे डाउनलोड कर लें। इसे परीक्षा के आयोजन के समर्थन और विरोध का मुद्दा बनाना कहीं से भी तार्किक नहीं लगता।

छात्र क्या करें- पढ़ें या लड़ें?

मुख्य बात यह है कि कोरोना की रफ्तार, इससे लड़ पाने में सरकार की असमर्थता और बारंबार ‘दो गज दूरी बनाए’ रखने एवं एहतियात बरतने के निर्देश दिए जाते रहे हैं। केंद्रीय शिक्षा मंत्री चाहे लाख दावे कर लें कि उन्होंने कोरोना से परीक्षार्थियों को बचाने के लिए पूरी तैयारी कर ली है। लेकिन, क्या वह इस बात से इनकार कर सकते हैं कि ख़ुद केंद्रीय गृह मंत्री समेत कई राज्यों के मंत्री, राज्यपाल, सांसद, विधायक, बड़े-बड़े नौकरशाह भी कोरोना से ख़ुद को नहीं बचा पाए हैं? यहाँ तक कि कई राज्यों में मंत्री, आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर, पुलिसकर्मियों की लगातार मौतें हुई हैं और हो रही हैं। ऐसे में होनहार छात्रों की ज़िन्दगी ही नहीं देश का भविष्य क्या हम दाँव पर नहीं लगा रहे हैं?

अहम मुद्दों पर न्यायालयों में भी दिखती है दो सोच

सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना काल में प्रवासी मज़दूरों के लिए एक ऐसी टिप्पणी की थी जिसे इतिहास हमेशा याद रखेगा। लॉकडाउन की घोषणा के बाद रोज़गार छूट जाने और फिर पेट की चिंता से मजबूर प्रवासी मज़दूर जब पैदल अपने-अपने घरों की ओर राष्ट्रीय राजमार्ग पर निकल पड़े थे तब एक याचिका डाली गयी थी कि इन्हें रोकने और इनके लिए इंतज़ाम करने के लिए स्थानीय मजिस्ट्रेट को निर्देश दिया जाए। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘हम उन्हें पैदल चलने से कैसे रोक सकते हैं। कोर्ट के लिए यह मॉनिटर करना असंभव है कि कौन पैदल चल रहा है और कौन नहीं चल रहा है।’

मगर, मद्रास हाईकोर्ट को दया आ गयी प्रवासी मज़दूरों को पैदल घर वापस जाते देखकर। उसने कहा कि सभी राज्यों को इस दौरान प्रवासी मज़दूरों को मानवीय सुविधा देनी चाहिए थी। केंद्र और तमिलनाडु सरकार को नोटिस जारी करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने कहा था-

पिछले महीने से मीडिया में दिखाई जा रही प्रवासी मज़दूरों की दयनीय स्थिति को देखकर किसी के लिए भी आँसुओं पर काबू पाना मुश्किल है। यह मानव त्रासदी से कम नहीं है।


मद्रास हाईकोर्ट

सर्वोच्च न्यायालय और प्रांतीय न्यायालयों का एक ही समस्या को देखने का अलग-अलग तरीक़ा छात्रों और अभिभावकों में यह विश्वास पैदा करता है कि ज़िंदगी और करियर में प्राथमिकता को लेकर उनकी सोच सही है। जिनकी सही नहीं है, उन्हें अपनी सोच सही करनी होगी।

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सिर्फ़ एक परीक्षा का सवाल नहीं

JEE और NEET परीक्षार्थियों का सवाल सिर्फ़ एक परीक्षा के आयोजन और उसे रद्द करने भर का सवाल नहीं है। यह महामारी में बच्चों की ज़िन्दगी के लिए अभिभावकों की फ़िक्र का सवाल है। यह अभिभावकों और बच्चों की चिन्ता से सरकार से दूरी का भी सवाल है। एक महामारी जिसके सामने ख़ुद सरकार लाचार है, अपने देश के भविष्य को उस महामारी के हवाले कर देने के दुस्साहस के विरोध का भी यह सवाल है। इसमें संदेह नहीं कि ‘जान है तो जहान है’ के सामने ‘जान भी जहान भी’ की लाचार सोच को झुकना पड़ेगा। परीक्षा तो रद्द होगी। सरकार को भी सोच बदलनी होगी और सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी सोच बदलनी होगी, ठीक उसी तरह जैसे प्रवासी मज़दूरों की ज़िन्दगी के लिए इन्हें अपनी सोच में बदलाव करना पड़ा था- ट्रेनें चलानी पड़ी थीं, नकद देने पड़े थे और अनाज भी घर-घर पहुँचाने पड़े थे। ज़रूरत है तो बस आवाज़ को बुलंद करते जाने की।

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प्रेम कुमार

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