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एनआरसी: क्या है पूरी कहानी, जानिए

एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस का अंतिम प्रकाशन हो चुका है। 3 करोड़ 11 लाख 21 हजार लोगों को एनआरसी की फ़ाइनल सूची में जगह मिली है और 19,06,657 लोग इससे बाहर रहे हैं। जो लोग इस सूची में अपना नाम न आने के कारण संतुष्ट नहीं हैं वे फ़ॉरनर्स ट्रिब्यूनल के सामने अपील दाख़िल कर सकते हैं। 
एनआरसी को लेकर असम के आम लोगों के मन में कई सवाल हैं, जैसे - अगर यह नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस है तो इसे केवल असम में क्यों लागू किया जा रहा है और यह भी कि सबसे पहले असम में ही क्यों? इस सवाल के जवाब के लिए हमें इतिहास के पन्नों को पलटना होगा। 1971 में जब पाकिस्तान के दो टुकड़े पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान बने थे तो पाकिस्तान की सेना से त्रस्त तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश के नागरिक भारी संख्या में वहाँ से भागकर भारत आ गए थे और असम में बस गए थे। बांग्लादेश से आने का यह सिलसिला कई सालों तक चलता रहा लेकिन 1978 में गुवाहाटी के पास मंगलदोई के एक कस्बे में हुई एक घटना के बाद अवैध आप्रवासियों की पहचान का मुद्दा उठा।
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उस साल मंगलदोई के लोकसभा सांसद हीरालाल पटवारी की मौत के बाद उनकी सीट पर लोकसभा का उपचुनाव होना था। चुनाव के दौरान, पर्यवेक्षकों को यह पता चला कि इस इलाक़े में अचानक बहुत तेज़ी से मतदाता बढ़ गए हैं। इसके बाद 1979 में अखिल असम छात्र संघ (आसू) द्वारा अवैध आप्रवासियों की पहचान और निर्वासन की माँग करते हुए आंदोलन चलाया गया और उपचुनाव को स्थगित करने की माँग की गई। आसू ने यह भी माँग की कि मतदाता सूची से अवैध घुसपैठियों के नामों को हटा दिया जाए।
धीरे-धीरे यह आंदोलन बड़ा हो गया और 15 अगस्त, 1985 को असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद ख़त्म हुआ था। असम समझौते के मुताबिक़, 24 मार्च 1971 की आधी रात तक राज्‍य में प्रवेश करने वाले लोगों को ही भारतीय नागरिक माना जाएगा।
असम के आम लोगों के मन में जो दूसरा सवाल है वह यह कि इसे पहले असम में ही क्यों लागू किया जा रहा है इसका जवाब यह है कि असम में रहने वालों के लिए नागरिकता का मापदंड देश के दूसरे हिस्सों से अलग है। एनआरसी की पहली सूची 1951 में प्रकाशित हुई थी लेकिन असम समझौते के बाद इसे तुरंत अपडेट किये जाने की ज़रूरत महसूस की गई। इसलिए यह कहा जा सकता है कि असम में एनआरसी के अपडेट होने का काम 1985 से लंबित था और यह वही साल है जब असम समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। इसका मतलब काफ़ी समय से अवैध रूप से असम में रह रहे लोगों का पता लगाया जाना था और उन्हें आईएमडीटी एक्ट के तहत निर्वासित किया जाना था। आईएमडीटी एक्ट को 1983 में पास किया गया था लेकिन 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया था। अदालत ने कहा था कि इस एक्ट से अवैध घुसपैठ के मुद्दे पर किसी तरह की सफलता नहीं मिली है।
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2005 में ही एनआरसी को अपडेट किये जाने का मुद्दा एक बार फिर जोर-शोर से उठा था और केंद्र सरकार, असम सरकार और आसू के बीच एक बैठक हुई थी और इसमें एनआरसी की प्रक्रिया को फिर से शुरू किये जाने का फ़ैसला लिया गया था जिससे घुसपैठियों की पहचान की जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में एनआरसी को अपडेट करने का आदेश दिया था। इसके बाद असम में फ़ॉरनर्स ट्रिब्यूनल का गठन किया गया और 2015 में इसके काम में तब तेज़ी आई जब सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी की निगरानी का काम अपने हाथ में ले लिया। 
सुप्रीम कोर्ट का रुख एनआरसी के मुद्दे को लेकर बेहद कड़ा रहा है और इस साल फ़रवरी में उसने केंद्र सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाई थी कि वह इस मामले में बहाने बना रही है। कोर्ट ने कहा था कि गृह मंत्रालय एनआरसी की प्रक्रिया को बर्बाद करने की कोशिश कर रहा है। शीर्ष अदालत ने कहा था कि वह इस तरह के रवैये से बहुत निराश है।अब जब एनआरसी का अंतिम प्रकाशन हो चुका है तो ऐसे लोग जिनका नाम इस सूची में नहीं आ पाया है, उनका परेशान होना लाजिमी है। हालाँकि गृह मंत्री अमित शाह और असम में बीजेपी के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने कहा था कि कि जो लोग एनआरसी की फ़ाइनल सूची में आने से रह जायेंगे, उन्हें इस मामले के ट्रिब्यूनल के सामने अपनी बात रखने का पूरा मौक़ा दिया जायेगा। 
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बांग्लादेश से भागकर जो लोग असम आए थे, उनमें से जो लोग एनआरसी की अंतिम सूची में आने से बाहर रह गए हैं, उनके लिए यह साबित करना मुश्किल होगा कि वे या उनके पुरखे असम में 1971 से पहले से बसे हुए हैं। क्योंकि उस समय वोटर आईकार्ड या फिर आधार जैसी सुविधा नहीं थी, इसलिए उनकी दिक़्क़तें और बढ़ गई हैं। इसके अलावा 1951 के मौलिक नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस की प्रतियाँ भी हरेक जगह उपलब्ध नहीं हैं जिसमें अपना नाम देखा जा सके। सबके पास जमीन-जायदाद भी नहीं है, जिसके दस्तावेज हों। ऐसे में केंद्र, राज्य की सरकार को और सुप्रीम कोर्ट को एनआरसी से बाहर रह गए लोगों को उनकी नागरिकता साबित करने का पूरा मौक़ा भी देना चाहिए और उनके दावों पर दयापूर्वक विचार भी किया जाना चाहिए।
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अफ़रीदा रहमान अली

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