तमाम अटकलों और उम्मीदों के उलट राष्ट्रीय जनता दल ने बेगूसराय की सीट भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लिए नहीं छोड़ी। इसके साथ ही यह तय हो गया कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार विपक्षी गठबंधन के साझा उम्मीदवार नहीं होंगे। आरजेडी के इस फ़ैसले से कई सवाल खड़े हो गए हैं। इस फ़ैसले से सिर्फ़ बेगूसराय या कन्हैया कुमार ही नहीं, बिहार की राजनीति, राज्य के सामाजिक समीकरण और राष्ट्रीय जनता दल की रणनीति से जुड़ी कई बातें भी खुल कर सामने आती हैं।
भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का ज़बरदस्त विरोध करने वाले कन्हैया कुमार साल 2016 में तिहाड़ जेल से बाहर निकले तो समाज के एक बड़े वर्ग के हीरो बन चुके थे। जेल से बाहर निकल कर जेएनयू परिसर मे दिया उनका पहला भाषण रातोरात हिट हो गया और यूट्यूब पर इसे लाखों लोगों ने देखा।
उन पर जो राजद्रोह के आरोप लगे, उन पर मुक़दमा अब तक शुरू नहीं हुआ है। लेकिन इसके साथ ही कन्हैया कुमार ने चतुर राजनेता के गुणों का परिचय भी दिया और व्यवहारिक राजनीति करने लगे। उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे लालू प्रसाद यादव से निजी मुलाक़ात की। अपने गृहनगर और किसी समय सीपीआई का गढ़ माने जाने वाले बेगूसराय का कई बार दौरा किया। अच्छे वक्ता तो वह हैं ही, नरेंद्र मोदी पर जिस तरह उन्होंने हमले किए और देश के अलग-अलग हिस्सों में घूम-घूम कर सत्तारूढ़ दल की नीतियों और ख़ास कर प्रधानमंत्री पर हमले किए, उससे उनकी जूझारू और समझदार नेता की छवि बन गई। यह माना जाने लगा कि आरजेडी उनके लिए बेगूसराय की सीट छोड़ देगा और वह वहाँ से आराम से चुनाव जीत कर संसद पहुँच जाएँगे।
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पर जब सीटों के बँटवारे पर अंतिम बातचीत हुई तो आरजेडी ने वह सीट छोड़ने से साफ़ इनकार कर दिया। कई बार की कोशिशों के बावजूद बात आगे नहीं बढ़ी। इस पर लोगों को ताज्जुब हो सकता है। पर बेगूसराय और बिहार की राजनीति पर एक नज़र डालने से चीजें साफ़ हो जाती हैं।
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर के बावजूद बेगूसराय में राजद को लगभग 3.70 लाख वोट मिले, उसका उम्मीदवार सिर्फ़ 56 हज़ार वोटों से हारा था। उसके बाद से गंगा में काफ़ी पानी बहा है, मोदी का जादू उतर चुका है, वह अपने वायदे पूरे करने में बुरी तरह नाकाम हुए हैं, लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बावजूद आम जनता में उनकी छवि पर भ्रष्टाचार का कीचड़ नहीं लगा है। आरजेडी पहले से अधिक मजबूत हुआ है, तेजस्वी यादव एक सुलझे हुए और तेज़ राजनेता के रूप में उभरे हैं, पार्टी के कार्यकर्ता जोश से भरे हुए हैं। स्वाभाविक है कि राजद यह सोचे कि इस बार वह ख़ुद चुनाव लड़े क्योंकि पिछली बार के सिर्फ़ 56 हज़ार वोट के अंतर को पाटना बहुत मुश्किल नहीं होगा।
बिहार में जो जातीय समीकरण है, उसकी यह सच्चाई है कि अब वहाँ अगड़ी जातियों के नेताओं के लिए बहुत संभावनाएँ नहीं बची हैं। जाति में विश्वास नहीं करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी इस सच्चाई को मान चुकी हैं और उसी हिसाब से अपना नेतृत्व उभारती हैं।
बेगूसराय में जिस भूमिहार जाति की संख्या अधिक है, कन्हैया उसी जाति के हैं। इसलिए उनका दावा तो सही बैठता है, पर आरजेडी की राजनीति अगड़ों के विरोध पर टिकी हुई है। वह अपनी छवि एक अगड़े नेता को आगे बढ़ाने वाले दल की नहीं कर सकती, इससे उसे राज्य के दूसरे हिस्सों में नुक़सान होगा। सीपीआई जिन नेताओं के नाम आगे बढ़ा रही थी, वे भूमिहार जाति के ही थे। ऐसे में उनका विरोध करना आरजेडी की राजनीतिक चतुराई भी है और मजबूरी भी।
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बेगूसराय से आरजेडी के उम्मीदवार तनवीर हसन थे, जो बीजेपी के भूमिहार उम्मीदवार भोल सिंह से हार गए थे। वह बिहार के क़द्दावर मुसलमान नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी के नज़दीक हैं। सिद्दीकी राजद के एक मात्र मुसलमान चेहरा हैं, लालू की ग़ैरमौजूदगी में उनका कद पहले से बढ़ा है। पार्टी उनकी उपेक्षा नहीं कर सकती और वह तनवीर हसन पर इस बार भी दाँव खेलने की ज़ोरदार वकालत कर रहे थे।
बेगूसराय से तनवीर हसन को मैदान में उतार कर तेजस्वी एक साथ कई चीजों को साध लेंगे। वह अब्दुल बारी सिद्दीकी की नाराज़गी दूर कर लेंगे, राज्य के तमाम मुसलमानों के बीच पार्टी की छवि एक बार फिर स्थापित करेंगे और बेगूसराय की सीट भी अपनी पार्टी के पास ही रखने में कामयाब होंगे।
जब एक-एक सीट अहम हो, तेजस्वी से यह उम्मीद करना ज़्यादती होगी कि वह एक सीट सीपीआई को उपहार में दे दें और वह भी अपने नुक़सान पर। तेजस्वी एक कुशल राजनेता हैं, वह यह उदारता दिखा कर अपनी पार्टी का नुक़सान नहीं करेगे।
इसके साफ़ संकेत हैं कि सीपीआई बेगूसराय में अपना उम्मीदवार उतारेगी और वह कन्हैया कुमार हों, इसकी पूरी संभावना है। बेगूसराय को किसी ज़माने में 'बिहार का मास्को' कहा जाता था। वे दिन अब नहीं रहे, सीपीआई का आधार छीज चुका है, उसके जनाधार को राजद ने बुरी तरह काटा है। ऐसे में यह बिल्कुल स्वाभाविक है वह चुनाव लड़े। यह तिकोना चुनाव बीजेपी के पक्ष में जाए और उससे इससे फ़ायदा हो, इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। पर सीपीआई को अपना जनाधार बचाना है और उसे वहाँ अपना उम्मीदवार खड़ा करना ही चाहिए, नतीजा चाहे जो हो। सांप्रदायिकता को रोकने की सारी ज़िम्मेदारी उसकी ही तो नहीं है। ऐसे में कन्हैया कुमार को कितने वोट मिलेंगे और वह चुनाव जीत पाएँगे या नहीं, यह देखना दिलचस्प होगा।
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