कल दिल्ली के पटियाला कोर्ट के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट यह तय करेंगे कि कन्हैया कुमार पर दिल्ली पुलिस द्वारा दाख़िल की गई चार्जशीट बिना राज्य सरकार की अनुमति के सुनवाई के लिए स्वीकार की जाए या नहीं।
दिल्ली पुलिस ने बीते सोमवार को जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार व 9 अन्य लोगों के ख़िलाफ़ चार्जशीट कोर्ट में दाख़िल कर दी थी। क़ानून के मुताबिक़, इस चार्जशीट को पहले दिल्ली सरकार के न्याय विभाग को वेटिंग (राज्य सरकार सरकारी वकीलों से पुलिस की चार्जशीट पर राय लेती है कि चार्जशीट वैधानिक मानदंडों के अनुरूप है कि नहीं। मानदंडों के अनुरूप न होने पर सरकार इसे पुलिस को बदलाव या ख़ारिज करने के लिए वापस कर देती है।) के लिए सौंपा जाना था।
इसके बाद दिल्ली पुलिस राज्य सचिवालय में इसे दिल्ली सरकार से मंजूरी दिलाने का प्रयास करती रही पर इन पंक्तियों के लिखे जाने तक राज्य सरकार की ओर से ऐसी किसी मंजूरी दिए जाने की कोई सूचना नहीं है।
गुमराह करने की कोशिश
बीजेपी के लिए बेशर्मी से चुनाव प्रचार की सेवाएँ प्रदान करते मीडिया ने एकतरफ़ा ढंग से देशभक्ति बनाम देशद्रोह पर मर्यादा की हर सीमा तोड़कर मतदाताओं को भ्रमित करने का प्रयास किया। कोर्ट में इस मामले का ट्रायल होगा कि नहीं होगा, यह अभी तय होना बाक़ी है। लेकिन चैनलों ने एक बार फिर ऐसे विवाद का ख़ुद मीडिया ट्रायल किया, जिसके बारे में एबीवीपी के दो पूर्व पदाधिकारियों के मीडिया ग्रुप ज़ी न्यूज़ पर सीधे आरोप हैं कि यह विवाद उनकी डॉक्टर्ड क्लिप्स का ही पैदा किया हुआ है।
देश में सोशल मीडिया और प्रबुद्ध समाज में देशद्रोह के अंग्रेजी राज के क़ानून 124A पर बहस छिड़ गई है क्योंकि दिल्ली पुलिस ने कन्हैया व अन्य 9 लोगों को इस धारा में आरोपित किया है।
अंग्रेजों ने सबसे पहले 124A का इस्तेमाल बाल गंगाधर तिलक के ख़िलाफ़ किया था। यह क़ानून गाँधी जी के ख़िलाफ़ भी इस्तेमाल हुआ था। गाँधी जी ने एक लेख लिखा था जिससे अंग्रेज़ सरकार नाराज़ थी।
भारत में आज़ादी के बाद इस क़ानून का पहला इस्तेमाल झारखंड के दो आदिवासी नेताओं के ऊपर हुआ। देबी सोरेन बनाम राज्य नाम के 1951 के इस मुक़दमे में देबी सोरेन और अन्य पर आरोप था कि संथाल परगना के ये निवासी बिहार राज्य के ख़िलाफ़ आदिवासियों को भड़काते हैं और बिहार से अलग अपना आदिवासी राज्य बनाना चाहते हैं।
हाई कोर्ट ने बताया था औचित्यहीन
पुलिस ने यह मुक़दमा दर्ज किया था जिसपर निचली अदालत ने आरोपियों पर पाँच सौ रुपये का जुर्माना कर दिया था। जुर्माना न देने पर छ महीने की क़ैद का प्रावधान था। हाई कोर्ट ने इस फ़ैसले पर स्टे दे दिया था और 1953 में सुनवाई के बाद सजा को रद्द कर दिया। हाई कोर्ट ने तब कहा था कि आज़ादी के बाद ऐसे क़ानून के बने रहने का कोई औचित्य नहीं है लेकिन यह क़ानून बना रहा।
सुप्रीम कोर्ट का भी नज़रिया यही था
1962 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने केदारनाथ सिंह बनाम स्टेट के मामले में धारा 124A का पुन: परीक्षण किया। बहुत विस्तार से लिखे गए इस फ़ैसले की तमाम व्याख्याएँ हैं पर नतीजा एक ही है कि केदारनाथ सिंह पर से देशद्रोह का आरोप ख़त्म हुआ। बीती सदी के आख़िरी दशक में खालिस्तान के पक्ष में नारे लगाने वाले एक सिख को भी सुप्रीम कोर्ट ने देशद्रोह का दोषी नहीं माना।
- उसने जेएनयू कैंपस में बिना अनुमति के हुए एक प्रदर्शन का नेतृत्व किया (एबीवीपी की जेएनयू इकाई से निकले दो पदाधिकारियों ने सत्य हिंदी को बताया कि जेएनयू में ऐसे प्रदर्शन रोज़ होते रहते हैं जिनकी अनुमति शायद ही होती हो)!
- उसने सुरक्षा अधिकारी के रोकने पर उससे बहस की (मारपीट नहीं की)!
- सरकार विरोधी नारे लगाए!
- कोर्ट के फ़ैसले (अफ़ज़ल गुरू को फ़ाँसी दिए जाने पर) के ख़िलाफ़ नारे लगाए।
- उसकी उपस्थिति में कश्मीरी छात्रों ने ‘बारत (भारत) तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे लगाए।
दिल्ली पुलिस तीन साल तक इस मामले को लिए बैठी रही और ठीक आम चुनाव के पहले बिना दिल्ली की राज्य सरकार से वैधानिक अनुमति लिए सीधे कोर्ट पहुँच गई। अब यदि केजरीवाल सरकार अनुमति न दे तो बीजेपी वाले और टीवी वाले ढोल-मजीरे बजाकर दिल्ली सरकार को भी देशद्रोही प्रचारित करेंगे और जो कोई भी धारा 124A या इस मुक़दमे की राजनीति आदि पर सवाल खड़े करेगा उसे देशद्रोही बताया जाएगा।
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