मंगलेशजी जनसत्ता की शुरुआती टीम में थे। और उन्हें रविवारीय मैगजीन का संपादन मिला था। उस समय जनसत्ता की टीम में हर तरह की विचारधारा के लोग थे और हर व्यक्ति अपने लोगों को ही प्रमोट करने अथवा नए रंगरूटों को अपने पाले में लाने की फ़िराक़ में रहता था।
यह वह दौर था, जब एक तरफ़ तो पूरा जनसत्ता एक नए क़िस्म की हिंदी पत्रकारिता के मानक गढ़ रहा था। एक नए तरह की भाषा को प्रचलन में ला रहा था और जनता की भावनाओं के अनुकूल उस पत्रकारिता को स्थापित कर रहा था, जहां लोग इस अख़बार से आगे आकर जुड़ते थे।
मैं उस समय जनसत्ता के संपादकीय पेज से जुड़ा था, जिसे संपादक प्रभाष जोशी ख़ुद अपनी निगरानी में ही जाने देते थे। अख़बार में तब बनवारी, हरिशंकर व्यास और सतीश झा सहायक संपादक थे।
इन तीन लोगों में से किन्हीं दो लोगों को रोज़ एक-एक संपादकीय लिखना होता था और तीसरे को लेख। रोज़ एक संपादकीय स्वयं प्रभाष जोशी लिखते थे और मुख्य लेख भी उनका ही रहता था। इन तीनों के समकक्ष ही तब मंगलेश डबराल थे और सप्ताह में एक लेख उनका भी अनिवार्य तौर पर रहता।
प्रभाष जी समेत ये चारों लोग लिक्खाड़ थे। पर भाषा के मामले में मंगलेशजी का जोड़ नहीं था। चूँकि वे मूल रूप से कवि थे इसलिए उनका गद्य इतना ललित और प्रवाहमान होता कि उसे समझने में कभी किसी को कोई दिक़्क़त नहीं होती।
वैचारिक प्रतिबद्धता के धनी
मंगलेशजी अपने विचार के मामले में स्पष्ट थे। और वे अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ ऐसा अद्भुत लेख लिख देते कि मैं उनके पास दौड़ कर जाता और कहता मंगलेशजी आप ही रोज़ लिखा करें। इससे अपने पाठकों को जनसत्ता के सरोकारों को जानने में कभी परेशानी नहीं होगी।
पामेला बोर्डेस पर उनका लेख तो ऐसी ममता जगाता कि पूरा हरियाणा उनका मुरीद बन गया। मंगलेशजी वामपंथी थे और सदैव जन सरोकारी नीतियों व आम लोगों के दुःख-दर्द से जुड़े रहे। उनके साथ मैं बड़ी सहजता महसूस करता। उनके जाने से ऐसी आकुलता महसूस कर रहा हूँ, जैसे एक ऐसा शख़्स चला गया हो जिसका रोज़ दिख जाना दिनचर्या का हिस्सा हो।
कितना कुछ लिखवाया उन्होंने। अमृत प्रभात से लेकर सहारा तक। रविवारी जनसत्ता में कवर स्टोरी से लेकर बुक रिव्यू तक।
वर्ष 2002 में मैंने जनसत्ता छोड़ा। मैं उस समय इसके कोलकाता संस्करण का संपादक था। मैंने मंगलेशजी से राय ली तो वे बोले ठीक किया शंभू जी, अब जनसत्ता में रहने का कोई अर्थ नहीं। जब अमर उजाला के कई संस्करणों का संपादक रहने के बाद मैं जनसत्ता अपार्टमेंट में रहने आया तब मंगलेशजी भी वहीं रहने आ गए। वे रोज़ मिलते और ख़ूब बातें होतीं।
पिछले दिनों जब मंगलेश जी को बुख़ार आया तो उन्होंने फ़ेसबुक पर इसकी जानकारी दी। फ़ौरन मैंने उन्हें फ़ोन कर आग्रह किया कि ग़ाज़ियाबाद के डीएम से बात कर मैं आपकी जाँच किसी सरकारी अस्पताल में करवा देता हूँ पर उनका कहना था कि उन्होंने वसुंधरा के एक अस्पताल से जाँच करवा ली है। मैं निश्चिंत हो गया।
इसके दो दिन बाद पता चला कि वे कोरोना पॉज़िटिव हैं और अस्पताल में भर्ती कराये गए हैं। इसके बाद वे एम्स में ले जाए गए। इसी बीच एक पारिवारिक शादी में भाग लेने के लिए मैं कानपुर आ गया। यहीं टीवी से पता चला कि मंगलेशजी नहीं रहे। मैं सन्न रह गया। अभी तो मंगलेशजी की कोई ख़ास उम्र नहीं थी। वे 72 साल के ही तो थे। पर क्रूर काल के आगे किसकी चली है। इस महान कवि और लेखक-पत्रकार को सादर श्रद्धांजलि!
(वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल की फ़ेसबुक वॉल से साभार)
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