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छात्र राजनीति में सक्रिय रहे जेटली आपातकाल में गए थे जेल

अरुण जेटली की राजनीति भले ही लुटियंस के गलियारों में चमकी थी, लेकिन इससे पहले उनका राजनीतिक अनुभव छात्र राजनीति तक ही सीमित था। जेटली जब दिल्ली के श्रीराम कॉलेज में पढ़ते थे तो देश में जय प्रकाश नारायण के आंदोलन की धमक बढ़ती जा रही थी। देश के अन्य महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों की तरह दिल्ली यूनिवर्सिटी और इसके महाविद्यालयों में भी जब यह आंदोलन बढ़ने लगा तो जेटली भी उसमें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के माध्यम से शामिल हुए। इस दौरान जेटली दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष थे और आंदोलन के दौरान ही आपातकाल में उनकी गिरफ़्तारी भी हुई और वह क़रीब 19 महीने तक तिहाड़ जेल में रहे थे। 

तिहाड़ में काटे अपने वक़्त को जेटली बहुत गर्व के साथ याद करते थे। 2010 में ‘आउटलुक’ पत्रिका में एक लेख में उन्होंने लिखा, ‘मैं किचन का इंचार्ज था, नाश्ते में परांठे बनाने के लिए मैंने कुछ क़ैदियों को ढूंढ लिया था और जेल वार्डन, जो एक भले इंसान थे, से हमने मीट बनाने की इजाज़त ले ली थी जिसके फलस्वरूप रात के खाने में हमें रोगन जोश मिलता था, हम जेल से मोटे-ताज़े होकर बाहर निकले।’ एक अन्य लेख में जेटली ने लिखा, ‘हम नौजवानों के लिए जिनके ऊपर परिवार को संभालने की ज़िम्मेदारी नहीं थी, जेल असल में किसी कॉलेज या स्कूल का लंबा कैंप बन गया था।’
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जेल में हुई राजनीतिक दीक्षा

जेल में जेटली की राजनीतिक दीक्षा जारी रही। पहले से परिचित संघ के कार्यकर्ताओं, एबीवीपी के सदस्यों और देश भर से आए समाजवादियों से उन्होंने घनिष्ठता बढ़ाई। इस दौरान वह प्रमुख विपक्षी नेताओं जैसे - अटल बिहारी वाजपेयी, एल.के. अडवाणी, के.आर. मलकानी और नानाजी देशमुख से भी मिले थे। उनकी राजनीतिक दीक्षा कैंपस में नहीं, जेल में हुई थी। संघ के लिए वह अब बाहरी व्यक्ति नहीं रहे थे। जेल से बाहर आकर शायद उन्हें इस बात का ज्ञान हुआ कि अब राजनीति ही उनका भविष्य है।
जनवरी 1977 में जब जेटली तिहाड़ जेल से बाहर आए तो वह विपक्षी राजनीति का सबसे प्रमुख छात्र चेहरा थे। बाहर निकलने के बाद उन्हें एबीवीपी का राष्ट्रीय सचिव बना दिया गया था।
मार्च में जब आपातकाल ख़त्म हुआ और आम चुनावों की घोषणा हुई तो जेटली का नाम भी नवगठित जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल था। उन्होंने 1979 में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता गिरधारी लाल डोगरा की बेटी संगीता से शादी की और तब तक राजनीतिक हलकों में जेटली का शीर्ष नेताओं के साथ अच्छा-ख़ासा नेटवर्क बन गया था। वाजपेयी और आडवाणी दोनों उनकी शादी में आए, यहाँ तक कि ख़ुद इंदिरा गाँधी भी इसमें शामिल होने वालों में से थीं। 
अपने पेशे और अदालतों के अनुभव के कारण, जेटली अगले कुछ सालों में भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं के क़रीबी बन गए, जिसमें वह 1980 में उसके गठन के साथ ही शामिल हो गए थे।

जब वाजपेयी ने की थी तारीफ़

वाजपेयी बीजेपी के पहले अध्यक्ष बने। 1985 के आम चुनावों में बीजेपी की बुरी तरह से पराजय के बाद, वाजपेयी ने ‘इंडिया टुडे’ से कहा था, ‘चुनाव के नतीजों ने हमें पुनर्विचार करने का मौक़ा दिया है। नए चेहरों को सामने लाने की आवश्यकता है। हमारे पास मुम्बई के प्रमोद महाजन और दिल्ली के अरुण जेटली जैसे प्रतिभाशाली नौजवान मौजूद हैं।’ कुछ समय बाद लहर कांग्रेस के ख़िलाफ़ बहने लगी जब ख़ुलासा हुआ कि स्वीडन की हथियार बनाने वाली कंपनी ने कथित तौर पर भारत सरकार के साथ 1.3 बिलियन डॉलर का क़रार करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को कथित तौर पर रिश्वत खिलाई थी। उसी गर्मियों में जब फेयरफैक्स की जाँच जारी थी और बोफोर्स घोटाला ख़बरों में छाया हुआ था, जेठमलानी इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर अपने लेखों के ज़रिए राजीव गाँधी को निशाने पर लेकर सवालों की झड़ी लगाए हुए थे। नलिनी गेरा की 2009 की किताब ‘राम जेठमलानी: एन ऑथोराइज़्ड बायोग्राफ़ी’ के मुताबिक़, इसमें उनकी मदद गुरुमूर्ति, अरुण शौरी और बीजेपी के कई सदस्य ख़ासकर, अरुण जेटली कर रहे थे।’ जेटली कोर्ट रूम के बाहर भी अपनी भूमिका निभा रहे थे। 

दिसंबर 1989 में बोफ़ोर्स घोटाले की लहर पर सवार होकर वी.पी. सिंह, जनता दल के नेतृत्व में बीजेपी-समर्थित नेशनल फ्रंट सरकार के प्रधानमंत्री बन गए। ‘इंडिया टुडे’ ने बीजेपी की सीट तालिका में नाटकीय इजाफ़े का कुछ श्रेय जेटली को दिया। बीजेपी 1984 में दो सीटों से 1989 में 86 सीटों का आँकड़ा छू चुकी थी। इंडिया टुडे ने लिखा, ‘पूर्व छात्र नेता ने पैसों का इंतज़ाम किया और बीजेपी के प्रचार अभियान की कमान संभाली।’ 
जेटली के कॉलेज के दोस्त प्रभु चावला तब तक इस पत्रिका में वरिष्ठ संपादक बन चुके थे। वी. पी. सिंह ने बोफ़ोर्स मामले में मदद का बदला सैंतीस वर्षीय जेटली को अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल बनाकर दिया। जेटली जैसे वकीलों की सेवाओं के चलते प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह से अपेक्षा की जा रही थी कि वह बोफोर्स के आरोपों की जाँच को अंजाम तक पहुचाएँगे। 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद उथल-पुथल वाले वर्षों में जनता दल और बीजेपी में बने मुश्किल गठबंधन में दरारें पड़ गईं।

जेटली और आडवाणी

सितंबर 1990 में आडवाणी ने जब अयोध्या की रथयात्रा शुरू की तो जेटली ने उनकी दैनिक प्रेस ब्रीफ़िंग के लिए प्रभावशाली नोट्स तैयार किए।’ बाद में जब देश भर में साप्रदायिक दंगे भड़के तो जेटली ने वी.पी. सिंह पर विहिप की माँगें मान लेने के लिए दबाव बनाना शुरू किया। आडवाणी की आत्मकथा ‘माय कंट्री माय लाइफ़’ के अनुसार, जेटली और गुरुमूर्ति, सरकार और विहिप के बीच की कड़ी थे। उनकी लंबी बातचीत सिंह के साथ होती थी।
रामजन्म भूमि आंदोलन को विवादित ज़मीन का टुकड़ा दिए जाने को लेकर वह अध्यादेश का प्रारूप बनाने में सरकार की मदद कर रहे थे। इस गतिरोध के दौरान आडवाणी ने लिखा, ‘गुरुमूर्ति और जेटली के बिना ढेर सारी बेकार जानकारियों से असली तत्व निकाल पाना आसान नहीं था।’ 
इसके बाद जेटली 1991 के आम चुनावों में आडवाणी के प्रचार अभियान के प्रबंधकों में शामिल हो गए। 1993 में बाबरी मसजिद ढहने के बाद सीबीआई द्वारा बीजेपी नेताओं के ख़िलाफ़ दायर केसों में वह उनके वकील बने। नब्बे के दशक के आख़िरी सालों में जेटली ने हवाला घोटाले के आरोप के मामले में भी आडवाणी का बचाव किया।

प्रवक्ता और मंत्री बने जेटली

1999 के चुनावों से थोड़ा पहले आडवाणी ने उन्हें पार्टी प्रवक्ता का पद सौंप दिया, जिस कारण उसी साल अक्टूबर में जब बीजेपी के नेतृत्व वाला नेशनल डेमोक्रेटिक अलायन्स सत्ता में आया तो उन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्री बना दिया गया। कहा जाता है कि जेटली को मंत्री बनवाने में नुस्ली वाडिया ने ‘बहुत सकारात्मक, मज़बूत और सहायक भूमिका अदा की थी।’ तब तक यह साफ़ हो चुका था कि पार्टी को एक ऐसे मंत्री की ज़रूरत थी जो बोलने में माहिर हो और जिसके पत्रकारों से अच्छे संबंध हों। इसमें जेटली फ़िट बैठते थे। प्रवक्ता और सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनने के बाद जेटली ने कभी मुड़कर पीछे नहीं देखा।
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क़मर वहीद नक़वी

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