अफ़ग़ानिस्तान के लगातार बिगड़ते सुरक्षा हालात और आतंकवादी क़रार दिये गए तालिबान के साथ शांति वार्ता करने की अमेरिका की शर्मनाक कोशिशों पर गहरे सवाल उठाए जाने लगे हैं। इसके साथ ही भारतीय राजनयिक हलकों में अपने सामरिक हितों को बचाने को लेकर शंकाएं भी बढ़ गई हैं।
गत आठ सितम्बर को जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा कैम्प डेविड में बुलाई गई गोपनीय शांति वार्ता को भंग करने का ऐलान किया गया तो भारतीय सामरिक हलकों में कुछ राहत महसूस की गई लेकिन भारत की सबसे बड़ी चिंता अमेरिका और नाटो देशों द्वारा अपने सैनिकों की वापसी के बाद वहां उनके द्वारा छोड़े गए हथियारों को लेकर पैदा हो रही है।
तालिबान अमेरिका की कमजोरी समझ चुका है इसलिये उसे पूरा भरोसा है कि जल्द ही अमेरिकी हथियार भंडार पर उसका कब्जा होगा और काबुल के किले पर इस्लामी अमीरात ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान का झंडा लहराएगा।
शंका है कि ये हथियार तालिबान के अलावा इसमें भर्ती पाकिस्तानी जेहादियों के हाथ भी लग सकते हैं। अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के फिलहाल 14 हज़ार और नाटो देशों के 17 हज़ार सैनिक मौजूद हैं। अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल और कंधार के अलावा देश के कुछ अन्य शहरों में भी अपने सैनिकों के सुरक्षित निवास के लिये बड़ी सैन्य छावनियाँ बना ली थीं जहाँ अमेरिकी सेनाओं के कई अत्याधुनिक हथियारों का भंडार है।
हो सकता है आतंकी हमला
माना जा रहा है कि अमेरिका जब अपने सैनिकों को वापस बुला लेगा तब वे अपने हथियारों को साथ नहीं ले जा सकेंगे क्योंकि इसके लिये उन्हें अपने मालवाहक ट्रकों के द्वारा पाकिस्तान से होकर ज़मीनी रास्ते से कराची समुद्र तट तक पहुंचना होगा। इस रास्ते पर अमेरिकी सैनिकों का जब हथियारों के साथ वापसी का सिलसिला बनेगा तब उन पर आतंकवादी हमले हो सकते हैं ताकि अमेरिकी सैनिक अपने हथियारों के साथ लौटे ही नहीं और अपने सभी हथियार वहीं छोड़ कर चले जाएं।यही वजह है कि काबुल का क़िला फतह करने के बाद तालिबान जब स्थिर तरीक़े से सरकार चलाने लगेगा तब इस्लामी साम्राज्य के विस्तार के लिये पाकिस्तान उसे उकसाने का काम करेगा। पाकिस्तान भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर को लेकर उठाए गए कदम से जिस तरह तिलमिलाया हुआ है, ऐसे में वह तालिबान की मदद से भारत से अपना हिसाब चुकता करना चाहेगा।
तालिबान की कोशिश न केवल मध्य एशिया के देशों में अपने पांव पसारने की होगी बल्कि वह दक्षिण एशिया में भी इस्लामी प्रभाव का विस्तार करना चाहेगा।
क्या तालिबान के साथ कोई सुलह नहीं होना कोई सुलह हो जाने से बेहतर साबित होगा? वर्तमान की सामरिक सच्चाई के आगे घुटने टेकते हुए भारत ने भी तालिबान के साथ सम्पर्क बनाने की कोशिश की है चूंकि तालिबान पाकिस्तान के इशारे पर ही चलता है इसलिये वह सत्ता संभालने के बाद भारत को शर्मिंदा और बेइज्जत करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेगा।
ऐसे में जब अमेरिका और इसके साथी नाटो देश अपने सैनिक साज-सामान अफ़ग़ानिस्तान में ही छोड़ने को मजबूर होंगे और वहाँ से अपने देश के लिये कूच कर जाएंगे तब उन हथियारों को लेकर तालिबान के लड़ाकों और पाकिस्तान के जेहादी तत्वों के बीच छीनाझपटी भी मच सकती है।
अफ़ग़ानिस्तान में हज़ारों अमेरिकी सैनिक वाहनों के अलावा सैकड़ों टैंक, तोपें, बख्तरबंद वाहन और तरह-तरह की हज़ारों असाल्ट राइफ़लें भी पीछे रह जायेंगी। इन हथियारों पर तालिबान के अलावा पाकिस्तान भी अपना कब्जा जमाना चाहेगा।
सबसे बड़ी चिंता की बात तो यह है कि तालिबान के पाकिस्तान में मौजूद साथी आतंकवादी तंजीमों के लोगों के सामने कोई और बड़ा उद्देश्य हासिल करने का लक्ष्य भी सामने आ सकता है। तालिबान और उसकी मिलिशिया में शामिल लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मुहम्मद, लश्कर-ए-झांगवी जैसे आतंकवादी संगठनों के हजारों जेहादियों के लिये अफ़ग़ानिस्तान के बाद अगला मुक़ाम जम्मू-कश्मीर ही होगा।
तालिबान को इस बात का अहसास हो चुका है कि अमेरिका अपनी सेना को अफ़ग़ानिस्तान से किसी भी क़ीमत पर वापस लाने को आतुर है इसलिये वह इंतजार करो और देखो की नीति पर चलते हुए अमेरिका को शांति वार्ता में इतना उलझा देना चाहता है कि अमेरिकी लोग अमेरिकी सैनिकों के लौटते ताबूतों को बर्दाश्त नहीं कर सकें और परेशान होकर आनन-फानन में काबुल छोड़कर स्वदेश रवाना हो जाएं।
जैसे-जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव नजदीक आने लगा है, अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप पर अफ़ग़ानिस्तान से अपनी फ़ौज जल्द से जल्द हटाने का फ़ैसला करने का दबाव बढ़ता जा रहा है।
तालिबान की कोशिश है कि अमेरिकी सेनाएं किसी भी तरह अफ़ग़ानिस्तान छोड़ कर चली जाएं तब उसका अफ़ग़ानिस्तान पर एक बार फिर निरंकुश शासन करना आसान हो जाएगा। इसके बाद ही तालिबान का शासक अपना सामरिक विस्तार करने की रणनीति पर काम करेगा। इसके मद्देनजर भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर को लेकर उठाये गये क़दम का औचित्य समझा जा सकता है।
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