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अयोध्या विवाद को क्यों जिंदा रखना चाहता है मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड?

ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने अयोध्या विवाद पर आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर पुनर्विचार याचिका दाख़िल करने का फ़ैसला किया है। बोर्ड ने लखनऊ में रविवार को हुई अपनी कार्यसमिति की बैठक में यह फ़ैसला किया है। हालांकि बोर्ड की 51 सदस्य कार्यसमिति में क़रीब 40 सदस्यों ने हिस्सा लिया। उनमें से भी कई सदस्य पुनर्विचार याचिका दाख़िल करने के ख़िलाफ़ थे लेकिन इनकी आवाज़ नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ बन कर रह गई। बैठक में सिर्फ़ उन्हीं की चली जो अयोध्या मुद्दे को ज़िदा रखना चाहते हैं और इसके लिए पहले से ही पुनर्विचार याचिका दाख़िल करने के हक़ में थे।

अयोध्या विवाद पर 9 नवंबर को आए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को मुसलिम समाज की तरफ से विवाद निपटारे की दिशा में एक महत्वपूर्ण क़दम माना गया था। इसीलिए समाज की तरफ से कोई उकसावे वाली प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। लेकिन पुनर्विचार याचिका दाख़िल करने के ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के फ़ैसले से बोर्ड की मंशा पर सवाल उठ रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर बोर्ड अयोध्या विवाद को ज़िंदा क्यों रखना चाहता है। 

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मुसलिम समाज में बोर्ड के इस फ़ैसले के बाद यह सवाल भी उठ रहा है कि जैसे अयोध्या का मुद्दा आरएसएस के लिए मंदिर बनवाने से ज़्यादा 'हिंदू स्वाभिमान' और भारत को 'हिंदू राष्ट्र' बनाने के मक़सद को हासिल करने के लिए एक ज़रिया मात्र है, क्या उसी तरह बोर्ड भी अयोध्या मुद्दे को जिंदा रखकर किसी बड़े मक़सद को हासिल करना चाहता है? अगर ऐसा है तो फिर यह मक़सद क्या हो सकता है? इस तरह के तमाम सवाल मुसलमानों के ज़ेहन में उठ रहे हैं।

सबसे अहम सवाल यह है कि बोर्ड पुनर्विचार याचिका के ज़रिए ही अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में दुबारा क्यों सुनवाई चाहता है। इसके लिए उसने सेकेंड पिटीशन यानी दूसरी अपील करने का फ़ैसला क्यों नहीं किया। यहां दोनों के बीच फ़र्क़ बता देते हैं। पुनर्विचार याचिका को वही बेंच दोबारा सुनती है जो पहले मामले में फ़ैसला सुना चुकी है। यहां ग़ौरतलब है कि अयोध्या विवाद की सुनवाई करने वाली बेंच के मुखिया रहे पूर्व चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया (सीजेआई) रंजन गोगोई रिटायर हो चुके हैं। नए सीजेआई शरद अरविंद बोबडे भी सिर्फ़ अगले डेढ़ साल ही इस ओहदे पर रहेंगे। पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई में काफी वक्त लग सकता है लिहाज़ा इतने कम समय में पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई और फ़ैसला संभव नहीं है। 

अभी तक के रिकॉर्ड के मुताबिक़, काफ़ी कम संख्या में पुनर्विचार याचिका सुनवाई के लिए मंजूर होती हैं और हज़ार में किसी एक मामले में फ़ैसला पलटने की संभावना रहती है। इसे देखते हुए क़ानूनी मामलों के जानकारों को तो छोड़िए क़ानून की मामूली समझ रखने वाले मुसलमान भी बोर्ड के इस फ़ैसले से हैरान हैं। 

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बाबरी मसजिद के चारों तरफ़ खुदाई करने वाले पुरातत्ववेत्ता के. के. मोहम्मद ने रविवार को ही बाकायदा बयान जारी करके कह दिया कि बोर्ड को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ पुनर्विचार याचिका दाख़िल करने से कुछ हासिल नहीं होगा। बता दें कि केके मोहम्मद ने बाक़ायदा किताब लिखकर इस बात की पुष्टि की है कि बाबरी मसजिद के आसपास हुई खुदाई में मंदिर के अवशेष मिले हैं जिससे यह बात साबित होती है कि वहां कभी कोई मंदिर रहा होगा।

दूसरी अपील से ज़्यादा फ़ायदा! 

क़ानून के जानकारों का मानना है कि अगर बोर्ड पुनर्विचार याचिका की जगह इस मामले में सुनवाई के लिए दूसरी अपील दायर करे तो उससे फ़ायदा हो सकता है। पहला फ़ायदा यही हो सकता है कि 5 बेंच के इस फ़ैसले को दोबारा सुनने के लिए 7 जजों की बेंच बनाई जा सकती है। उससे इंसाफ़ की ज़्यादा उम्मीद की जा सकती है। सेकेंड अपील के फ़ैसले के बाद स्पेशल लीव पिटिशन का रास्ता बचेगा। उसके बाद भी पुनर्विचार याचिका का विकल्प खुला रहेगा। यह सब संवैधानिक व्यवस्था और प्रक्रिया का हिस्सा है। इससे विवाद को और 10-20 साल तक लटकाने में तो मदद मिल सकती है, उसे सुलझाने में नहीं। 

पुनर्विचार याचिका दायर करने जा रहे पक्षकारों और बोर्ड का तर्क है कि अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया है, इंसाफ़ नहीं किया। इसलिए इंसाफ़ मांगने के लिए वे फिर से कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे हैं।

पुनर्विचार याचिका दाख़िल करना वैसे तो पक्षकारों का संवैधानिक अधिकार है और इस अधिकार को उनसे कोई नहीं छीन सकता। लेकिन अधिकारों के इस्तेमाल से पहले ज़मीनी हक़ीक़त को भी समझ लेना चाहिए। देशभर के मुसलमानों की तरफ से बाबरी मसजिद का मुक़दमा दोबारा लड़ने वालों को मुसलिम समाज की मन: स्थिति भी समझनी चाहिए। 

आज मुसलिम समाज का बड़ा हिस्सा अयोध्या विवाद को यहीं दफन करके आगे बढ़ना चाहता है। यह बात इससे भी साबित होती है कि सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद 10 दिन बाद तक कहीं से कोई उकसावे वाली कार्रवाई समाज की तरफ से नहीं हुई है।
इस क़ानूनी प्रक्रिया में बहुत ज़्यादा वक्त लगेगा। तब तक कई सरकारें बदल सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसला करने का मिज़ाज भी बदल सकता है। यह भी मुमकिन है कि फ़ैसला मुसलमानों के पक्ष में आ जाए लेकिन क्या उस सूरत में विवादित ज़मीन पर मसजिद दोबारा बनाई जा सकेगी? यह लाख नहीं बल्कि करोड़ टके से भी ज़्यादा बड़ा सवाल है। इसका जवाब पहले से तय है कि न मौजूदा हालात में राम लला की मूर्तियों को हटाकर विवादित ज़मीन पर मसजिद बनाना संभव है और न ही भविष्य में ऐसा कर पाना मुमकिन है। 
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जब पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुए उनके लिखित आदेश और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत की कोशिशों के बावजूद मंदिर के अंदर रखी गईं मूर्तियां नहीं हटाई जा सकी थीं तो भला आज 70 साल बाद या और 20 साल बाद उन्हें हटाया जाना कैसे मुमकिन है? 

अगर अयोध्या की विवादित ज़मीन पर मसजिद को दुबारा बनाया जाना संभव ही नहीं है तो फिर ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाख़िल करके आख़िर हासिल क्या करना चाहता है?
बोर्ड का यह क़दम मुसलिम समाज को आबादी में अपने से कई कई गुना बड़े हिंदू समाज के साथ एक अंतहीन मज़हबी लड़ाई में झोंकने की कोशिश है। इससे मुसलिम समाज को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इससे उलटे हिंदू-मुसलिम समाज के बीच पहले से चली आ रही खाई और चौड़ी होगी जिसे भविष्य में पाट पाना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। फिलहाल तो यही दुआ की जा सकती है कि ऊपर वाला बोर्ड के सदस्यों को सद्बुद्धि दे कि वे टकराव का रास्ता छोड़कर विवाद के पटाक्षेप की तरफ बढ़ें।
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यूसुफ़ अंसारी

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