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'माबदौलत' मरने नहीं देंगे, 'सलीम' ग़रीब को जीने नहीं देगा 

सरकार ने साफ़ किया है कि पूँजी के औचित्यपूर्ण पुनर्वितरण से उसे कोई गुरेज नहीं है लेकिन यह तभी संभव है जब अर्थव्यवस्था का आकर बढ़े यानी जीडीपी बढ़े। सरकार यह तर्क देते हुए भूल गयी कि भारत जीडीपी के पैमाने पर पिछले कुछ दशकों में 25 वें स्थान से पाँचवें स्थान पर आ गया, लेकिन मानव विकास सूचकांक में इन 30 वर्षों में दुनिया में 130 और 135 के बीच ही लटका रहा।
एन.के. सिंह

जहाँ अधिकांश जाने-माने अर्थशास्त्री चीख-चीख कर कह रहे हैं कि बढ़ती आर्थिक असमानता जो कोरोना के कारण एक बड़ी खाई बन गयी है, न रोकी गयी तो अगले 10 साल में ग़रीबी भयंकर रूप से बढेगी। लेकिन मोदी सरकार इससे उलट राय रखती है। उसके अनुसार असमानता और ग़रीबी का कोई अपरिहार्य समानुपातिक रिश्ता नहीं है। बल्कि सरकार की सोच के अनुसार कई बार असमानता बढ़ने से ग़रीबी कम होने के लक्षण भी दिखाई देते हैं यानी असमानता ग़रीबी कम करने में लुब्रिकेंट का काम करती है।    

लिहाज़ा अगर आप यह जानना चाहते हैं कि तमाम राजस्व संकट, मुँह बाये खड़ी स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे मूलभूत ज़रूरतों सहित विकास के लिए पैसों की किल्लत और दर्जनों बड़े अर्थशास्त्रियों की सलाह के बावजूद मोदी सरकार ने इस वर्ष के बजट में 'सुपर रिच' (अति-धनाढ्य) पर कोविड सेस या सरचार्ज क्यों नहीं लगाया या ऊपरी आयकर स्लैब में आने वालों का टैक्स दर क्यों नहीं बढ़ाया, तो आपको बजट प्रस्तुत करने के तीन दिन पूर्व संसद में प्रस्तुत किये गए आर्थिक सर्वेक्षण खंड-१ के 'असमानता और विकास: संघर्ष और अभिसरण (मिलाप)' शीर्षक अध्याय चार को पढ़ना होगा।

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असमानता

तर्कशास्त्र के मशहूर तर्क-दोष 'चुनिन्दा तथ्यों' (यहाँ शोधकर्ताओं की रिपोर्ट्स) के सहारे अपने मुताबिक़ निष्कर्ष हासिल करना) का इस्तेमाल करते हुए सरकार ने यह साबित करने की कोशिश की है कि असमानता और ग़रीबी में कोई अपरिहार्य समानुपातिक सम्बन्ध नहीं होता बल्कि कई बार सीमित असमानता गरीबी उन्मूलन की रफ़्तार तेज करती है। इस अध्याय में यह भी दलील है कि सरकार को अर्थव्यवस्था की साइज़ बढाने और ग़रीबों की बुनियादी ज़रूरतों को मुहैय्या कराने को वरीयता देनी चाहिए, न कि पूँजी के औचित्यपूर्ण वितरण को। 

और सरकार की ऐसी सोच का यह आलम तब है जब उसी दौरान ऑक्सफैम ने बढ़ती असमानता की गंभीरता पर अपनी रिपोर्ट जारी की। 

कोरोना काल में जहाँ एक ओर देश के क़रीब 12 करोड़ लोग रोज़ी से महरूम हुए थे, वहीं देश के सबसे बड़े उद्योगपति अम्बानी की संपत्ति हर घंटे 90 करोड़ रुपये की दर से बढ़ रही थी जबकि लॉकडाउन में उत्पादन ठप था।

ऑक्सफ़ैम रिपोर्ट

ऑक्सफैम रिपोर्ट के अनुसार, इस दौरान अम्बानी की संपत्ति दूनी हो गयी और वह दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों की लिस्ट में 21वें स्थान से कूद कर छठें पर पहुँच गए। 

दुनिया में कोरोना से जो लोग ग़रीबी की गर्त में गिरे उनमें आधे से ज़्यादा भारत के हैं। रिपोर्ट ने विश्व मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक को उद्धृत करते हुए  कहा “कोरोना-उत्तर असमानता का दूरगामी और ख़तरनाक प्रभाव दशकों तक नीचे के तबके पर दिखेगा जो सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल का आगाज करेगा।"

साथ ही ऑक्सफैम के अनुसार अगर दुनिया के देश इस बढ़ती असमानता (जिन्नी कोफिसेंट के अनुसार) को दो प्रतिशत पॉइंट कम कर सकें तो गरीबों की संख्या एक दशक में आशातीत रूप से कम होगी। लेकिन अगर यह दो प्रतिशत पॉइंट बढ़ता है तो 100 करोड़ अतिरिक्त लोग ग़रीबी की गर्त में गिर जायेंगें।

इसके अनुसार भारत में असमानता आजादी के बाद कम हुई, लेकिन पिछले कुछ दशकों से बढ़ते हुए यह फिर से औपनिवेशिक काल की असमानता के बराबर हो गयी है। दोनों विश्व युद्धों के पहले अमीर देशों में यह असमानता अपनी चरम पर थी यानी इतिहास गवाह है कि जब-जब असमानता सीमा पार की तो अशांति बढीं।    

सरकार का तर्क          

हालांकि आर्थिक सर्वेक्षण के अध्याय चार की विषय-परिचय में सरकार ने साफ़ किया है कि पूँजी के औचित्यपूर्ण पुनर्वितरण से उसे कोई गुरेज नहीं है लेकिन यह तभी संभव है जब अर्थव्यवस्था का आकर बढे यानी जीडीपी बढे। 

सरकार यह तर्क देते हुए भूल गयी कि भारत जीडीपी के पैमाने पर पिछले कुछ दशकों में 25 वें स्थान से पाँचवें स्थान पर आ गया, लेकिन मानव विकास सूचकांक में इन 30 वर्षों में दुनिया में 130 और 135 के बीच ही लटका रहा।

मानव विकास सूचकांक

तमाम स्कैडेनेवियन देश मानव विकास सूचकांक पर शीर्ष पर हैं जबकि भारत के मुकाबले उनका जीडीपी उसी अनुपात में नहीं बढ़ा है। सरकार ने ईमानदारी से 'विलकिंसन और पिकेट' और 'एटकिन्सन और पिकेटी' के शोध निष्कर्षों को उद्धृत करते हुए कहा कि इनके अनुसार बढ़ती असमानता गंभीर सामाजिक-आर्थिक परिणामों को जन्म देती है और जीडीपी (इकनोमिक पाई) के बढ़ने से ग़रीबी कम करने का कोई सम्बन्ध नहीं है।

दोनों विश्व युद्धों के पूर्व संपन्न अमेरिका और यूरोप में असमानता अपनी चरम पर थी। लेकिन इसके बाद आर्थिक सर्वे मानता है कि उपरोक्त अवधारणा भारत जैसे विकासशील देश के लिए सही नहीं होगी। 

सरकार की इस रिपोर्ट ने अपनी बात ठहराने के लिए ग़रीबी को भी दो किस्मों में बाँटा है- निरपेक्ष ग़रीबी और सापेक्ष  ग़रीबी। सरकार का मानना है कि अम्बानी (याने कॉरपोरेट घरानों) पर टैक्स लगाकर उस पैसे से ग़रीबों की स्थिति बेहतर करने की जगह सरकार को विकास के पहले दौर में ग़रीबों की निरपेक्ष ग़रीबी जैसे मौलिक सुविधाओं का अभाव ख़त्म करना होगा। उसके अनुसार सापेक्ष गरीबी (जो शुद्ध रूप से असामनता-जनित होती है) तो अमेरिका में भी है। 

'असमानता वायरस, 2020'

ऑक्सफैम की इस 'असमानता वायरस, 2020' शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार इस कोरोना काल में अमेरिका, चीन, जर्मनी, रूस और फ़्रांस के बाद भारत में असमानता सबसे ज़्यादा बढ़ी है।

लॉकडाउन के दौरान भारत के 100 अरबपतियों की संपत्ति 35 प्रतिशत बढ़ गयी या यूं कहें कि इस बढ़ी संपत्ति से ये 100 कॉर्पोरेट घराने देश के कुल 13.8 करोड़ सर्वाधिक गरीब लोगों में से हर एक को 9,8045 रुपये का चेक दे सकते थे।

अगर इस काल में बढीं इनकी 12.97 लाख करोड़ की संपत्ति पर अगर 10% का 'सुपर रिच सेस' लगता तो 1.30 लाख करोड़ की अतिरिक्त आय हो सकती थी।

सेंसेक्स बनाम ग़रीबों के आँसू

अगर 50 लाख की आय वाले वर्ग के लिए एक स्लैब बना कर उन पर पर भी पाँच प्रतिशत कोविड सरचार्ज लगता तो शायद इतनी ही राशि और आ जाती। लेकिन तब सेंसेक्स आसमान पर न भागता, ना ही कई दिन तक वहीं ठहरता। शायद मार्केट सेंटिमेंट उन करोड़ों बेरोज़गार युवाओं के आंसुओं से ज़्यादा ताक़तवर निकले। 

आने वाले इकनोमिक मॉडल में अम्बानी भी बढेंगें और ग़रीबी भी़ लेकिन सरकार पूर्व की सरकारों की तरह ही निरपेक्ष ग़रीबी यानी 'रोटी, कपड़ा और मकान' देती रहेगी जैसा आज़ादी के बाद से हर सरकार ने 'देने का वादा किया'। 

शायद सरकार को अहसास था कि यह रास्ता उसे अलोकप्रिय कर सकता है, इसलिए सर्वे के इस खंड के अंत में एक अध्याय 'मात्र मूलभूत ज़रूरियात' को समर्पित किया है और एक नया पैरामीटर 26 गुणकों के आधार पर बनाया है।

सर्वे 1989 में बनी 'मैं आज़ाद हूँ' फ़िल्म में अमिताभ बच्चन का डायलाग उद्धृत करता है “40 बरस में आप एक इंसान को एक गिलास पानी नहीं दे सके तो आप क्या कर सकते हैं”। 

शायद मोदी सरकार अब यह एक गिलास पानी देने की योजना पर काम करेगी। डर यह है कि वह गिलास भी कोई अम्बानी बनाएगा और अगर पानी शुद्ध करना है तो वाटर प्युरीफ़ायर भी कोई अडानी।

यानी मुग़लेआज़म का डायलाग बिलकुल फ़िट है कि “अगर ऐसा ना हुआ तो सलीम तुझे मरने नहीं देगा और हम, अनारकली, तुझे जीने नहीं देंगे।” 

लोकतंत्र के दौर में बस इतना ही बदला कि माबदौलत और शाहजादा सलीम का रिश्ता वही रहा, अनारकली का संकट भी उतना ही रहा, बस रोल रिवर्सल हो गया। 

बजट से आम आदमी को कितना लभ हुआ, देखें वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष की राय। 
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एन.के. सिंह

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