मेघना गुलज़ार और दीपिका पादुकोण की फ़िल्म 'छपाक' इन दिनों न केवल सिने प्रेमियों बल्कि हर आम और ख़ास के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है। यूँ तो दीपिका पादुकोण की फ़िल्मों को लेकर दर्शकों में अच्छा ख़ासा उत्साह रहता है लेकिन ‘छपाक’ के राजनीतिक विरोध के बाद आम आदमी यह फ़िल्म देखने को थियेटर तक जाने के लिए थोड़ा हिचक रहा है। मेरे कई जानने वालों ने मुझे फ़ोन कर पूछा कि भैया फ़िल्म देखने चले जाएँ? कोई बवाल तो नहीं है? अच्छा भैया ये बताओ कि एसिड फेंकने वाला फ़िल्म में हिन्दू दिखाया गया है न?
सत्ताधारियों का विरोध हो तो कोई भी व्यक्ति निश्चय ही सौ बार सोचेगा और डरते-डरते पहुँचेगा। हालाँकि जब मैं ‘छपाक’ देखने मेरठ के शॉपरिक्स मॉल पहुँचा तो शो हाउसफ़ुल था। शहर के कई जानकार बुद्धिजीवी, वकील, डॉक्टर और राजनीतिक दलों से जुड़े लोग दिखाई दिए। इन्हीं के बीच राष्ट्रीय लोकदल के उत्तराधिकारी जयंत चौधरी भी अपनी पत्नी के साथ थे और उनकी पार्टी के कुछ लोग भी थे।
यह अब सभी जानते हैं कि ‘छपाक’ किन कारणों से चर्चा में आई। जेएनयू प्रकरण के बाद दीपिका के जेएनयू कैंपस में छात्र-छात्राओं के बीच पहुँचने पर उन्हें टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य घोषित कर दिया गया। उनकी बेहूदा तरीक़े से आलोचना होने लगी। उनकी ट्रोलिंग होने लगी। ट्विटर पर ‘छपाक’ के बॉयकॉट के ट्रेंड प्रायोजित हुए जिसके बाद सपोर्ट दीपिका टाइप ट्रेंड भी चले। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर मैसेज दौड़ने लगे जिनमें अहम संदेश था कि एसिड विक्टिम लक्ष्मी अग्रवाल पर तेजाब फेंकने वाला मुसलिम था जबकि फ़िल्म में इसे हिंदू दिखाया गया है। तरह-तरह की चर्चा के बीच फ़िल्म रिलीज हुई फ़िल्म देखकर जो भी संवेदनशील व्यक्ति थियेटर के बाहर निकला, उसकी आँखें नम थीं। आपस में बतियाते लोग यही कहते दिखे कि इस फ़िल्म में तो ऐसा कुछ नहीं जैसा बताया जा रहा था। एक भी आदमी ऐसा नहीं दिखा जो फ़िल्म की बुराई करता नज़र आया हो। हाँ! फ़िल्म में दीपिका के एसिड अटैक से पहले यूनिफ़ॉर्म में स्कूल जाते दृश्यों पर कुछ युवा ज़रूर चुटकियाँ लेते नज़र आए! परिपक्व हो चुकी दीपिका को स्कूल ड्रेस में देखकर सभ्य टिप्पणी करना तो दर्शकों के अधिकार क्षेत्र में ही माना जाना चाहिए।
फ़िल्म देखने के बाद मैं यक़ीनी तौर पर कह सकता हूँ कि दीपिका पादुकोण की यह अब तक की सर्वाधिक सशक्त फ़िल्म है। दीपिका ने जो भूमिका निभाई है और उसके चेहरे का मेकअप है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि ऐसा मेकअप शिखर पर पहुँच चुकी बॉलीवुड की कोई एक्ट्रेस कुबूल नहीं करेगी। ‘छपाक’ एक फ़िल्म नहीं है बल्कि हमारे समाज की एक सच्चाई है, एक काला सच है जिसे देखकर आपकी रूह काँप उठेगी। यह फ़िल्म एक आईना है हमारे उस कथित सभ्य समाज का जिसे देखकर आप या तो घनघोर शर्मिंदा होंगे या अपने कॉलर झाँकने लगेंगे। यह फ़िल्म न केवल एसिड पीड़ितों का मनोविज्ञान, उसकी तार-तार हो चुकी ज़िंदगी बल्कि उनके प्रति सामाजिक घृणा को पूरी संजीदगी के साथ दिखाती है।
मैं तो यही कहूँगा कि अगर आप यह आईना देखना चाहते हैं या आपको एसिड का शिकार बनी किसी युवती में एक बेटी या एक स्त्री नज़र आती है तो आप इस फ़िल्म को ज़रूर देखें।
मेघना गुलज़ार ने एसिड विक्टिम या तेजाब का शिकार हुई एक पीड़िता लक्ष्मी अग्रवाल के संघर्ष से प्रेरित होकर यह फ़िल्म बनाई है। मेघना गुलज़ार को एक कसी हुई यथार्थपरक फ़िल्म बनाने के लिए हमारी सलामी-नमस्ते तो बनती ही है और उतनी ही सलामी दीपिका पादुकोण के लिए भी होनी चाहिए जिन्होंने अपनी अभिनय क्षमता की मदद से एसिड पीड़िताओं के दर्द और उनके मनोविज्ञान को उकेरा है।
झकझोरती है यह फ़िल्म
फ़िल्म में दीपिका पादुकोण, विक्रांत मेस्सी और मधु जीत सरगी ने बेहतरीन भूमिका निभाई हैं। दीपिका पादुकोण जहाँ एसिड विक्टिम हैं तो विक्रांत मेस्सी एसिड सरवाइवर्स के लिए एक एनजीओ चलाते हैं और मधुरजीत सरगी वकील की भूमिका में हैं।
फ़िल्म में कुछ दृश्य ऐसे हैं जो झकझोर कर रख देते हैं। मालती की माँ डॉक्टर की सलाह पर उसके हॉस्पिटल से घर आने के बाद घर में लगे दर्पण को अख़बार चिपकाकर ढक देती है। एक रात जब वह अकेली उठकर शीशे के सामने पहुँचकर अख़बारों को खींचती है तो अपने चेहरे को देखकर उसकी भयानक चीख निकलती है। शायद ही कोई ऐसा दर्शक हो जो इस दृश्य को देखकर विचलित न हुआ हो। दीपिका का अभिनय इस दृश्य में बेमिसाल है। यह उसके अभिनय क्षमता का कमाल है कि दर्शकों की आँखें नम हो जाती हैं या टपकने लगती हैं। ‘छपाक’ का विरोध एसिड पीड़िताओं के जख्मों पर नमक छिड़कने से कम नहीं कहा जा सकता।
लाजवाब ‘छपाक’
फ़िल्म की पटकथा, संवाद, अभिनय, ध्वनि प्रभाव और निर्देशन कई मौक़ों पर लाजवाब हैं। एक दृश्य में जब एसिड विक्टिम मालती अपनी मेकअप किट देखकर कुछ गहनों को फेंकने के लिए व्याकुल है तो अपनी माँ के टोकने पर बोलती है- नाक नहीं, कान नहीं है तो झुमके कहाँ लटकाऊँगी... यह व्यथा कथा किसी भी एसिड विक्टिम की हो सकती है। इसी तरह उसका अपने वकील से कहना- कितना अच्छा होता अगर एसिड बिकता ही नहीं। मिलता ही नहीं तो फिंकता भी नहीं... यही वह टर्निंग पॉइंट है, जहाँ से उसकी लड़ाई शुरू होती है और वह वकील की मदद से तेजाब की खुली बिक्री के लिए पीआईएल डालती है। असल ज़िंदगी में यह काम दिल्ली की तेजाब पीड़िता लक्ष्मी अग्रवाल ने किया था। ऐसे बहुत से दृश्य हैं जो इस फ़िल्म को ख़ास बनाते हैं।
फ़िल्म को देखने के बाद सिर्फ़ और सिर्फ़ यही कहा जा सकता है कि ‘छपाक’ का राजनीतिक विरोध देश की तमाम एसिड पीड़िताओं का विरोध है, जो अपना झुलसा हुआ चेहरा लेकर अपनी ज़िंदगी के अंधेरे को रोशन करने के लिए जूझ रही हैं, जिन्हें समाज से घृणा मिलती है, तिरस्कार मिलता है, जिन्हें लोग एलियंस की तरह देखते हैं और जिन पर बहुत से लोग लांछन लगाने से भी नहीं चूकते।
जयंत चौधरी से जब फ़िल्म देखने के बाद प्रतिक्रिया पूछी तो बड़ी संजीदगी से कहा कि फ़िल्म में कई ऐसे पल थे जिन्हें देखना कठिन था। फ़िल्म बहुत संजीदगी से बनी है, किरदारों ने बेमिसाल अभिनय किया है और यह समाज का कटु सत्य है। समाज की बुराइयों से हम मुँह नहीं मोड़ सकते। क्रूर मानसिकता आज हावी हो रही है और इसलिए महिलाओं पर अपराध बढ़ रहे हैं। इसके बाद वह तपाक से बोले कि हम तो टुकड़े-टुकड़े गैंग के लोग हैं लेकिन जो लोग इसका विरोध कर रहें हैं, उन्हें क्या तेजाब फेंकू गैंग में माना जाना चाहिए।
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