बीजेपी के अध्यक्ष और देश के वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह ने गत शुक्रवार को संसद में अनुच्छेद 370 का मसला फिर से उठाते हुए याद दिलाया कि देश के संविधान में इसे ‘अस्थायी’ बताया गया है और उसकी इस ‘अस्थायी’ प्रकृति को जम्मू-कश्मीर के पहले प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला की रज़ामंदी हासिल थी। गृह मंत्री ने साफ़-साफ़ यह तो नहीं कहा कि अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया जाना चाहिए जैसा कि वे चुनाव प्रचार के दौरान कह रहे थे और जो बीजेपी के घोषणा-पत्र का हिस्सा भी है, लेकिन उनकी मंशा साफ़ थी।
अमित शाह तकनीकी तौर पर सही कह रहे हैं कि कश्मीर को विशेष अधिकार देने वाला आर्टिकल यानी अनुच्छेद 370 अपने-आपमें ‘अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधान’ के तौर पर ही बनाया गया था लेकिन तमाम अदालतें, यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय तक ने हाल-हाल तक (2018) में कहा है कि आज की तारीख़ में आर्टिकल 370 स्थायी स्वरूप हासिल कर चुका है और इसे किसी भी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता।
यह बड़ी अजीब स्थिति है जहाँ केद्र सरकार का मंत्री तो कह रहा है कि अनुच्छेद 370 स्थायी नहीं है और कोर्ट कह रहा है कि स्थायी है। आख़िर दोनों के मत में इतना अंतर क्यों?
क्यों एक पक्ष कह रहा है कि अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने से कोई आसमान नहीं टूट पड़ेगा जबकि दूसरे पक्ष का मानना है कि अनुच्छेद समाप्त होते ही कश्मीर से भारत का रिश्ता ख़त्म हो जाएगा।
सारा मामला समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि
- यह अनुच्छेद 370 आख़िर है क्या?
- यह कब और किन परिस्थितियों में लाया गया था?
- तब इसे ‘अस्थायी’ क्यों बताया गया था और यह कितने समय के लिए था?
- कोर्ट अब किस आधार पर इसे स्थायी ठहरा रहे हैं?
इसके साथ ही एक और सवाल पर विचार करना होगा कि अगर आर्टिकल 370 को समाप्त कर दिया जाए तो संवैधानिक रूप से क्या स्थिति बनेगी।
सबसे पहले हम यह जानेंगे कि आर्टिकल 370 है क्या, कब यह लाया गया था और क्यों लाया गया था। हो सकता है, आपमें से कई लोगों को इसके बारे में विस्तृत जानकारी हो लेकिन जो पाठक इस मामले से अच्छी तरह से वाक़िफ़ नहीं हैं, उनके लिए यहाँ बताना उचित होगा कि इस आर्टिकल के तहत जम्मू-कश्मीर के बारे में क्या विशेष प्रावधान किए गए थे जो बाक़ी राज्यों से अलग थे।
इस अनुच्छेद के तहत भारतीय संविधान उस तरह से राज्य पर लागू नहीं होता जिस तरह वह बाक़ी राज्यों पर लागू होता था।
क़ानून बनाने के केंद्र के अधिकार सीमित थे और रक्षा, विदेश-नीति और संचार को छोड़ वह और कोई क़ानून नहीं बना सकता था जो राज्य पर स्वयमेव लागू होता हो।
केंद्र और संवैधानिक अधिकार राज्य पर लागू हो सकते थे लेकिन उसके लिए राज्य सरकार की ‘रज़ामंदी’ ज़रूरी थी। राष्ट्रपति इस रज़ामंदी के बाद तत्संबंधी आदेश जारी कर सकता था।
यह रज़ामंदी भी स्थायी नहीं थी। इसका राज्य की संविधान सभा (जो कि बाद में बननी थी) द्वारा अनुमोदन ज़रूरी था।
रज़ामंदी देने का राज्य सरकार का अधिकार केवल तब तक के लिए था जब तक कि राज्य संविधान सभा का गठन नहीं हो जाता। एक बार राज्य की संविधान सभा ने अधिकारों के बँटवारे के बारे में अंतिम फ़ैसला कर लिया और वह विसर्जित हो गई, फिर उसके बाद केंद्र और राज्य के अधिकारों में कोई फेरबदल नहीं किया जा सकता था।
केंद्र अनुच्छेद 370 को समाप्त कर सकता था लेकिन उसके लिए राज्य की संविधान सभा की मंज़ूरी अनिवार्य शर्त थी।
आगे बढ़ने से पहले मैं चाहूँगा कि आप पॉइंट नंबर 2 पर ध्यान दें जिसके अनुसार केंद्र सरकार, राज्य सरकार की मंज़ूरी के बिना, केवल तीन विषयों पर क़ानून बना सकती थी। ये तीन विषय कहाँ से आए? किसने तय किए ये तीन विषय? दरअसल ये तीन विषय उस विलय पत्र का हिस्सा थे जिसपर तब के महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को दस्तख़त किए थे। यह विलय पत्र ही वह दस्तावेज़ है जिसके तहत जम्मू-कश्मीर राज्य आज भारत का हिस्सा है वरना आज़ादी के दिन यानी 15 अगस्त 1947 को तो वह एक स्वतंत्र राज्य था।
वह स्वतंत्र राज्य था ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वतंत्रता क़ानून, 1947 के तहत जिसके अनुसार ब्रिटेन शासित भारत के (क) हिंदू-बहुल इलाक़े नवसृजित भारत में जाने थे, (ख) मुसलमान-बहुल इलाक़े नवसृजित पाकिस्तान में जाने थे और (ग) रियासतों का फ़ैसला वहाँ के शासकों को करना था। वे स्वतंत्र भी रह सकते थे और भारत या पाक के साथ विलय का फ़ैसला भी कर सकते थे।
जम्मू को स्वतंत्र क्यों रखना चाहते थे हरि सिंह?
क़रीब 500 से ज़्यादा रियासतों में से अधिकतर के शासकों ने सरकार और जनता के दबाव में भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने का फ़ैसला कर लिया लेकिन तीन रियासतों के शासक स्वतंत्र रहने पर अड़े रहे। ये तीन थे हैदराबाद के निज़ाम, जूनागढ़ के नवाब और जम्मू-कश्मीर के महाराजा। तीनों में एक जैसी स्थिति थी। शासक और प्रजा का धर्म अलग-अलग जिस कारण से फ़ैसला करना मुश्किल हो रहा था। जम्मू-कश्मीर में भी महाराजा हरि सिंह हिंदू थे और जनता का तीन-चौथाई हिस्सा मुसलमान। ऐसे में हरि सिंह ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया।
हमला हुआ तो भारत को पत्र लिखा
लेकिन जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तानी हुक़ूमत का मानना था कि जम्मू-कश्मीर को पाकिस्तान में मिल जाना चाहिए। कारण, वहाँ की बहुसंख्यक जनता मुसलमान थी और बँटवारा भी धर्म के आधार पर हुआ था। पाकिस्तान ने राज्य पर दबाव डालने के लिए व्यवधानकारी कार्रवाई शुरू कर दी। वहाँ से आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई बाधित होने लगी, उधर सीमा पर लूटपाट और क़बायलियों के हमलों की ख़बरें भी आने लगीं। पाकिस्तानी हुक्मरानों को कई-कई तार संदेश भेजने के बाद भी जब हालात बिगड़ते चले गए और अक्टूबर का अंतिम सप्ताह आते-आते राजा को लगा कि अब श्रीनगर हमलावरों के हत्थे चढ़ने वाला है तो वे 25 अक्टूबर को भागकर जम्मू आ गए। 26 अक्टूबर 1947 को उन्होंने भारतीय गवर्नर जनरल को पत्र लिखा कि वे जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत से विलय करने को तैयार हैं।
उन्होंने लिखा: ‘…इन स्थितियों में मेरे पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। ज़ाहिर है कि जब तक यह राज्य भारत में समाविष्ट नहीं होता, तब तक भारत सहायता को आगे नहीं आ सकता। अतः मैंने तदनुरूप फ़ैसला किया है और इस पत्र के साथ आपकी सरकार की स्वीकृति के लिए विलय पत्र भेज रहा हूँ।’
अगले ही दिन यानी 27 अक्टूबर को माउंटबैटन ने इस विलय पत्र को ‘सशर्त’ स्वीकार करते हुए एक जवाबी पत्र लिखा। उस पत्र में माउंटबैटन ने विलय से जुड़ी क्या शर्त रखी थी, उसके बारे में हम अगली किस्त में चर्चा करेंगे। फ़िलहाल हम यह जान लें कि विलय पत्र में उन विषयों के बारे में क्या लिखा है जिसके बारे में भारत सरकार क़ानून बना सकती है।
पत्र के परिच्छेद नंबर 3 में लिखा था - मैं इस विलय पत्र के साथ संलग्न अनुसूची में लिखित उन विषयों को स्वीकार करता हूँ जिनके संबंध में केंद्र की विधायिका क़ानून बना सकती है।
इस अनुसूची में ऊपर बताए गए तीनों विषय - रक्षा, विदेश-नीति और संचार एवं इनके पालन में सहायक अधिकारों का ज़िक्र है।
विलय पत्र: भावी संविधान मानने को बाध्य नहीं
विलय पत्र में साफ़ लिखा गया है कि यह पत्र राजा हरि सिंह को भारत के भावी संविधान को मानने के लिए किसी तरह भी बाध्य नहीं करता। साथ ही इसमें यह भी दर्ज़ है कि इस पत्र का कोई भी अंश राज्य पर महाराजा की मौजूदा संप्रभुता को प्रभावित नहीं करता, न ही यह इस विलय पत्र में लिखी गई बातों के अलावा किसी अन्य मामले में राज्य के शासक के तौर पर उसकी सत्ता, उसके प्राधिकारों और अधिकारों के पालन या राज्य में लागू क़ानूनों की वैधता पर असर डालता है।
जम्मू-कश्मीर में बाद के कुछ सालों में जो भी हुआ, जो समझौते हुए, जो अधिनियम बने, उन सबका मूल आधार यह विलय पत्र ही है। यह अलग बात है कि महाराजा की सत्ता बाद में केवल नाममात्र की रही लेकिन जो हुआ, उसका संकेत राजा ने विलय पत्र के साथ लिखी चिट्ठी में ही दे दिया था। महाराजा ने इसमें अपना स्पष्ट इरादा जताया था कि राज्य में तुरंत ही एक अंतरिम सरकार बनाई जाएगी जिसके तहत वे शेख अब्दुल्ला से अुनरोध करेंगे कि वे उनके प्रधानमंत्री के साथ मिलकर इस आपातस्थिति में राज्य की ज़िम्मेदारी सँभालें। (पूरा पत्र पढ़ें)
राज्य की स्वायत्तता
निष्कर्ष यह कि जिस विलय पत्र के आधार पर जम्मू-कश्मीर रियासत का भारत में विलय हुआ, उसी में राज्य की स्वायत्तता की बात कही गई थी और जो अनुच्छेद 370 के रूप में आज थोड़ी-बहुत ही सही, बची हुई है। लेकिन अभी कहानी ख़त्म नहीं हुई है। जम्मू-कश्मीर के विलय के साथ ही जनमतसंग्रह का मुद्दा भी जुड़ा हुआ है। यह बात कब शुरू हुई, क्यों शुरू हुई, इसमें नेहरू के साथ-साथ पटेल की भी सहमति क्यों थी, यह हम जानेंगे अगली कड़ी में।
अपनी राय बतायें