जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ विलय को पक्का करने के लिए वहाँ की मुसलिम-बहुल जनता से राय लेने का जो वादा नेहरू सरकार ने विलय पत्र को स्वीकार करते हुए किया था, उसे वह कभी भी नहीं पूरा कर पाए क्योंकि भारत और पाकिस्तान सरकार में राज्य से दोनों पक्षों की सेनाओं को हटाने और साझा प्रशासनिक नियंत्रण में रायशुमारी कराने पर रज़ामंदी नहीं हो पाई। अगर 1947-48 में जनमत संग्रह हो जाता तो नतीजा भारत में पक्ष में आने की पूरी संभावना थी क्योंकि शेख़ अब्दुल्ला जो कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता थे, वह पाकिस्तान के मुक़ाबले भारत को बेहतर साथी समझते थे।
जब दो-तीन सालों तक भी जनमत संग्रह का कोई चांस बनता नहीं दिखा तो तय हुआ कि राज्य में निर्वाचन के माध्यम से एक प्रतिनिध सभा का गठन किया जाए जो राज्य के भारत में विलय के बारे में अनुकूल फ़ैसला करने के साथ-साथ विलय पत्र की भावनाओं के अनुसार राज्य का संविधान भी बनाए। चूँकि महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय के लिए जो दस्तावेज़ साइन किया था, उसी में राज्य के लिए विशेष दर्ज़े और स्वायत्तता की शर्त थी इसलिए भारतीय संविधान में उन सभी बातों का उल्लेख होना था जिससे राज्य की स्वायत्तता की गारंटी होती।
इसके लिए 26 जनवरी 1950 को लागू भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 में इन बातों को बाक़ायदा स्पष्ट भी कर दिया गया था कि रक्षा, संचार और विदेश नीति के अलावा बाक़ी मामलों में भारत का संविधान जम्मू-कश्मीर के लिए क़ानून नहीं बना सकेगा और यदि कभी बनाने की नौबत आई तो भी उसे राज्य संविधान सभा की सहमति ज़रूरी होगी। इसी संविधान सभा के गठन के लिए पहला क़दम 27 अक्टूबर 1950 यानी विलय पत्र स्वीकारे जाने की तीसरी जयंती के दिन उठाया गया। उस दिन शेख़ अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कॉन्फ़्रेंस ने राज्य प्रमुख महाराजा कर्ण सिंह से आग्रह किया कि वह संविधान सभा के गठन के लिए आदेश जारी करें।
यह प्रस्ताव आते ही पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से शिकायत की कि भारत जनमत संग्रह कराने के बजाय संविधान सभा के रास्ते विलय को मंज़ूरी दिलवाने की साज़िश कर रहा है। सुरक्षा परिषद ने इसका नोटिस लिया और कहा कि संविधान सभा के विलय संबंधी किसी भी फ़ैसले को वह नहीं मानेगी। लेकिन भारत अपना काम करता रहा और अगले साल यानी अप्रैल महीने में राजा कर्ण सिंह की तरफ़ से आदेश जारी हुआ और सितंबर-अक्टूबर 1951 में हुए चुनावों के बाद 31 अक्टूबर 1951 से संविधान सभा ने अपना काम शुरू कर दिया।
शेख़ अब्दुल्ला ने संविधान सभा में दिए गए अपने पहले भाषण में जो चार उद्देश्य बताए, वे थे -
- देश (जम्मू-कश्मीर) के भावी संचालन के लिए नया संविधान बनाना,
- राजशाही का भविष्य तय करना,
- भूमिहीन किसानों को ज़मीन दिलाना व ज़मींदारों का मुआवज़ा तय करना और
- राज्य के सामने उपलब्ध तीनों विकल्पों पर विचार करने के बाद विलय के बारे में तर्कपूर्ण निष्कर्ष देना।
इधर संविधान सभा अपने इन उद्देश्यों पर काम कर रही थी, उधर जम्मू प्रजा परिषद जिसके हित राजा और राजशाही से जुड़े थे, शुरू से ही इस कोशिश में थी कि राजशाही बनी रहे और भूमि सुधारों के लिए जो काम किया जा रहा था, वह न हो। इसके बारे में हम पिछली कड़ी में चर्चा कर चुके हैं और उसको दोहराने की आवश्यकता नहीं है। संविधान सभा इन विरोधों-प्रतिरोधों को नज़रअंदाज़ करते हुए अपने काम में लगी रही। लेकिन जैसे-जैसे काम बढ़ता रहा, कुछ मामलों पर नए-नए सवाल खड़े होने लगे, जैसे देश के दूसरे भागों के और राज्य के नागरिकों के अधिकारों में क्या अंतर होगा, राज्य पर केंद्रीय संवैधानिक संस्थाओं जैसे राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट आदि का किस हद तक प्रभुत्व होगा। ऐसे सारे मामलों पर सहमति और स्पष्टता के लिए नेहरू ने जुलाई 1952 में नेशनल कॉन्फ़्रेंस के प्रतिनिधिमंडल को दिल्ली बुलाया और दोनों पक्षों ने मिलकर एक समझौता किया। इस समझौते को दिल्ली अग्रीमेंट के नाम से जाना जाता है।
दिल्ली समझौते में राज्य की स्वायत्तता की बात दोहराई गई और उन तीन विषयों को छोड़कर जिनका ज़िक्र विलय पत्र में था, बाक़ी विषयों पर क़ानून बनाने का अधिकार राज्य विधानसभा के पास ही सुरक्षित रखना तय हुआ।
राज्य के नागरिकों को भारत का भी नागरिक माना जाना तय हुआ लेकिन राज्य सरकार को यह हक़ मिला कि वह उनको विशेष अधिकार और सहूलियतें प्रदान करे।
राज्य के झंडे के बारे में यह तय हुआ कि वह बना रहेगा लेकिन भारत के झंडे के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर नहीं और राष्ट्रध्वज को वही सम्मान मिलता रहेगा जो उसे देश के दूसरे भागों में प्राप्त है।
राज्य प्रमुख के तौर पर सदर-ए-रियासत की नियुक्ति के बारे में यह तय हुआ कि उसका चयन राज्य विधानसभा करेगी लेकिन राष्ट्रपति की मान्यता मिलने के बाद ही वह अपना कार्यभार सँभाल सकेगा।
जम्मू-कश्मीर की जनता को भी मौलिक अधिकारों पर यह तय नहीं हो पाया कि इनसे जुड़े उपबंध राज्य संविधान का हिस्सा होंगे या भारतीय संविधान में ही इन्हें अलग से सूचीबद्ध किया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट को अपीलीय मामलों की सुनवाई का अधिकार होगा।
केंद्र की आपातकालीन शक्तियों के बारे में काफ़ी विचार हुआ और तय यह हुआ कि विदेशी हमले की स्थिति में केंद्र इन शक्तियों का इस्तेमाल कर पाएगा लेकिन आंतरिक उथल-पुथल की स्थिति में इमर्जेंसी राज्य सरकार के अनुरोध या सहमति से ही लागू की जाएगी।
राज्य संविधान को स्थगित करने संबंधी अनुच्छेद 356 या वित्तीय आपातकाल से जुड़े अनुच्छेद 360 की ज़रूरत नहीं महसूस की गई।
और महाराजा राज्य प्रमुख नहीं रहे
इस समझौते के प्रावधानों पर कार्रवाई शुरू हुई। सबसे पहले राजशाही को ख़त्म करने का प्रस्ताव पास हुआ जिसके फलस्वरूप 15 नवंबर 1952 को राष्ट्रपति की तरफ़ से आदेश जारी हुआ। इसके बाद जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने अपने राजा होने के अधिकार के कारण राज्य प्रमुख बने रहने का अधिकार खो दिया। राज्य विधानसभा द्वारा चुना गया कोई भी व्यक्ति राज्य प्रमुख हो सकता था हालाँकि पदभार सँभालने से पहले उसे राष्ट्रपति की मान्यता लेनी ज़रूरी थी। इस आदेश के बाद हालाँकि राज्य प्रमुख के तौर पर कोई परिवर्तन नहीं हुआ और कर्ण सिंह को ही संविधान सभा ने सदर-ए-रियासत के तौर पर चुना। लेकिन यह तय हो गया था कि अब उनका पद पर बने रहना संविधान सभा और भावी विधानसभाओं के सदस्यों के रहमोकरम पर था।
साम्प्रदायिक माहौल से परिस्थिति बदली
राज्य के प्रधानमंत्री शेख़ अब्दुल्ला ने दिल्ली समझौते के राजशाही वाले मुद्दे पर तो चार महीनों में ही अमल करवा दिया लेकिन अग्रीमेंट के बाक़ी मामलों पर वे धीरे चल रहे थे। दूसरे, विलय का अनुमोदन करने के प्रति उनमें कोई हड़बड़ी नहीं दिख रही था। उधर प्रजा परिषद भी राजशाही के ख़ात्मे के बाद अपना आंदोलन तेज़ कर चुकी थी और इसका एक दुखद परिणाम श्रीनगर में हिरासत में बंद जनसंघ अध्यक्ष श्यामाप्रसाद मुखर्जी के निधन के रूप में सामने आया था। इन घटनाओं से राज्य का माहौल पूरी तरह सांप्रदायिक हो चुका था। इन्हीं परिस्थितियों में शेख़ अब्दुल्ला ने कश्मीर के भारत में विलय के नफ़े-नुक़सान पर सवाल करना शुरू कर दिया। 12, 15 और 18 जुलाई 1953 को जम्मू और श्रीनगर में दिए गए अपने भाषणों में उन्होंने कहा कि जम्मू और भारत में जो सांप्रदायिक गतिविधियाँ हो रही हैं, उनको देखते हुए वे दिल्ली समझौते पर फिर से विचार करने पर बाध्य हो गए हैं। इसके साथ उन्होंने विलय पत्र का हवाला देते हुए दोहराया कि राज्य ने केवल तीन मामलों पर अपने अधिकार भारत को सौंपे हैं तथा बाक़ी सारे मामलों में उसे संपूर्ण स्वायत्तता प्राप्त है।
शेख़ अब्दुल्ला के बदले हुए तेवरों से नेहरू को भय लगने लगा कि कहीं जम्मू-कश्मीर के विलय का बना-बनाया मामला हाथ से निकल न जाए। वह पहले दिन से तय माने हुए थे कि जम्मू-कश्मीर की जनता जनमत संग्रह में भारत के पक्ष में राय देगी।
जनमत संग्रह नहीं हुआ तो भी उनको इस बात का यक़ीन था कि शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में संविधान सभा विलय का अनुमोदन कर देगी और उनकी बात और साख रह जाएगी। जब दोनों में से कुछ नहीं हुआ तो उन्होंने वही किया जो एक शक्तिशाली केंद्रीय सत्ता ऐसे मामलों में करती है। उन्होंने शेख़ अब्दुल्ला के डिप्टी बख़्शी ग़ुलाम मुहम्मद के सामने प्रधानमंत्री पद का चारा डाला और कैबिनेट में फूट डलवा दी। शेख़ कैबिनेट में अल्पमत में आ गए और उसी की बिना पर 8 अगस्त 1953 को उनको न केवल प्रधानमंत्री पद से बर्ख़ास्त कर दिया गया बल्कि उनको और उनके साथियों को गिरफ़्तार करके जेल में भी डाल दिया गया। महाराजा कर्ण सिंह सदर-ए-रियासत के पद पर थे ही। केंद्र के निर्देशों का पालन करने में उनको ज़रा भी परेशानी नहीं हुई।
ग़ुलाम मुहम्मद का सहयोग
इसके बाद बख़्शी ग़ुलाम मुहम्मद की सरकार ने केंद्र के साथ ‘पूरा सहयोग’ किया और अगले ही साल 6 फ़रवरी 1954 को संविधान सभा के 75 में से 60 सदस्यों ने संवैधानिक अधिकारों के बँटवारे और नागरिकता व मौलिक अधिकारों के बारे में बनी दो समितियों की सिफ़ारिशें स्वीकार कर लीं। इन सिफ़ारिशों के आधार पर राष्ट्रपति ने उसी साल 14 मई को एक आदेश जारी किया जिसके तहत न केवल दिल्ली अग्रीमेंट की सारी बातें लागू की गईं बल्कि दो मामलों में केंद्र को पहले से भी ज़्यादा अधिकार मिल गए। एक, केंद्र और राज्य के बीच वित्तीय संबंध उसी स्तर पर रख दिए गए जैसे कि बाक़ी राज्यों के मामले में थे। दो, राज्य की व्यवस्था से संबंधित कोई भी निर्णय केंद्र सरकार ले सकती थी हालाँकि इसके लिए राज्य सरकार की सहमति अब भी ज़रूरी थी।
संविधान सभा ने भारत के साथ विलय को भी मंज़ूरी दे दी जिसका प्रतिरूप हम जम्मू-कश्मीर के संविधान के उद्देश्य के साथ-साथ धारा 3 में भी देख सकते हैं जिसमें लिखा है - जम्मू-कश्मीर राज्य भारत संघ का अभिन्न हिस्सा है और रहेगा।
राज्य की सीमाओं के बारे में धारा 4 कहती है - 15 अगस्त 1947 को राज्य के शासक के प्रभुत्व और आधिपत्य में जो भी भू-भाग था, वह सारा का सारा राज्य का भू-भाग है।
धारा 5 में राज्य के विधायी और कार्यपालिक अधिकारों का उल्लेख है जिसके अनुसार - संसद को भारत के संविधान के प्रावधानों के अधीन राज्य (अर्थात जम्मू-कश्मीर) के लिए जिन मामलों में क़ानून बनाने का अधिकार है, उनके अतिरिक्त सभी विषयों पर राज्य को विधायी और कार्यपालिक अधिकार होगा।
इसके साथ ही संविधान में धारा 147 भी डाल दी गई है जिसके तहत धारा 3 और 5 में किसी भी तरह के भावी बदलाव का रास्ता बंद कर दिया गया। इस धारा के अनुसार - राज्य की विधानसभा में ऐसा कोई विधेयक नहीं लाया जा सकता जो इस धारा (यानी धारा 147), धारा 3, धारा 5 और भारतीय संविधान के राज्य से संबंधित किसी भी प्रावधान में संशोधन चाहता हो।
यानी केंद्र सरकार जो कुछ भी चाहती थी, वह सब हो गया बल्कि उससे ज़्यादा हो गया। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय पर पक्की मुहर लग गई। राज्य के संबंध में केंद्र को पहले से ज़्यादा अधिकार मिल गए। और सोने पर सुहागा यह कि भविष्य में बनने वाली कोई भी राज्य सरकार से इसमें किसी भी तरह के बदलाव का अधिकार भी छिन गया।
अनुच्छेद 370 का केवल ढाँचा ही रहा
इसके बाद जो बचा था, वे थीं अनुच्छेद 370 के शिलालेख पर लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ। ये पंक्तियाँ जम्मू-कश्मीर के ‘विशेष दर्ज़े’ और उसको प्राप्त ‘स्वायत्तता’ का आज भी ढिंढोरा पीटती हैं और उससे कई लोगों को बहुत शिकायत भी है। लेकिन सच यह है कि इन 69 सालों में अनुच्छेद 370 का केवल ढाँचा रह गया है। उसके तहत भारत के राष्ट्रपति को ‘राज्य सरकार की सहमति से’ नए-नए आदेश जारी करने का जो अधिकार मिला हुआ है, उसका इस्तेमाल करते हुए 1956 से 1994 के बीच 47 आदेश जारी किए जा चुके हैं। इसका नतीजा क्या हुआ और आज की तारीख़ में जम्मू-कश्मीर कितना ‘स्वायत्त’ है, इसके बारे में हम चर्चा करेंगे अगली कड़ी में।
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