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प्रतीकात्मक तसवीर। फ़ोटो साभार: ट्विटर/नो कंवर्जन

दलित-मुस्लिम एकता का मिथक

पिछले कुछ सालों से देश में दलित-मुस्लिम एकता का शोर मचा हुआ है। यह कोई बात नहीं है। आज़ादी के पहले मुस्लिम लीग ने भी कुछ ऐसा ही नारा दिया था। इस नारे के पीछे यह बात बताई जाती है कि दलित और मुस्लिम दोनों पीड़ित और वंचित हैं इसलिए दोनों को साथ मिलकर काम करना चाहिए। अगर थोड़ा ध्यान से देखा जाए तो ये दलित-मुस्लिम एकता न होकर हिन्दू दलित और शासक वर्गीय उच्च अशराफ मुस्लिम की एकता का राग है जिसमें अन्य पिछड़े हिन्दू और पसमांदा (मुस्लिम धर्मावलंबी पिछड़े, दलित, आदिवासी) का कोई हिस्सा नज़र नहीं आता है। इस तरह की एकता के पीछे अशराफ की राजनीतिक महत्वाकांक्षा प्रतीत होती है।

अशराफ एक तरफ़ तो दलितों के दिल में यह बात बैठाने में कामयाब होता है कि इससे उसका आन्दोलन तेज़ होगा और माँगों में मज़बूती आएगी और दलित-मुस्लिम एकता मुसलमानों से ज़्यादा दलितों की सत्ता के लिए ज़रूरी है और मुस्लिम सत्ता प्राप्ति के बाद उनके पीछे रहेगा। दूसरी ओर पसमांदा को धर्म और धार्मिक एकता के नाम पर यह झांसा देता है कि जब दलितों की मदद होगी तो हर जगह से अल्पसंख्यक होने के बाद भी मुसलमान आसानी से जीत दर्ज कर लेगा। और इस समय पसमांदा के उत्थान से ज़्यादा ज़रूरी काम कौम को बचाना है।

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अशराफ सदैव पसमांदा के सामने उसके उत्थान और जीवित रहने के विकल्प का धोखा देता है जिसमें पसमांदा अपनी कमजोरी, लाचारी और बेबसी के कारण आसानी से फँस जाता है और जीवित रहने को अपने उत्थान पर वरीयता देता है। यही धोखा अशराफ ने देश के विभाजन के समय पसमांदा के मन-मस्तिक में बैठाया था जिसका परिणाम सामने है। अशराफ एक देश का तीन देश करके दो देशों में प्रत्यक्ष शासक है और तीसरे में भी अप्रत्यक्ष सत्ता में पकड़ बनाये हुए है जबकि पसमांदा तीनों देशों में अपने जीवन को बचाने के लिए वेंटिलेटर के इंतज़ार में अपनी उखड़ी सांसों को संभाले हुए है।

जब अशराफ के पास इस देश में प्रत्यक्ष सत्ता थी उस समय अशराफ मुस्लिम ने दलित-आदिवासी को हर तरह से दमन किया। भारत में अपने सदियों की सत्ता में दलित-पसमांदा का न सिर्फ़ दोहन किया है बल्कि विपरीत परिस्तिथियों में भी जो दलित-पसमांदा किसी भी प्रकार से शासन सत्ता में पहुँच बना पाए थे उनको उनकी जाति की पहचान (इसके लिए बाकायदा निकाबत नाम एक विभाग हुआ करता था) करके सत्ता से बाहर कर दिया और फिर यह सुनिश्चित भी किया कि ये लोग शासन के क़रीब भी न फटकें। 

अशराफ शासन काल में सिर्फ़ ग्यासुद्दीन तुग़लक़ और उसके बेटे मुहम्मद ही ऐसे राजा रहे हैं जिन्होंने आदिवासी, दलित और पिछड़े और इनसे धर्म परिवर्तित कर मुस्लिम हुए पसमांदा को उनकी योग्यता के आधार पर राजनैतिक भागेदारी देना सुनिश्चित किया था, जिस कारण अशराफ उलेमा और राजनीतिज्ञ अप्रसन्न रहा करते थे और आख़िरकार इन दोनों की हत्या का कामयाब षड्यंत्र किया।
देश की आज़ादी से पूर्व मुस्लिम लीग और जोगेंद्र नाथ मण्डल के प्रकरण से भी बात स्पष्ट हो जाती है। जोगेंद्र नाथ मण्डल को अशराफ ने ‘लिखो-फेको कलम’ की तरह इस्तेमाल किया।

मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन प्लान से लेकर बंगाल की मुस्लिम लीग की सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव में समर्थन करने तक मण्डल ने खुल कर इनका साथ दिया। सिलहट के जनमत में जहाँ हिन्दू मुस्लिम की जनसंख्या लगभग बराबर थी तो जिन्ना ने मण्डल को भेजा और उन्हें वहाँ जाकर दलितों को पाकिस्तान के फेवर में राय देने को कहा, और इस प्रकार मण्डल के सहयोग से सिलहट पाकिस्तान को मिला।

पाकिस्तान बनने के बाद अशराफ लीडरशिप द्वारा अनुसूचित जाति के पृथक निर्वाचन की लगातार अनदेखी की कपटपूर्ण नीति और अन्य भेदभाव पूर्ण व्यवहार से मण्डल पर अशराफ का धोखा खुल गया जिससे व्यथित और छुब्ध मण्डल भारत लौट आते हैं। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अशराफ उनकी नैतिक, राजनैतिक और वैचारिक हत्या कर चुका होता है जबकि शारीरिक रूप से वो 1968 तक जीवित रहे। मात्र 64 साल की आयु में दलितों का एक शानदार नेतृत्व कोलकाता में गुमनामी की हालत में दुनिया से चला जाता है।

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पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने यह कह कर हिन्दू दलितों के स्थानांतरण को बाधित किया कि अगर दलित भारत चले गए तो हमारे घरों का पैखाना कौन उठाएगा, साफ़-सफ़ाई और अन्य सेवा और दलितों वाले काम कौन करेगा। आज भी पाकिस्तान में स्वच्छकार दलित समाज के लोगों को स्वच्छता से संबंधित कामों के लिए बाध्य किया जाता है भले ही वो पढ़े-लिखे हों और कोई अन्य कार्य करना चाहते हों।

आये दिन पाकिस्तान से दलितों के बलात्कार और अत्याचार की ख़बरें आती रहती हैं। उनका जबरदस्ती धर्मांतरण आख़िर वहाँ कौन कर रहा है।

आज भी पाकिस्तान में अशराफ ज़मींदारों द्वारा बन्धुआ मज़दूरी के नाम पर ग़ुलामी प्रथा जीवित है। जहाँ पूरे परिवार का अपहरण कर बन्धुआ मज़दूर बना लिया जाता है। इस तरह की बहुत सी घटनाएँ आये दिन सामने आती रहती हैं। डिटेल के लिए मनु भील का केस देखा जा सकता है।

इस तरह की बहुत सी घटनाएँ सुनने में आती हैं कि दलित लड़कियों को बहला-फुसला कर धर्मांतरित कर के किसी मुसलमान की बीबी बना दिया जाता है। फिर कुछ महीनों बाद वो किसी दूसरे व्यक्ति को दे दी जाती है फिर वो किसी तीसरे को दे देता है। इस तरह कुछ समय के बाद वो सड़क पर आ जाती है। ना तो उसे मुस्लिम ही अपनाते हैं और ना ही दलित समाज।

अगर यह सवाल पूछा जाए कि क्या पकिस्तान में दलितों को पहले से मिल रहे आरक्षण को रहने दिया गया या ख़त्म कर दिया गया है? तो जवाब नकारात्मक ही मिलेगा।

पाकिस्तान के उदाहरण से दलित-मुस्लिम एकता की हक़ीक़त को और आसानी से समझा जा सकता है। वहाँ अशराफ पूरी तरह सत्ताधारी है और उसके पास उनके उत्थान के लिए पर्याप्त सामर्थ्य भी है।

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भारत में अगर अशराफ दलितों के अधिकारों को लेकर इतना ही चिंतित है तो वो अपने संगठनों में दलितों को भागेदारी क्यों नहीं देते? अशराफ के किसी भी राजनैतिक और सामाजिक संगठनों के मुख्य पोस्ट पर आपको दलित नहीं मिलेंगे जबकि दलितों के राजनैतिक और सामाजिक संगठनों में अशराफ आपको बड़े पदों पर आराम से मिल जायेंगे ये असंतुलित दलित-मुस्लिम एकता का कैसा व्यवहार है?

असल में सच्चाई यह है कि अशराफ भारत को विजित प्रदेश समझता है और जब देखा कि यह देश हाथ से निकल रहा है तो मुस्लिम सम्प्रदायिकता की नीति अपना कर उसने एक बड़े भूभाग पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। कश्मीर का आतंकवाद हो या देश के भीतर हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता की राजनीति, इनका ध्येय एक है कि बचे हुए भारत देश में सत्ता में पकड़ बनी रहे और जल्द से जल्द पूर्ण सत्ता की प्राप्ति हो। इस मक़सद के लिए उन्हें सिपाही चाहिए जिसके लिए वो दलित-पसमांदा को मानसिक रूप से तैयार करते हैं। जहाँ दलितों का सवर्णों द्वारा उनके जातिगत उत्पीड़न की सच्चाई को और बुरा बनाकर उभारते हैं और खुद को उनका हमदर्द और हितैषी बनाकर पेश करते हैं।

dalit muslim unity is the idea of upper class muslims to claim power - Satya Hindi

दूसरी ओर पसमांदा को धर्म और धार्मिक एकता की रणनीति में फांसतें हैं। इस्लाम और मुसलमानों के अस्तित्व पर ख़तरा दिखा कर आरएसएस/ बीजेपी से डरा कर उनको उर्दू माध्यम के मदरसों और दर्जनभर तथाकथित धार्मिक संगठनों जैसे जमाते इस्लामी, तब्लीग़ी जमात आदि द्वारा इस्लाम की रक्षा के नाम पर मानसिक रूप से अपना सिपाही बना लेने में कामयाब होते आए हैं।

एक बात यह भी है कि हिन्दुओं ने अपने दलितों और पिछड़ों को मुख्य धारा में लाने के लिए बहुत से आंदोलन और जागरूकता अभियान चलाया जिसके नतीजे में आज उनके हालात पहले से बहुत अच्छे हुए हैं। लेकिन आज तक मुस्लिमों ने अपने आदिवासी, दलितों और पिछड़ों के लिए कोई आंदोलन नहीं चलाया है? कभी किसी उच्च वर्ग/शोरफा ने एक बयान तक दिया है दलित और पिछड़े मुस्लिमों के लिए? बल्कि ये सरकार को यह कह कर गुमराह करते रहते हैं कि मुस्लिमों में कोई दलित और पिछड़ा नहीं है। वो तो भला हो मण्डल आयोग का जिसने ओबीसी में पसमांदा मुस्लिमों को सम्मिलित किया। याद रखें कि मण्डल कमीशन में एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं था, अगर होता तो उच्च वर्ग का ही होता और क्या पता मुस्लिमों को ओबीसी आरक्षण में भी नहीं आने देता। 

अशराफ पाकिस्तान में, जहाँ वो सर्वे सर्वा है, अपने सहधर्मी अछूतों- (मुसल्ली, चूड़ा, चानगर, कम्मी, भील, खटाने, मिरासी) को आजतक मुख्य धारा में नहीं ला पाया है तो विधर्मी अछूतों और वंचितों के लिए क्या किया होगा और क्या करेगा इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

मुख्तारन माई और गजाला शाहीन के केस से अशराफ का चरित्र पूरी तरह उजागर हो जाता है। जिसमें पंचायत द्वारा इनको सामूहिक दुष्कर्म की सज़ा सिर्फ़ इसलिए सुनाई जाती है कि इनके भाई और चाचा ने नीच जाति के होने के बावजूद ऊँची जाति अशराफ की लड़की से प्रेम किया था। 

अशराफ का यह दोहरा रवैय्या है। उसकी असल मंशा सत्ता और वर्चस्व को बनाये रखना है। उनको दलित-आदिवासी के उत्थान से कुछ लेना-देना नहीं है। इनकी नियत इनके इतिहास से आसानी से समझा जा सकता है।

इस देश के बहुजन/दलित/पिछड़े/आदिवासी अंदोलन को वंचित पसमांदा को लेकर चलना चाहिए जो उनके भाई ही हैं, भले ही उनकी आस्था बदल गयी हो लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है।

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फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी

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