भारत देश की जलवायु, भूमि और भौतिक सम्पदा से आकर्षित हो कर बहुत सारे आक्रमणकारी, व्यापारी और पर्यटक यहाँ आए। कुछ ने सिर्फ व्यापार तक ही खुद को सीमित रखा, कुछ लूट पाट करके वापस हो गए, कुछ ने व्यापार के साथ अपना राजनैतिक स्वार्थ भी सिद्ध किया, कुछ ने सिर्फ थोड़े समय के लिए निवास किया, कुछ ने इसे ही अपना स्थायी निवास बना लिया। इन्हीं में कुछ मध्य एशिया की जातियाँ जैसे तुर्क, तातारी, उज्बेकी, मंगोल (मुग़ल) इत्यादि भी आये और अपनी सत्ता स्थापित की।
ये जातियाँ भारत में आने से पहले ही मुस्लिम धर्म को अंगीकार कर चुकी थीं, लिहाजा इन नव-मुस्लिम आक्रांताओं के सामने इस्लामी दुनिया में स्वयं को स्थापित करने की चुनौती थी। अपनी सत्ता की मान्यता और मज़बूती के लिए स्वयं को खलीफा के मातहत घोषित कर सत्ता का इस्लामीकरण/अशराफीकरण किया। यह बस दिखावे भर का ही इस्लामीकरण था, जहाँ खलीफा का नियंत्रण नाम मात्र का ही था और सत्ता की कार्य-प्रणाली पूरी तरह से राजतंत्रात्मक और सामंतवादी थी।
एक लंबे समय तक इसी प्रकार शासन चलते रहे। जहाँ एक के बाद दूसरा वर्ग ग़ुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश, लोदी वंश एवं मुग़ल वंश (मुगल स्वायत शासक थे, केंद्रीय खिलाफत के अधीन नहीं थे) आदि नामों से शासन करता रहा।
यूरोपियनों के आने के बाद भारत में एक नए युग का आरम्भ होता है। सत्ता धीरे-धीरे अशराफ वर्ग (मुस्लिम) के हाथों से निकल कर अंग्रेज़ों के हाथ में आने लगती है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य का काल आते आते अंग्रेज़ पूरी तरह अपनी सत्ता सुदृढ़ कर लेते हैं। इन बदली हुई परिस्थितियों में मुस्लिम शासक वर्ग यानी अशराफ वर्ग अपनी पूर्ववर्ती नीतियों को बदलने पर मजबूर हुआ। कुछ ने अंग्रेज़ों के विरोध का रास्ता चुना और अंग्रेज़ों से लड़ कर अपनी सत्ता की वापसी चाही, जिसके लिए उसने फिर इस्लाम को एक साधन (टूल) के रूप में प्रयोग किया, और अंग्रेज़ों के खिलाफ जिहाद (धार्मिक युद्ध) का बिगुल फूंका।
दूसरी ओर कुछ ने अंग्रेज़ों से सन्धि कर सहयोगी के तौर पर गठबंधन की सरकार बनाई। देश के बँटवारे तक अशराफ मुस्लिमों की यही नीति रही, एक अंग्रेज़ों के विरुद्ध दूसरा अंग्रेज़ों के साथ।
सन् 1857 ई. के बाद भारत की सत्ता प्रत्यक्ष रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से निकल कर ब्रिटेन सरकार के हाथ में आ गयी, यहीं से भारत में पुनर्जागरण का काल शुरू होता है।
ब्रिटिश सरकार द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक संरचना आदि क्षेत्रों में सुधारवादी क़दम उठाये जाने लगे। हालाँकि ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में ही सुधारवादी कार्यक्रम प्रारम्भ हो चुके थे। इन बदलावों से अशराफ वर्ग को अपनी जमी जमाई प्रभुसत्ता पर ख़तरा महसूस हुआ। जिसके फलस्वरूप अशराफ वर्ग ने अपनी सत्ता और वर्चस्व को बचाने के लिए अपना पुराना किंतु आजमाया हुआ और कारगर साधन (टूल) धर्म के जिन्न को बाहर निकाला, इस्लाम, मुस्लिम सभ्यता और मुसलमानों को बचाने के नाम पर, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुधार जैसे मोर्चे पर विकल्प देना शुरू किया। जिसमें मदरसा शिक्षा जो केवल नमाज़-रोज़ा-वज़ू जैसे शुद्ध धार्मिक क्रियाकलापों एवं क़ुरआन का लिपि पाठ तक ही सीमित था जिसे दीनी तालीम (धार्मिक शिक्षा) का नाम दिया गया, को आधुनिक शिक्षा के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया और आधुनिक शिक्षा, साहित्य और विज्ञान को इस्लाम विरोधी बता कर प्रबल विरोध किया गया (वो अलग बात है कि अशराफ ने अपने नई पीढ़ी को विदेश भेज कर आधुनिक शिक्षा से परिचित कराया)। यही नीति स्वास्थ्य और सामाजिक सुधार के मोर्चे पर भी क्रियान्वित की गई।
इस नीति की चपेट में सबसे ज़्यादा वे लोग आये जिन्होंने कालांतर में किन्हीं कारणों से अपना मतांतरण करके मुस्लिम धर्म अपनाया था। जो कभी भी सत्ता और शासन के निकट नहीं रहे या रहने नहीं दिया गया, जिन्हें देशज पसमांदा मुस्लिम के नाम से जानते हैं, जिनकी ज़िन्दगियों में मतांतरण का कोई विशेष लाभ दृष्टिगोचर नहीं होता है और ये अपने पूर्ववर्ती सभ्यता, संस्कृति भाषा एवम् सामाजिक संरचनाओं से जुड़े हुए रहे।
ऐसा प्रतीत होता है कि अशराफ वर्ग द्वारा एक लंबे समय तक शासन करने के बावजूद अपने सहधर्मी देशज पसमांदा मुस्लिमों के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनैतिक उत्थान के लिए कोई विशेष कार्य नहीं किया गया।
तुगलक काल में एक दो उदाहरण ऐसे मिलते हैं जहाँ पसमांदा को उनकी योग्यता के आधार पर इक्का दुक्का राजनैतिक पद तो मिले लेकिन वो भी भारी विरोध और षडयंत्र का शिकार रहा।
समय का पहिया धीरे धीरे आगे बढ़ता रहा, अशराफ द्वारा पोषित मुस्लिम राष्ट्रवाद तेज़ी से पनपता रहा। उधर अन्य दूसरे धर्मों के मानने वालों पर भी इन सुधारवादी कार्यक्रमों का प्रभाव दिखने लगा, लेकिन दलितों पिछड़ों में इस चेतना का संचार पसमांदा की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से हुआ।
इसी दौरान अंग्रेज़ों द्वारा कांग्रेस की स्थापना इस उद्देश्य के साथ किया जाता है कि भारतीय लोगों को भी अपनी बात ब्रिटिश सरकार तक पहुंचाने के लिए एक उचित प्लेटफॉर्म की आवश्यकता है। इधर अशराफ मुस्लिम यह बात समझने लगा था कि अंग्रेज़ बड़ी ताकत है और इससे लड़ने के बजाय इनसे दोस्ती कर, अपना स्वार्थ आसानी से सिद्ध किया जा सकता है। यह वर्ग भी कांग्रेस की तरफ आकर्षित हुआ। चूँकि अशराफ शासक वर्ग था इसलिए कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार दोनों ने उसे अधिकाधिक स्थान (स्पेस) दिया।
अशराफ द्वारा पोषित मुस्लिम राष्ट्रवाद, ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस द्वारा अशराफ के तुष्टिकरण की नीति एवं अंग्रेज़ों के सुधारवादी कार्यक्रमों के प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दू समाज के अंदर भी राष्ट्रवाद की भावना का संचार होने लगा।
ज़माना बड़ी तेज़ी के साथ बदल रहा था, और इस बदलते हुए समय में अशराफ मुस्लिम अपने वर्चस्व और सत्ता प्राप्ति के लिए अतिउत्साहित था। इसी अतिउत्साह में वह कांग्रेस की नीतियों से भी आगे जाकर ब्रिटिश सरकार से अपनी मांगों को मनवाने लगा, और अब अशराफ को कांग्रेस भी अपर्याप्त लगने लगी, इसी क्रम में मुस्लिम लीग का अभ्युदय होता है। जिसके नामकरण में भी अशराफ ने अपनी उसी पुरानी किंतु सफल नीति “धर्म एवं धार्मिक एकता” का प्रयोग किया, और सिर्फ मुस्लिम शासक वर्ग, राजा-नवाब-जमींदार आदि (अशराफ) के हितों की बात करने वाली संस्था का नाम “अशराफ लीग” न रख कर “मुस्लिम लीग” रखा, ताकि सारे मुस्लिमों (पसमांदा सहित) की संख्या उनकी गुरबत को सामने रखकर, ब्रिटिश सरकार से अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सके। यही वह एक बड़ा कारण था जिसकी वजह से उस समय के पसमांदा संगठनों ने जिसमें जमीयतुल मोमिनीन (मोमिन कांफ्रेंस) प्रमुख था, लीग और उसकी नीतियों का प्रबल विरोध किया।
अशराफ की इस कूटनीति और ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस द्वारा अशराफ के तुष्टिकरण की नीति ने बहुसंख्यक हिन्दू समाज में एक असुरक्षा की भावना उत्पन्न कर दी जिसके फलस्वरूप हिन्दू राष्ट्रवाद का सिद्धांत जन्म लेता है।
लेकिन वह अपने प्रतिद्वन्द्वी अशराफ मुस्लिम के उग्र राष्ट्रवाद की अपेक्षा कम तीव्र था। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुस्लिम लीग की स्थापना के लगभग बीस वर्ष बाद हिन्दू महासभा/राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का जन्म होता है, जो अशराफ की सम्प्रदायिकता का देर से ही सही लेकिन जवाब था।
इधर मुस्लिम लीग तेज़ी के साथ पूरे अशराफ वर्ग की प्रतिनिधि सभा के रूप में उभरती है, हालांकि अन्य दूसरे अशराफ संगठन जैसे जमीयतुल उलेमा, मजलिसे अहरार, मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लेमीन और मुस्लिम कॉन्फ्रेंस आदि भी सक्रिय और प्रयत्नशील थे, जिनमें तो कुछ स्वयं को अशराफ के मुस्लिम राष्ट्रवाद की जगह कांग्रेस के भारतीय राष्ट्रवाद में अपनी आस्था जता रहे थे। एक तरफ़ तो मुस्लिम लीग अशराफ की प्रतिनिधि के तौर पर कार्यरत थी वहीं दूसरी ओर कांग्रेस में भी पैर जमा चुके अशराफ अपने हित साधन में सक्रिय थे। इसका परिणाम ये हुआ कि कांग्रेस के हिन्दू नेताओं और हिन्दू महासभा के नेताओ में भी अपने हितों को लेकर गम्भीरता बढ़ती गयी। जो धीरे धीरे वर्ग संघर्ष का रूप लेने लगा। और इस प्रकार के वातावरण की पृष्ठभूमि में देश के बँटवारे की पटकथा तैयार होती है।
अशराफ अपनी कूटनीति में सफल रहा, अंग्रेज़ों और कांग्रेस से अधिक से अधिक अधिकार प्राप्त करता चला गया, आख़िरकार अशराफ की महत्वाकांक्षा इस कदर बढ़ गयी कि उसने देश के बँटवारे तक की मांग रख दी। हालांकि कुछ अन्य अशराफ संगठन और कांग्रेस के अशराफ ने पहले से मिल चुके अधिकारों और अंग्रेज़ों एवं कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति के भरोसे बँटवारे का विरोध किया, लेकिन ये भी एक चतुराई भरा फ़ैसला था ताकि बँटवारा ना होने की सूरत में अशराफ हित सुरक्षित रहे।
धीरे धीरे देश के सभी प्रमुख संगठनों ने बँटवारे की माँग को स्वीकार कर लिया, लेकिन देशी पसमांदा संगठन (जमीयतुल मोमिनीन, जमीयतुल हवारीन, जमीयतुल क़ुरैश आदि) आखिरी दम तक देश के बँटवारे का विरोध करते रहे। इस विरोध की तीव्रता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाशिये पर पड़े पसमांदा ने देश की राजधानी दिल्ली में देश के बंटवारे के विरोध में लगभग चालीस हजार के एक विशाल जनसमूह के साथ प्रदर्शन किया।
देश का बँटवारा होता है, एक नए राष्ट्र का अभ्युदय होता है जिसका स्वरूप लोकतंत्र की चादर ओढ़े सामंतवादी शासन प्रणाली का था। यहाँ एक बात स्पष्ट हो जाती है कि “धर्म और धर्म की एकता की नीति” और इस्लाम और मुस्लिम शब्द का उपयोग केवल अपने हित साधन के लिए किया गया था।
भारत एक लोकतांत्रिक देश बन कर उभरता है। अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करते हुए आगे बढ़ना शुरू करता है लेकिन मुस्लिम समाज के मामले में कांग्रेस के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने अंग्रेज़ों की तुष्टिकरण की नीति को ही आगे बढ़ाया। दूसरी ओर अशराफ इसका फायदा उठाते हुए अपनी सत्ता और सामाजिक वर्चस्व को बचाये रखने के लिए अपनी फिर वही पुरानी “धर्म एवं धार्मिक एकता” की नीति को फिर से हवा देता है और मुस्लिम समाज में देश के बँटवारे को कारण बता कर एक भय का माहौल बनाता है ताकि पूरा मुस्लिम समाज अपनी समस्याओं को भूल कर मुस्लिम एकता के मिथक में सोया रहे। दूसरे लाचार गरीब पसमांदा मुस्लिमों के हालात को दिखाकर (जो बेचारे बँटवारे की मार सह कर पहले की दयनीय स्थिति और अधिक बदतर स्थिति में पहुँच गए थे) सरकार से अपना हित साधन शुरू कर देता है।
समय के साथ हिन्दू समाज के पसमांदा (पिछड़े और दलित) आंदोलन और मुखर होकर खुद को स्थापित करता है लेकिन यहाँ भी अशराफ वर्ग धर्म और धार्मिक एकता की नीति को आगे बढ़ाते हुए पूरे मुस्लिम समाज की ओर से स्वयं को ही प्रतिनिधि मनवा लेता है और ये आंदोलन भी मुस्लिम समाज के जातिगत विभेद को नकारते हुए मुसलमान के नाम पर अशराफ का उसी तरह तुष्टिकरण करना प्रारम्भ करते हैं जैसा कि अंग्रेज़ और कांग्रेसनीत भारत सरकार करती आयी थी। हालांकि समय समय पर पिछड़ों और दलितों के सामाजिक स्थितियों की विवेचना के लिए गठित होने वाले आयोगों ने मुस्लिम समाज के जातिगत विभेद को मान्यता देते हुए पसमांदा जातियों के उत्थान के लिए भी संस्तुतियाँ कीं, लेकिन वाकपटु सबल अशराफ वर्ग और पसमांदा वर्ग की तरफ़ से किसी मज़बूत आवाज़ का न होना, ने पसमांदा विमर्श को पनपने ही नहीं दिया।
सरकार और अन्य सामाजिक आंदोलनों की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति (जो असल में अशराफ तुष्टिकरण है) भी इस कार्य में सहायक रही। फिर भी मण्डल आयोग की अनुशंसा पर पसमांदा जातियों को आरक्षण में सम्मिलित किया गया। यह भी हिन्दू समाज का पसमांदा पर उपकार ही है क्योंकि मण्डल आयोग में एक भी मुस्लिम नहीं था यदि होता भी तो परम्परागत तौर से वह अशराफ वर्ग से ही होता, जिसका रिकॉर्ड अनुसूचित जाति के आरक्षण के समय पसमांदा दलितों के आरक्षण के विरोध का रहा था।
इस प्रकार अशराफ मुस्लिम जिसने एक लंबे समय तक भारत देश पर शासन किया था, उसने मुस्लिम राष्ट्रवाद, धर्म और धार्मिक एकता की नीति और तुष्टिकरण करवा लेने की नीति की आड़ में अपनी सत्ता और वर्चस्व को आज भी बनाये हुए है।
समय समय पर अशराफ पसमांदा मुस्लिम समाज की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनैतिक पिछड़ेपन को सारे मुस्लिमों के नाम पर आगे कर के सरकार से नीति निर्धारण करवाता है और जब उससे लाभ उठाने की बारी आती है तब पसमांदा को पीछे कर खुद को आगे ला, लाभान्वित होता है। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुस्लिम समाज से सम्बंधित सभी सरकारी और ग़ैर सरकारी संस्थाओं जैसे अल्पसंख्यक आयोग, वक़्फ़ बोर्ड, शाही मस्जिदें, बड़े मदरसे, सामाजिक संगठनों, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड आदि पर अशराफ वर्ग का ही वर्चस्व है।
एक तो पसमांदा वर्ग की तरफ़ से कभी कोई आवाज़ न उठी या उठी भी तो उसे बहुत प्रभावी नहीं होने दिया गया, उस आवाज़ को “धर्म और धार्मिक एकता” के नाम पर, “इस्लाम ख़तरे में है” के नाम पर, “अभी मुल्क के हालात सही नहीं है” के नाम पर, “सरकार मुसलमानों की दुश्मन है” के नाम पर, “अभी इस तरह की बात करने का सही वक्त नहीं है” के नाम पर दबाया जाता रहा है।
सरकारें बदलती रहीं, पार्टियाँ आती जाती रहीं लेकिन मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति नहीं बदली। मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध की राजनीति करने वाली पार्टी में भी अशराफ वर्ग अपनी पैठ बनाये हुए है और यह बात देखने में आ रहा है कि यहाँ भी अशराफ वर्ग अपना तुष्टिकरण करवा लेने की नीति को लागू करवा लेने में सफल नज़र आ रहा है।
सारांश यह है कि मुस्लिम तुष्टिकरण दरअसल अशराफ तुष्टिकरण है और यह कोई नई नीति न होकर वर्षों से चली आ रही अशराफ के स्वार्थ सिद्धि की नीति है। अशराफ के मुस्लिम राष्ट्रवाद और तुष्टिकरण करवा लेने की नीति के फलस्वरूप समाज में उपजे मुस्लिमों के प्रति वैमनस्य (नफरत) का सारा लाभ, मुस्लिम नाम पर, अशराफ वर्ग, शासन और सत्ता में भागीदार बन कर उठाता है। और वहीं पसमांदा इसका खामियाजा दंगे के रूप में, शासन प्रशासन के अत्याचार के रूप में, आतंकवाद में शामिल होने के आरोप के रूप में और भीड़ द्वारा हत्या के रूप में भुगतता रहा है।
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