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क्या हमारा मीडिया स्वतंत्रता का हक़दार है? 

क्या हमारा मीडिया वह काम कर रहा है, जिसे करने की उससे अपेक्षा की जाती है। क्या वह अपनी जिम्मेदारी को सही ढंग से निभा रहा है? वह समाज के ज़रूरी मुद्दों को उठाने के बजाय अंधविश्वास फैलाने और सरकार की चाटुकारिता करने में व्यस्त है। ऐसा करके वह लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से भटका रहा है। ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या मीडिया किसी आज़ादी का हक़दार है?
जस्टिस मार्कंडेय काटजू

भारतीय उपमहाद्वीप में पत्रकार और मीडियाकर्मी हल्ला मचा रहे हैं कि भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों में मीडिया की आज़ादी पर अंकुश लगा दिया गया है। भारत में बहुत से पत्रकार शिकायत करते हैं कि वे सरकार से कोई सवाल नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करने पर वे अपनी नौकरी खो सकते हैं या उन पर देशद्रोह और अन्य आरोपों को लेकर मुक़दमा दर्ज किया जा सकता है, जैसा कि वास्तव में कई पत्रकारों के साथ हो भी चुका है। वे पाकिस्तान में जंग ग्रुप ऑफ़ पब्लिकेशंस के मालिक मीर शकीलुर रहमान की गिरफ्तारी और लंबे समय तक हिरासत में रहने के ख़िलाफ़ तथा सरकार द्वारा पत्रकारों को परेशान करने का आरोप लगाते हैं। लेकिन क्या पत्रकारों के ये आरोप उचित हैं? मेरे हिसाब से ऐसा नहीं है और इसके पक्ष में मेरे अपने कुछ तर्क हैं। 

भारत और पाकिस्तान में मीडिया को जो भूमिका निभानी चाहिए, उसे समझने के लिए हमें पहले ऐतिहासिक संदर्भ को समझना होगा।

हमारा उपमहाद्वीप वर्तमान में अपने इतिहास के एक परिवर्तनशील युग से गुजर रहा है - एक  सामंती कृषि समाज से आधुनिक औद्योगिक समाज की ओर।

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यह इतिहास में एक बहुत ही दर्दनाक और दुखद काल होता है। पुराने सामंती समाज को उखाड़ा और तोड़ा जा रहा है, लेकिन नया, आधुनिक और  औद्योगिक समाज अभी तक नहीं बना है। पुराने मूल्य उखड़ रहे हैं, सब कुछ उथल-पुथल में है। हम शेक्सपियर के नाटक मैकबेथ में से एक लाइन को याद कर सकते हैं - "फेयर इज फाउल एंड फाउल इज फेयर।" 

जिसे पहले अच्छा माना जाता था, जैसे कि जाति व्यवस्था, वह आज खराब मानी जाती है (कम से कम समाज के प्रबुद्ध वर्ग द्वारा) और जिसे पहले बुरा माना जाता था, उदाहरण - प्रेम विवाह, वह आज स्वीकार्य है (कम से कम आधुनिक मानसिकता वाले व्यक्तियों के लिए)।

मुझे फिराक़ गोरखपुरी का एक उर्दू शेर याद आता है। 

हर जर्रे पर एक कैफियत-ए-नीमशबी है,

ऐ साकी-ए-दौरान यह गुनाहों की घड़ी है।

यह शेर परिवर्तनशील युग को दर्शाता है। जर्रे का अर्थ है कण, कैफियत का अर्थ है परिस्थिति, नीम का अर्थ है आधा और शब का अर्थ है रात। तो दोहे में पहली पंक्ति का शाब्दिक अर्थ है - "हर कण आधी रात की परिस्थिति में है।"

उर्दू शायरी को अक्सर अलंकारिक रूप से समझा जाना चाहिए, शब्दशः नहीं। तो इस पंक्ति का वास्तव में मतलब है कि (परिवर्तनशील युग में) सब कुछ प्रवाह में है, न रात है और न दिन है, न पुराना क्रम है और न ही नया युग है।

शायरी की दूसरी पंक्ति में, साकी वह लड़की है, जो शराब का प्याला भरती है, लेकिन वह एक स्त्री भी है, जिसे कोई व्यक्ति अपने आंतरिक विचारों को बता सकता है। कवि एक महिला की कल्पना कर रहा है, जिससे वह परिवर्तनशील युग की विशेषताओं का वर्णन कर रहा है। ‘यह गुनाहों की घड़ी है’, यानी यह पाप का समय है। इस परिवर्तनशील युग में यह दोनों दृष्टिकोणों से गुनाहों की घड़ी है।

विचारों का जोरदार टकराव

पुराने, सामंती विचार के लोगों के दृष्टिकोण से अपनी पसंद के अनुसार शादी करना एक पाप है, और विशेष रूप से अपनी जाति या धर्म के बाहर, महिलाओं को शिक्षा देना पाप है, सभी के साथ बराबरी का व्यवहार करना पाप है। परन्तु, आधुनिक विचारधारा वाले लोगों के दृष्टिकोण से जाति व्यवस्था एक पाप है, लड़कियों को शिक्षा से वंचित करना एक पाप है, प्रेम विवाह स्वीकार्य है और समानता एक मौलिक मूल्य है। इस प्रकार पुराने और नए विचार परिवर्तनशील युग में एक-दूसरे के साथ टकरा रहे हैं।

मीडिया सहित सभी देशभक्त लोगों का यह कर्तव्य है कि हमारे समाज को इस परिवर्तनशील युग से जल्दी और कम कठिनाइयों के साथ निकालने में देश की मदद करें। 

इस परिवर्तनशील काल में मीडिया की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है, क्योंकि यह विचारों से संबंधित है, बिकाऊ वस्तुओं से नहीं। इसलिए अपने स्वभाव से मीडिया एक सामान्य व्यवसाय की तरह नहीं है, इसका काम जनता को वैचारिक नेतृत्व देना होना चाहिए।

अशांत दौर से गुजर रहा भारत 

यदि हम यूरोप के इतिहास का अध्ययन करें, जब वह अपने परिवर्तनशील काल से गुजर रहा था, अर्थात 16 वीं से 19 वीं शताब्दी तक, तो हम पाते हैं कि यह काल यूरोप में एक भयानक अवधि थी, जो अशांति, उथल-पुथल, क्रांतियों, युद्धों, अराजकता, सामाजिक कुरीतियों और बौद्धिक संघर्ष से भरी हुई थी। इस आग से गुजरने के बाद ही यूरोप में आधुनिक समाज का उदय हुआ। भारतीय उपमहाद्वीप वर्तमान में इस आग से गुजर रहा है। हम अपने इतिहास में बेहद दर्दनाक और अशांत दौर से गुजर रहे हैं।

ऐतिहासिक रूप से, यूरोप में प्रिंट मीडिया सामंती उत्पीड़न के ख़िलाफ़ जनता के एक तंत्र के रूप में उभरा। उस समय सत्ता के स्थापित तंत्र सामंती निरंकुश सत्ताधारियों (राजा, कुलीन आदि) के हाथों में थे। इसलिए लोगों को नए तंत्रों का निर्माण करना पड़ा जो उनका प्रतिनिधित्व कर सकें और उनके हितों को सामने रख सकें। 

यही कारण है कि प्रिंट मीडिया को चौथे स्तम्भ के रूप में जाना जाने लगा। यूरोप और अमेरिका में यह भविष्य की आवाज़ को उजागर करता था, जो कि स्थापित सामंती तंत्रों के विपरीत था, जो यथास्थिति बनाए रखना चाहते थे। इस प्रकार मीडिया ने सामंती यूरोप को आधुनिक यूरोप में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

प्रिंट मीडिया उस समय नियमित समाचार पत्रों या पत्रिकाओं के रूप में नहीं था, बल्कि अक्सर पेम्फलेट, पत्रक आदि के रूप में होता था जिनका सामंती विचारों और प्रथाओं पर हमला करने के लिए उपयोग किया जाता था।

यूरोप में प्रबुद्धता के युग (Age of Englightenment) में प्रिंट मीडिया ने तर्क की आवाज़ (voice of reason) को उजागर किया। वोल्टेयर ने धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वासों पर हमला किया और रूसों ने सामंती निरंकुशता पर। डिडरो ने कहा, "जब अंतिम राजा का अंतिम पुजारी की अंतड़ियों से गला घोंटा जाएगा, तब इंसान मुक्त हो जाएगा।" 

फ्रांस की सामंती व्यवस्था पर चोट 

थॉमस पेन ने मनुष्य के अधिकारों की घोषणा की और जुनियस (जिसका वास्तविक नाम हम अभी भी नहीं जानते हैं) ने निरंकुश जॉर्ज तृतीय और उनके मंत्रियों पर हमला किया (देखें - विल दुरांत की सभ्यता की कहानी: रूसो और क्रांति)। लुई XVI ने जब जेल में बंद होने के दौरान जेल पुस्तकालय में वोल्टेयर और रूसो द्वारा लिखित पुस्तकों को देखा तो कहा कि इन दो व्यक्तियों ने फ्रांस को नष्ट कर दिया है। वास्तव में उन्होंने जो नष्ट किया था वह फ्रांस नहीं बल्कि सामंती व्यवस्था थी। 

19 वीं शताब्दी में प्रसिद्ध लेखक एमिल ज़ोला ने अपने लेख 'जे' एक्यूज़' में कहा कि फ्रांसीसी सरकार ने कप्तान ड्रेफस को शैतान द्वीप में कैद करने का केवल इसलिए झूठा आरोप लगाया क्योंकि वह एक यहूदी था।

मेरी राय में भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया को यूरोप में परिवर्तनशील दौर के दौरान यूरोप की  मीडिया के द्वारा निभाई गई प्रगतिशील भूमिका के समान भूमिका निभानी चाहिए। दूसरे शब्दों में, हमारे मीडिया को केवल खबरों की रिपोर्ट नहीं करनी चाहिए, बल्कि जनता को वैचारिक नेतृत्व भी प्रदान करना चाहिए और हमारे देशों को परिवर्तनशील युग की अवधि में आधुनिक औद्योगिक राज्य बनाना उद्देश्य होना चाहिए। 

मीडिया द्वारा पिछड़े, सामंती विचारों और प्रथाओं, जातिवाद, सांप्रदायिकता और अंधविश्वास पर हमला किया जाना चाहिए तथा आधुनिक, वैज्ञानिक और तर्कसंगत विचारों को बढ़ावा देना चाहिए। लेकिन क्या हमारा मीडिया ऐसा कर रहा है?

मेरी राय में हमारे मीडिया (विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) का एक बड़ा वर्ग जनता के हित की सेवा नहीं कर रहा है, वास्तव में इसमें से अधिकांश सकारात्मक रूप से जन-विरोधी हैं।

हमारे मीडिया में तीन प्रमुख दोष हैं, जिन पर मैं प्रकाश डालना चाहूंगा।

वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाना

1. हमारा मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से गैर वास्तविक, तुच्छ और महत्वहीन मुद्दों की ओर भटकाता है। भारतीय उपमहाद्वीप में असली मुद्दे सामाजिक-आर्थिक हैं, यानी भयानक ग़रीबी जिससे हमारी 80% जनता जूझ रही है, बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी, व्यापक बाल कुपोषण, मूल्य वृद्धि, उचित चिकित्सा की कमी और बहुसंख्यक लोगों के लिए अच्छी शिक्षा का अभाव, पिछड़ी सामाजिक प्रथाएं जैसे ऑनर किलिंग और जाति उत्पीड़न, धार्मिक भेदभाव और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार आदि। 

वास्तविक मुद्दों पर चर्चा करने के बजाय, हमारा मीडिया आमतौर पर अवास्तविक, तुच्छ और महत्वहीन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करता है। जैसे - फिल्मी सितारों का जीवन, तुच्छ राजनीति, फैशन परेड, पॉप संगीत, डिस्को डांसिंग, ज्योतिष, क्रिकेट, रियलिटी शो आदि।

मीडिया द्वारा लोगों को कुछ हद तक मनोरंजन प्रदान करने में, किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है, बशर्ते यह बहुत ज़्यादा न हो। लेकिन अगर मीडिया की 90% कवरेज मनोरंजन से संबंधित है और केवल 10% वास्तविक मुद्दों पर जिनका राष्ट्र सामना कर रहा है (जिनका ऊपर उल्लेख भी किया गया है) तो मीडिया के साथ ज़रूर कुछ गड़बड़ है। पूरा प्रश्न सही अनुपात का है। 

मनोरंजन को बेरोज़गारी, कुपोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, कृषि और पर्यावरण के मुद्दों के मुक़ाबले 10 गुना ज़्यादा कवरेज मिलती है। एक भूखा या बेरोज़गार आदमी मनोरंजन चाहता है या भोजन और नौकरी?

रोटी के बदले सर्कस?

कई टीवी चैनल दिन-रात क्रिकेट दिखाते हैं। क्रिकेट वास्तव में भारतीय जनता की अफीम है। रोमन सम्राट कहते थे, "यदि आप लोगों को रोटी नहीं दे सकते हैं तो उन्हें सर्कस दें।" यह मीडिया द्वारा समर्थित हमारे भारतीय शासकों का दृष्टिकोण भी है। लोगों को क्रिकेट से जोड़े रखें ताकि वे अपनी सामाजिक और आर्थिक दुर्दशा को भूल जाएं। 

गरीबी, बेरोज़गारी, मूल्य वृद्धि, किसानों की आत्महत्या, आवास की कमी, स्वास्थ्य सेवा या शिक्षा की कमी महत्वपूर्ण मुद्दे नहीं है, बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि क्या भारत ने क्रिकेट मैच में न्यूजीलैंड (या पाकिस्तान) को हराया है, या विराट कोहली ने सेंचुरी बनायी है कि नहीं?

हमारे मीडिया द्वारा बिजनेस को ज्यादा कवरेज दी जाती है तथा स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्रों को बहुत कम। अधिकांश मीडिया संवाददाता फिल्मी सितारों, क्रिकेट, फैशन परेड, पॉप संगीत इत्यादि में भाग लेते हैं और श्रमिकों, किसानों, छात्रों, यौनकर्मियों आदि के जीवन और समस्याओं पर बहुत कम प्रकाश डालते हैं।

कुछ साल पहले मुंबई में लैक्मे फैशन वीक के आयोजन को 512 मान्यता प्राप्त पत्रकारों ने कवर किया था। उस फैशन वीक में मॉडल्स कपास से बने कपड़ों का प्रदर्शन कर रही थीं, जबकि जिन किसानों ने वह कपास उगाया था, वे मुंबई से महज कुछ दूरी पर स्थित विदर्भ क्षेत्र में आत्महत्या करने को मजबूर थे। स्थानीय स्तर पर एक या दो पत्रकारों को छोड़कर किसी ने उन किसानों की दुर्दशा की कहानी को नहीं बताया।

शिक्षा क्षेत्र में मीडिया कवरेज आईआईटी जैसे कुलीन कॉलेजों पर केंद्रित है, लेकिन हजारों प्राथमिक स्कूलों की दुर्दशा की बहुत कम कवरेज होती है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में जहां से शिक्षा की शुरुआत होती है।

भारत में कम हो रही नौकरियां

यूरोप में विस्थापित किसानों को उन कारखानों में रोज़गार मिला जो औद्योगिक क्रांति के कारण बने। इसके विपरीत भारत में, औद्योगिक नौकरियों में अब कमी हो रही है। कई मिलें बंद हो गई हैं और अब केवल रियल एस्टेट बन गई हैं। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में नौकरी की प्रवृत्ति में तेज गिरावट देखी गई है। 

भारत में ऑटो क्षेत्र (जो कि अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का एक संकेतक माना जाता है) की बिक्री में लगभग 40% की गिरावट देखी गई। TISCO कंपनी में 1991 में उसके स्टील प्लांट में 85,000 श्रमिक थे और तब यह कंपनी 10 लाख टन स्टील का निर्माण करती थी। 2005 में TISCO ने केवल 44,000 श्रमिकों के साथ 50 लाख टन स्टील का निर्माण किया। 90 के दशक के मध्य में बजाज कंपनी 24,000 श्रमिकों के साथ 10 लाख दो पहिया वाहनों का उत्पादन कर रही था। 2004 तक इसने 10,500 श्रमिकों के साथ 24 लाख यूनिट का उत्पादन किया।

गरीबी के कारण वेश्यावृति!  

सवाल उठता है कि फिर ये लाखों विस्थापित लोग कहाँ जाते हैं? वे उन शहरों में जाते हैं, जहाँ वे घरेलू नौकर, फेरीवाला, भिखारी या अपराधी बन जाते हैं। यह अनुमान है कि दिल्ली में नौकरानियों के रूप में काम करने वाली झारखंड की 1 से 2 लाख किशोरियाँ हैं। गरीबी के कारण सभी शहरों में वेश्यावृत्ति व्याप्त है। 1.2 करोड़ युवा हर साल भारत में नौकरी के बाजार में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन आर्थिक मंदी के कारण नौकरियां बहुत कम हो गई हैं।

झोलाछाप डॉक्टरों की भरमार

स्वास्थ्य के क्षेत्र में पाया जाता है कि भारत के हर शहर में झोलाछाप डॉक्टरों की संख्या असली डॉक्टरों की संख्या से कई गुना अधिक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि गरीब लोग डॉक्टर के पास जाने का खर्चा नहीं उठा सकते हैं। ग्रामीण इलाकों में हालत ज्यादा खराब हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर तैनात सरकारी डॉक्टर आमतौर पर महीने में एक या दो दिन ड्यूटी पर आते हैं और बाकी समय शहरों में अपने निजी नर्सिंग होम चलाते हैं।

बाल कुपोषण की स्थिति भयावह 

'शाइनिंग' इंडिया में, बाल कुपोषण के आंकड़े दुनिया में सबसे ख़राब हैं। यूनिसेफ के आंकड़ों और ग्लोबल हंगर इंडेक्स के मुताबिक़, दुनिया के सबसे गरीब देशों में 5 साल से कम उम्र के बच्चों का प्रतिशत गिनी बिसाऊ में 25 फीसदी, सिएरा लियोन में 27 फीसदी, इथियोपिया में 38 फीसदी और भारत में 48 फीसदी है। 

दुनिया के सभी कुपोषित बच्चों में से एक तिहाई बच्चे भारतीय हैं। भारत में एक औसत परिवार 10 साल पहले की तुलना में 100 किलोग्राम कम अनाज खा रहा है (देखें - पी. साईनाथ का लेख 'स्लमडॉग और करोड़पति।’)

इस सब को हमारे मीडिया द्वारा काफी हद तक नजरअंदाज कर दिया गया है, जो हमारे आर्थिक रूप से कमजोर 80 प्रतिशत जनता की कठोर आर्थिक वास्तविकताओं पर आंख मूँद लेता है और इसके बजाय कुछ पोटम्पकिन गांवों (Potempkin villages) पर ध्यान केंद्रित करता है, जहां ग्लैमर और चकाचौंध दिखती है। 

हमारा मीडिया काफी हद तक फ्रांस की रानी मैरी एंटोनेट की तरह है, जिन्हें जब यह बताया गया कि लोगों के पास रोटी नहीं है तो उन्होंने कहा कि वे केक खा सकते हैं।

सांप्रदायिक घृणा को दिया जा रहा बढ़ावा 

2. भारत में कई टीवी चैनल सांप्रदायिक घृणा को बढ़ावा दे रहे हैं और इस तरह वे बेशर्मी से सत्तारूढ़ पार्टी के हितों की सेवा कर रहे हैं, जो इसी बुनियाद पर टिकी हुई है। कई भारतीय टीवी चैनलों ने कथित तौर पर कोरोना वायरस फैलाने के लिए दिल्ली में तब्लीग़ी जमात मरकज़ को कलंकित किया है और इसके प्रमुख मौलाना साद को शैतान के रूप में चित्रित किया गया है, हालांकि यह कहना हास्यास्पद और बिलकुल बेतुका है कि तब्लीग़ी जमात द्वारा जानबूझकर बीमारी फैलाई जा रही थी। 

यह दिखाते हुए परोक्ष रूप से यह संदेश भेजा जा रहा है कि सभी भारतीय मुसलमान कोरोना के प्रसारकर्ता हैं। इस तरह से भारत में पूरे मुसलिम समुदाय को बदनाम किया जा रहा है और कई मुसलमानों का विभिन्न तरीकों से बहिष्कार और उत्पीड़न किया जा रहा है।

विचार से और ख़बरें

भारत बहुत विविधता वाला देश है और इसके 130  करोड़ लोगों में से लगभग 20-25 करोड़ लोग मुसलिम हैं। इसलिए यदि हम एकजुट और समृद्ध रहना चाहते हैं तो यह बिलकुल आवश्यक है कि भारत में रहने वाले सभी समुदायों के लिए सहिष्णुता और सम्मान होना चाहिए। 

जो लोग हमारे बीच धार्मिक कलह के बीज बोते हैं, वे वास्तव में हमारे देश के दुश्मन हैं और सच्चाई यह है कि हमारे मीडिया का एक बड़ा वर्ग इस राष्ट्रीय अपराध में शामिल है।

मीडिया अंधविश्वास को बढ़ावा देता है

3. जैसा कि मैंने पहले ही उल्लेख किया है, इस परिवर्तनशील युग में, मीडिया की भूमिका केवल जनता को समाचार देने की ही नहीं है, बल्कि हमारे लोगों को आधुनिक, वैज्ञानिक युग में आगे बढ़ने में मदद करने की भी है। इस उद्देश्य के लिए मीडिया को तर्कसंगत और वैज्ञानिक विचारों का प्रचार करना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय हमारे मीडिया का एक बड़ा वर्ग विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों का प्रचार करता है।

यह सच है कि अधिकांश भारतीय जातिवाद, सांप्रदायिकता और अंधविश्वासों में फंसे हैं। हालांकि, सवाल यह है कि क्या मीडिया को तर्कसंगत और वैज्ञानिक विचारों का प्रचार करके हमारे लोगों के बौद्धिक स्तर को ऊपर उठाने की कोशिश करनी चाहिए या उसे इस निम्न स्तर तक उतरना चाहिए और अंधविश्वास को फैलाते रहना चाहिए?

यूरोप: मीडिया ने बदली मानसिकता

यूरोप में प्रबुद्धता के युग (Age of Enlightenment) के दौरान मीडिया (जो उस समय केवल प्रिंट माध्यम था) ने लोगों के मानसिक स्तर को ऊपर उठाने और स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और आधुनिक सोच के विचारों का प्रचार करके लोगों की मानसिकता को बदला। वोल्टेयर ने अंधविश्वास पर हमला किया, रूसो ने सामंती व्यवस्था पर हमला किया और डिकेंस ने जेलों, स्कूलों आदि में भयानक परिस्थितियों की आलोचना की। क्या हमारे मीडिया को भी ऐसा नहीं करना चाहिए?

एक समय में राजा राम मोहन राय जैसे साहसी लोगों ने सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा आदि (अपने अख़बार मिरतुल अख़बर और सम्बाद कौमुदी में) के ख़िलाफ़ लिखा था। निखिल चक्रवर्ती ने 1943 के बंगाल अकाल की भयावहता के बारे में लिखा। मुंशी प्रेमचंद और शरत चंद्र चट्टोपाध्याय ने सामंती प्रथाओं और महिलाओं के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लिखा। मंटो ने विभाजन की भयावहता के बारे में लिखा।

लेकिन आज हम अपने मीडिया में क्या देखते हैं? कई टीवी चैनल ज्योतिष को दिखाते हैं। ज्योतिष को खगोल विज्ञान जैसा नहीं समझना चाहिए। खगोल विज्ञान एक विज्ञान है, जबकि ज्योतिष शुद्ध अंधविश्वास और पाखण्ड है।

थोड़ा सामान्य ज्ञान भी हमें बता सकता है कि तारों और ग्रहों की चाल का कोई तर्कसंगत संबंध नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे देश में अधिकांश लोग ज्योतिष में विश्वास करते हैं। 

सरकारों की चाटुकारिता कर रहे पत्रकार! 

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि मीडिया में बिल्कुल भी अच्छे पत्रकार नहीं हैं। कई बेहतरीन पत्रकार हैं - पी. साईनाथ उनमें से एक हैं, जिनका नाम भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में सोने के अक्षरों में लिखा जाना चाहिए। अगर वे कई राज्यों में किसानों की आत्महत्याओं को उजागर नहीं करते तो उन किसानों की कहानी (जो कई वर्षों तक दबा दी गई थी) शायद कभी नहीं बताई जाती। बहुसंख्यक पत्रकार जनता की सेवा करने के बजाय, बेशर्मी से सरकारों के चाटुकार बन गए हैं।

मीडिया की स्वतंत्रता के दमन की शिकायत करने वालों को मेरा जवाब यह है - स्वतंत्रता अपने आप में एक उद्देश्य नहीं है, यह केवल एक उद्देश्य का साधन हो सकता है और सही उद्देश्य जनता को बेहतर जीवन प्रदान करना है। अगर मीडिया की आज़ादी से वह उद्देश्य प्राप्त होता है तो मीडिया समर्थन का हकदार है अन्यथा नहीं। क्या मीडिया को सांप्रदायिक या जातिगत नफरत फैलाने की आज़ादी होनी चाहिए? 

क्या वास्तविक मुद्दों के बजाय तुच्छ और महत्वहीन मुद्दों की ओर लोगों का ध्यान भटकाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए? क्या मीडिया को अंधविश्वास फैलाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए? हरगिज नहीं।

ऐसी कोई स्वतंत्रता नहीं है जो पूर्ण रूप से हो। सभी स्वतंत्रताएं कुछ प्रतिबंधों और जिम्मेदारियों के साथ होती हैं। लोकतंत्र में हर व्यक्ति जनता के प्रति जवाबदेह है और मीडिया भी। जनता को बेहतर और सभ्य जीवन पाने में मीडिया को मदद करनी चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे उपमहाद्वीप में मीडिया ऐसा नहीं कर रहा है और अक्सर इसके ठीक विपरीत कार्य कर रहा है। इसलिए मैं मीडिया के दमन पर विलाप नहीं कर सकता। जब यह 2014 के पूर्व अपेक्षाकृत ‘मुक्त’ था, तब यह क्या कर रहा था?

हमारे मीडिया को अब आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और जिम्मेदारी और परिपक्वता की भावना विकसित करनी चाहिए। इसके साथ ही देशवासियों की सेवा का काम शुरू करना चाहिए...जब तक ऐसा नहीं होता है, मीडिया की स्वतंत्रता के दमन की शिकायत निरर्थक है।

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