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कश्मीरी पंडित: क्यों करना पड़ा पलायन; 1987 का चुनाव था कारण?

30 साल पहले कश्मीर घाटी से लाखों पंडितों को किन परिस्थितियों में अपना घर-बार छोड़कर भागना पड़ा? बाद के सालों में हालात सुधरे, केंद्र और राज्य में हर रंग की सरकारें भी आईं, फिर भी कोई सरकार निर्वासित पंडितों में यह भरोसा क्यों नहीं पैदा नहीं कर पाई कि वे अपने घरों को वापस जा सकें? कश्मीर से पंडितों के पलायन पर इस सीरीज़ में हम ऐसे ही सवालों के जवाब खोजने का प्रयास करेंगे। पेश है पहली कड़ी। 
नीरेंद्र नागर

आज से 30 साल पहले कश्मीर घाटी में कुछ ऐसी ज़हरीली हवा फैली कि लाखों की संख्या में लोगों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ा। ये लोग कश्मीरी हिंदू पंडित थे जो घाटी में सालों से रहते आए थे लेकिन अचानक परिस्थितियां ऐसी बदलीं कि अपनी जान और इज़्ज़त बचाने के लिए उन्हें पलायन के अलावा कोई और रास्ता नहीं दिखा।

इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। 1947 में भारत में विलय से पहले और बाद में भी कश्मीर में राजनीतिक उथल-पुथल के कई दौर आए लेकिन कश्मीरी पंडितों के सामने ऐसी नौबत नहीं आई कि उन्हें अपना घर-बार छोड़ना पड़े। ऐसे में जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि आख़िर 1990 में एकाएक ऐसा क्या हुआ कि प्रशासन और पुलिस उग्रवादियों के सामने पंगु हो गए? क्या यह संभव था कि प्रशासन ज़्यादा सख़्त होता तो यह पलायन रोका जा सकता था? कहीं ऐसा तो नहीं कि कमज़ोर प्रशासन ने ही उनके पलायन को बढ़ावा दिया क्योंकि वह उन्हें सुरक्षा नहीं दे पा रहा था? और अगर ऐसा ही था तो स्थिति में सुधार होने के बाद किसी सरकार ने पंडितों की घर वापसी के कारगर उपाय क्यों नहीं किए?

पिछले 30 सालों में केंद्र और राज्य में हर रंग की सरकार आई मगर कोई भी सरकार निर्वासित पंडितों में यह भरोसा क्यों नहीं पैदा कर पाई कि वे अपने घरों को वापस जा सकें?

कश्मीर से पंडितों के पलायन पर इस सीरीज़ में हम इन्हीं सवालों के जवाब खोजने का प्रयास करेंगे। आज की पहली कड़ी में हम यह समझेंगे कि 1990 से पहले के कुछ सालों में ऐसा क्या हुआ जिसकी परिणति पंडितों के सामूहिक पलायन के रूप में हुई।

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जिन्हें कश्मीर की राजनीति के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है, उनकी सुविधा के लिए बता दें कि 1990 से पहले जम्मू-कश्मीर राज्य में केवल दो पार्टियों की सरकारें रही थीं। एक नेशनल कॉन्फ़्रेंस और दूसरी कांग्रेस। 1947 में राज्य के भारत में विलय के बाद वहाँ शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कॉन्फ़्रेंस की सरकार बनी लेकिन कुछ ही सालों बाद राज्य के अधिकारों को लेकर नेहरू से उनके मतभेद हो गए और केंद्र ने उनकी सरकार गिरवा दी। शेख़ अब्दुल्ला क़रीब 19 सालों तक नज़रबंद रहे। इस बीच वहाँ कांग्रेस की या कांग्रेस-समर्थित कठपुतली सरकारें रहीं। 1975 में शेख़ अब्दुल्ला को रिहा किया गया और उन्हें राज्य का नेतृत्व सौंप दिया गया। 1982 में उनकी मौत के बाद उनके बेटे फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने शासन सँभाला।

शेख़ अब्दुल्ला एक लोकप्रिय नेता थे और 1947 से पहले से ही उन्हें राज्य के लोगों का भारी समर्थन प्राप्त था। इसी कारण उनके ख़िलाफ़ कोई बड़ी ताक़त कभी घाटी में उभर नहीं पाई। लेकिन फ़ारूक़ के पास न अनुभव था, न वैसा जन-समर्थन। सत्ता में रहते हुए भी फ़ारूक़ केंद्र सरकार की कृपा पर आश्रित थे जिसने एक बार उनकी पार्टी में टूट करवाकर उनकी सरकार भी गिरवा दी थी। केंद्र की साज़िशों से बाध्य होकर 1987 के चुनावों में फ़ारूक़ को कांग्रेस का हाथ थामना पड़ा।

नेशनल कॉन्फ़्रेंस और कांग्रेस के बीच यह तालमेल कश्मीर की जनता को रास नहीं आया। इस गठजोड़ से वहाँ विक्षोभ का माहौल पनपने लगा। एक बड़े समुदाय को लग रहा था कि नेशनल कॉन्फ़्रेंस सत्ता के लिए कश्मीर के हितों को दाँव पर लगा रही है और उसके विशेष दर्ज़े को कमज़ोर कर रही है।

मुसलिम यूनाइटेड फ़्रंट बना

नेशनल कॉन्फ़्रेंस और कांग्रेस के गठजोड़ का विरोध करने के लिए कुछ पार्टियों ने मुसलिम यूनाइटेड फ़्रंट (एमयूएफ़) नामक गठबंधन बनाया और 1987 का चुनाव लड़ा। इस चुनाव में एक तरफ़ नेशनल कॉन्फ़्रेंस व कांग्रेस थीं तो दूसरी तरफ़ एमयूएफ़। इन चुनावों में बड़े पैमाने पर धाँधली की गई और एमयूएफ़ के कई विजयी उम्मीदवारों को पराजित घोषित कर दिया गया। कुछ कश्मीरी विशेषज्ञ मानते हैं कि कश्मीरी युवाओं को हिंसक प्रतिक्रिया की ओर मोड़ने में 1987 के फ़र्ज़ी चुनाव की बहुत बड़ी भूमिका रही।

ऐसा नहीं है कि कश्मीर में इससे पहले हिंसक या सांप्रदायिक तत्व नहीं थे। वे थे लेकिन इतने ताक़तवर नहीं थे और न ही उनको जनता का समर्थन हासिल था। ऐसे तत्वों को ताक़त मिली ग़ुलाम मोहम्मद शाह से जो फ़ारूक़ अब्दुल्ला के बहनोई थे और जुलाई 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की मदद से मुख्यमंत्री बन बैठे थे। चूँकि शाह के पास जन-समर्थन नहीं था, इसलिए उन्होंने अपनी ताक़त बढ़ाने के लिए इस्लामी एजेंडे का सहारा लिया और इस्लामपंथी नेताओं की मदद से उसको बढ़ावा दिया। ग़ुलाम मोहम्मद शाह के शासन में ही हिंदुओं और मंदिरों पर हमले शुरू हो गए थे जिसकी परिणति दक्षिण कश्मीर के 1986 के दंगों में हुई।

बड़े पैमाने पर हुई धाँधली

शाह की करतूतों को देखकर केंद्र सरकार ने 1986 में फिर से फ़ारूक़ अब्दुल्ला का हाथ थामा और 1987 में नेशनल कॉन्फ़्रेंस और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव भी लड़ा। लेकिन जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा, ये चुनाव निष्पक्ष नहीं थे और एमयूएफ़ के बैनर तले चुनाव में उतरे इस्लामपंथी और अलगाववादी दलों को हराने के लिए भारी पैमाने पर धाँधली की गई। धाँधली के कुछ प्रमाण जो मीडिया में आए, उनके अनुसार चुनाव से दो हफ़्ते पहले उन इलाक़ों में जहाँ एमयूएफ़ तथा दूसरे प्रतिद्वंद्वी ताक़तवर थे, वहाँ से 600 कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। एक चुनाव क्षेत्र में जहाँ एमयूएफ़ का प्रत्याशी भारी बहुमत से आगे चल रहा था और सत्ता पक्ष का उम्मीदवार हार के अंदेशे से घर जा चुका था, उसे वापस बुलाकर विजेता घोषित कर दिया गया। इसी तरह कई चुनाव क्षेत्रों में सत्ता पक्ष के उम्मीदवारों को जिताने के लिए बड़ी संख्या में वैध मतों को अवैध घोषित कर दिया गया। 

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धाँधली का एक प्रमाण यह भी है कि ऐसे कई क्षेत्रों में जहाँ एमयूएफ़ के उम्मीदवार आगे चल रहे थे, वहाँ ग़िनती पूरी करने में तीन दिन लगे। बाद के दिनों में बीबीसी से बातचीत करते हुए कांग्रेस के एक नेता ने स्वीकारा भी कि 1987 के चुनावों में बड़े पैमाने पर गड़बड़ियाँ की गईं और कई हारे हुए उम्मीदवारों को विजेता घोषित कर दिया गया। 

इन चुनावी धाँधलियों से इस्लामी कट्टरपंथी और अलगाववादी तत्वों को सत्ता में आने से रोकने का केंद्र सरकार का मक़सद तो पूरा हो गया लेकिन इसका एक बदतर परिणाम यह निकला कि जो शक्तियाँ अब तक वोट के बल पर शासन में आना चाहती थीं, उनके पास अब दो ही रास्ते बचे थे। या तो वे निराश होकर चुप बैठ जातीं या फिर हिंसा का रास्ता अपना लेतीं। यदि पाकिस्तान से मदद नहीं मिली होती तो शायद वे पहला रास्ता ही चुनतीं। लेकिन पाकिस्तान जो 1971 में बांग्लादेश को अलग करने में भारत की भूमिका से ख़ार खाए बैठा था, उसके लिए बदला चुकाने का यह अच्छा मौक़ा था। 

आतंकवादी गुटों की दहशतगर्दी

नतीजतन 1988 में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट ने हिज़्बुल मुजाहिदीन और जमाते इस्लामी कश्मीर जैसे कुछ और आतंकवादी संगठनों के साथ मिलकर अगले दो सालों में कश्मीर में ऐसे हालात पैदा कर दिए कि सरकारी कर्मचारियों के लिए काम करना मुश्किल हो गया। सरकार के ख़िलाफ़ उनकी इस लड़ाई में चूँकि पंडित साथ नहीं थे, इसलिए वे भी उनके शत्रु हो गए। और जैसा कि हर आतंकवादी हिंसा में होता है - शत्रु पक्ष का कमज़ोर नागरिक, जो गोली का जवाब गोली से नहीं दे सकता, वही उसका पहला और आसान शिकार होता है। कश्मीर में भी वही हुआ।

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आगे क्या हुआ, कैसे उग्रवादी गुटों ने एक-एक कर पंडितों को निशाना बनाना शुरू किया और अंत में उन्हें कश्मीर छोड़कर जाना पड़ा, उसके बारे में हम अगली कड़ी में बात करेंगे। लेकिन एक घड़ी के लिए ठहरकर सोचिए, अगर केंद्र और राज्य सरकार ने 1987 के चुनावों में गड़बड़ियाँ नहीं कराई होतीं तो क्या उग्रवादी ताक़तों को अपनी हिंसक गतिविधियों के लिए कोई बहाना मिलता?
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