ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अख़बार गार्डियन को ब्रिटेन के राष्ट्रीय अभिलेखागार से एक दस्तावेज़ हाथ लगा जिसमें साफ़ लिखा है कि काले आप्रवासियों या विदेशियों को महारानी एलिज़ाबेथ के यहाँ केवल सेवकों के रूप में तो रखा जाता था, दफ़्तरी कर्मचारियों के रूप में नहीं। मार्च 1968 का यह दस्तावेज़ गृहमंत्री जेम्स कैलहन के नस्ली भेदभाव संबन्ध विधेयक के लिए बनी कैबिनेट समिति की रिपोर्ट है। ब्रिटेन में उन दिनों लेबर पार्टी की सरकार थी और प्रधानमंत्री हैरल्ड विल्सन नस्ली भेदभाव को सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ रोज़गार और सेवा क्षेत्र से भी हटाना चाहते थे। विधेयक पर बहस कराने के लिए महारानी की स्वीकृति लेनी ज़रूरी थी और महारानी ने अपने कर्मचारियों की नियुक्ति को नए क़ानून के दायरे से बाहर रखने का प्रबंध होने के बाद स्वीकृति दी थी।
इस रहस्योद्घाटन ने बोरिस जॉन्सन सरकार के इन दावों पर फिर से सवालिया निशान लगा दिए हैं कि ब्रिटेन में अब संस्थागत रूप में नस्ली भेदभाव नहीं बचा है। पिछले मार्च में ही नस्ली और जातीय विषमता आयोग ने अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए दावा किया था कि जातीय अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे भेदभाव में अब ब्रितानी व्यवस्था का कोई हाथ नहीं है। आयोग का कहना था कि जातीय अल्पसंख्यकों के बच्चे स्कूली शिक्षा में श्वेत बहुसंख्यकों के बराबर हैं। लगभग बराबरी के अवसर मिल रहे हैं और वेतन का अंतर भी घटकर मात्र 2.3% ही रह गया है। रुकावटें और विषमताएँ हैं। लेकिन उनकी वजहें नस्लवाद के बजाय पारिवारिक प्रभाव, आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि, धर्म और संस्कृति हैं।
बात यहीं ख़त्म नहीं होती। गार्डियन की कहानी के तार किसी न किसी रूप में महारानी की छोटी पौत्रवधू मैगन मार्कल की कहानी के साथ भी जुड़े हैं। अफ़्रीकी मूल की अमेरिका निवासी डोरिया रैगलैंड और श्वेत अमेरिकी टॉमस मार्कल की बेटी मैगन जब तीन साल पहले ब्रितानी महारानी की पौत्रवधू बन कर विंडसर प्रासाद में आई थी तो उसे ब्रितानी राजघराने की बदलते समाज और वक़्त के साथ चलने की कोशिश के रूप में देखा और सराहा गया था।
लेकिन मिश्रित नस्ल की राजकुमारी के ब्रितानी राजघराने के तौर-तरीक़ों को आधुनिक बनाने की परीकथा बहुत दिनों तक नहीं चल पाई और मैगन ब्रितानी राजघराने की परंपराओं की घुटन से उकता कर राजकुमार हैरी को भी अमेरिका ले गईं। अफ़वाहें थीं कि मैगन अपने बेटे आर्ची के साथ हुए व्यवहार और उसके भविष्य को लेकर नाख़ुश थीं।
आप कह सकते हैं कि दुर्भावना को व्यवस्था और व्यवहार से ही निकाला जा सकता है। लोगों के मन को तो साफ़ नहीं किया जा सकता। पर असली सवाल यही है। क्या नस्लवाद को ब्रितानी व्यवस्था और व्यवहार से निकाला जा चुका है? सरकार के अपने ही आँकड़े इसकी तसदीक नहीं करते। जातीय अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव को मिटाने के लिए पूर्व मंत्री टिरीज़ मे (थेरेसा मे) ने 2016 में जातीयता के तथ्य और आँकड़े देने वाली एक वेबसाइट बनायी थी जिसे दुनिया का पहला और अनूठा प्रयास माना जाता है। इसके अनुसार श्वेत ब्रितानी नागरिकों की तुलना में अश्वेत मुस्लिम समुदाय के लोगों की बेरोज़गारी की दर दोगुनी और पुलिस के द्वारा रोक कर तलाशी लिए जाने की दर कई गुना है।
पिछले साल एक सर्वेक्षण संस्था ने एक और बड़ा सर्वेक्षण कराया था जिसे गार्डियन ने प्रकाशित किया था। इस सर्वेक्षण के अनुसार अश्वेत, एशियाई और मुस्लिम समुदाय के 55% लोगों का मानना था कि उनके जीवन काल में नस्ली भेदभाव वैसा ही रहा है या बढ़ा है। घटा नहीं है।
उत्तरी लंदन के लेबर पार्टी सांसद डेविड लैमी की अध्यक्षता में 2017 में एक सर्वेक्षण हुआ था जिसमें पाया गया था कि इंग्लैंड और वेल्स की न्याय व्यवस्था में जातीय अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव बरता जाता है। अदालतों में जातीय अल्पसंख्यक जजों की संख्या नगण्य है। लंदन, मैनचैस्टर और योर्कशायर जैसे बड़े पुलिस बलों में नस्ली भेदभाव के कई मामले सामने आए हैं और अफ़सरों को निकाला भी गया है। जेलरक्षकों के नस्लवाद के मामले भी आते रहते हैं।
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