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सुंदरलाल बहुगुणा : ज़मीन की आवाज़ का ख़ामोश हो जाना! 

गाँधी जी के आदर्शों को बहुगुणा जी ने केवल सैद्धांतिक रूप से ही स्वीकार नहीं किया बल्कि अपने जीवन में उतारा भी था। वे खादी पहनते थे। गाँधी जी की तरह आश्रम का सादा जीवन जीते थे और गाँधी के सत्याग्रह, अनशन और घूम-घूम कर जन-जागरूकता फैलाने जैसे अस्त्रों का प्रयोग करते थे। यह सब उन्होंने गाँधी जी और उनके अनुयायियों से सीखा था।
शिवकांत | लंदन से

प्रकृति के प्रहरी पद्म विभूषण सुंदरलाल बहुगुणा का चले जाना भारत ही नहीं पूरे विश्व के जल-जंगल और ज़मीन की आवाज़ का ख़ामोश हो जाना है। दुनिया ही नहीं भारत के भी अधिकांश लोग उन्हें पेड़ों की रक्षा के लिए उत्तराखंड में चले चिपको आंदोलन के सूत्रधार के रूप में जानते हैं। उन्हें वृक्षमित्र के नाम से पुकारा जाता है।

वृक्षमित्र होने के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व के और भी बहुत से आयाम थे। पर्यावरण के प्रहरी बनने से पहले वे पत्रकार थे, गाँधी जी के स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने वाले स्वतंत्रता सेनानी थे। सामाज सुधारक थे और विचारक थे। 

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छरहरे बदन के, हमेशा खादी पहनने वाले, मृदुभाषी बहुगुणा जी से पहली मुलाक़ात टिहरी से कोई 22 किलोमीटर दूर सिल्यारा गाँव में उनके पर्वतीय नवजीवन मंडल आश्रम में हुई थी। सफ़ेद दाढ़ी और सिर पर सफ़ेद खादी का पटका रखने के कारण देखने में शिरडी साँई और गाँधी जी का अवतार लगते थे। 

बहुगुणा जी का ध्यान उन दिनों भागीरथी और भिलंगना के संगम पर बन रहे टिहरी बाँध की ओर मुड़ चुका था। 1992 में ब्राज़ील के सैलानी शहर रियो-दे-जनेरो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन होने वाला था और बहुगुणा जी टिहरी बाँध के विरोध में सत्याग्रह चला रहे थे। 

मैं पर्यावरण बनाम विकास पर बीबीसी हिंदी के कार्यक्रमों का एक धारावाहिक बनाने के लिए लंदन से भारत गया था। हिमालय की नदियों पर बन रही टिहरी बाँध समेत 40 छोटी-बड़ी नदी-बाँध परियोजनाओं पर बहुगुणा जी के साथ धूप से तपी दोपहरी में काफ़ी लंबी चर्चा हुई। उनकी आपत्तियाँ विकास के बजाय विकास के लिए चुनी जा रही शैली पर थीं।

टिहरी बाँध के विरोध को वे हिमालय की नदियों और पेड़ों के साथ हो रही छेड़छाड़ के रूप में देखते थे जिसके नतीजे ग्लेशियरों में बन रही झीलों के टूटने और बादलों के फटने से आने वाली बाढ़ से लेकर बारहमासी स्रोतों और नदियों के सूखने जैसे भयावह हो सकते थे।

टिहरी बाँध के ख़िलाफ़ अनशन 

बहुगुणा जी से दूसरी मुलाक़ात टिहरी बाँध की दीवार से कुछ ही सौ गज की दूरी पर भागीरथी के किनारे बनी उनकी गंगा कुटी में हुई, जहाँ वे बाँध के ख़िलाफ़ आमरण अनशन पर बैठे थे। 1995 का साल था। बाँध का काम तेज़ी से चल रहा था और टिहरी में पानी भरने लगा था। मैं बीबीसी हिंदी के लिए गंगा पर एक धारावाहिक बनाने गया था। 

उत्तराखंड के दूसरे पर्यावरण प्रहरियों को बहुगुणा जी के शरीर में आती जा रही कमज़ोरी को लेकर चिंता होने लगी थी। लेकिन हमारी चर्चा के एक-दो दिन बाद ही नरसिंह राव सरकार ने बाँध परियोजनाओं पर समीक्षा समिति के गठन का आश्वासन देकर बहुगुणा जी को 45 दिन लंबे अनशन से उठा लिया। 

sundarlal bahuguna demise in uttarakhand - Satya Hindi

टिहरी कांग्रेस के सचिव रहे

गाँधी जी के आदर्शों को बहुगुणा जी ने केवल सैद्धांतिक रूप से ही स्वीकार नहीं किया बल्कि अपने जीवन में उतारा भी था। वे खादी पहनते थे। गाँधी जी की तरह आश्रम का सादा जीवन जीते थे और गाँधी के सत्याग्रह, अनशन और घूम-घूम कर जन-जागरूकता फैलाने जैसे अस्त्रों का प्रयोग करते थे। यह सब उन्होंने गाँधी जी और उनके अनुयायियों से सीखा था। वे अक्सर अपने गुरु श्रीदेव सुमन जी की चर्चा किया करते थे जिन्होंने टिहरी रियासत को गढ़वाल नरेश से मुक्ति दिलाने के लिये संघर्ष किया, जेल गए और वहाँ 84 दिन लंबे अनशन के बाद 1944 में अपने प्राण त्याग दिए। युवा बहुगुणा उनके ही प्रभाव में आकर टिहरी कांग्रेस के सचिव बने थे।

आज़ादी के बाद बहुगुणा जी कांग्रेस की राजनीति के साथ-साथ पत्रकारिता में सक्रिय हुए। वे हिंदुस्तान के लिए स्तंभ भी लिखते थे। राजनीति में रहते तो शायद हेमवती नंदन बहुगुणा की तरह वे भी ऊपर तक जाते।

लेकिन 1956 में उनका विवाह विमला देवी नौटियाल से हुआ जो गाँधी जी की सहयोगी सरला बहन के साथ काम करती थीं। विवाह इस शर्त पर हुआ था कि बहुगुणा जी राजनीति छोड़ समाजसेवा के काम करेंगे। इसलिए बहुगुणा जी को जीवन की दिशा मोड़नी पड़ी और वे मानते थे कि यही दिशा उनकी प्रकृति के अनुकूल भी थी।

शराबबंदी, चिपको आंदोलन 

बहुगुणा जी ने विमला जी के साथ मिलकर सिलयारा गाँव में पर्वतीय नवजीवन मंडल की स्थापना की और दलित-अधिकार, महिला उत्थान और शराबबंदी जैसे कई सर्वोदयी आंदोलनों को चलाना शुरू किया। उत्तराखंड में शराबबंदी को लेकर उनका योगदान चिपको आंदोलन से किसी मायने में कम नहीं है। इस आंदोलन का नेतृत्व महिलाओं को दिया गया और अंततः मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी जी के कार्यकाल में 1969 में शराबबंदी लागू कर दी गई जो अगले बीस साल तक चली। 

शराबबंदी आंदोलन के दौरान चिपको की भी नींव पड़ी क्योंकि शराबबंदी हो जाने के बाद महिलाओं का ध्यान लगातार सड़कों और दूसरी परियोजनाओं के लिए ठेकेदारों के द्वारा काटे जा रहे पेड़ों की तरफ़ गया।

हमारी बातचीत के दौरान बहुगुणा जी ने स्वीकार किया था कि पेड़ों को काटने वाले आरों से बचाने के लिए उन से लिपट कर उनकी रक्षा करने का विचार राजस्थान में हुए खेजड़ली बलिदान से आया। 

खेजड़ली की घटना

खेजड़ली राजस्थान की मारवाड़ रियासत का गाँव है जहाँ गोचर भूमि में खेजड़ी के पेड़ों का जंगल हुआ करता था। कहते हैं कि वहाँ के राजा अभय सिंह ने 1787 में अपने एक महल के लिए अपने मंत्री से लकड़ियों का प्रबंध करने के लिए कहा। मंत्री अपने सिपाहियों के साथ पेड़ों को काटने खेजड़ली गया। गाँव की औरतों ने सिपाहियों को रोका और पेड़ बचाने के लिए पेड़ों से लिपट गईं। कहते हैं कि मंत्री ने सिपाहियों को हुकुम दिया कि लिपटे हुए लोगों समेत पेड़ों पर कुल्हाड़ियाँ चला दें। देखते ही देखते 363 औरतें और मर्द पेड़ों के लिए शहीद हो गए।

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महिला मंगल दल का गठन 

उत्तराखंड का चिपको आंदोलन भी कुछ इसी तर्ज़ पर शुरू हुआ। उत्तराखंड के कुमाऊँ मंडल में 1962 के चीन युद्ध की पराजय के बाद सीमा सुरक्षा के लिए सड़कों का जाल बिछाने का काम शुरू किया गया था। सड़कों लिए रास्ता साफ़ करने का काम ठेकेदारों को दिया जाता था जो लकड़ी माफ़िया के साथ मिलकर अंधाधुंध पेड़ काटते थे। इसे रोकने के लिए सुंदरलाल बहुगुणा के साथ-साथ दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल के संस्थापक चंडीप्रसाद भट्ट ने महिलाओं को संगठित किया और महिला मंगल दल बनाए। 

चमोली ज़िले के रैणी गाँव में भी एक महिला मंगल दल बना जिसकी अध्यक्षता गौरा देवी को सौंपी गई। 1974 की शुरूआत में रैणी गाँव के ढाई हज़ार पेड़ों को काटने का ठेका दिया गया। महिलाओं ने पेड़ों की कटाई के विरोध में 26 मार्च को रैली निकाली। लेकिन ठेकेदार अड़े रहे। महिलाओं ने दिन भर पेड़ों से लिपट कर उन्हें कटने नहीं दिया।

पूरे देश के समाचार माध्यमों में पेड़ रक्षा की इस नई शैली की चर्चा हुई और बहुगुणा जी ने 4700 किलोमीटर की पदयात्रा करके हिमालय के कोने-कोने में लोगों को पर्यावरण की रक्षा में पेड़ों के महत्व के प्रति जागरूक बनाया।

चिपको आंदोलन बना मिसाल

पुराने कांग्रेसी होने के नाते बहुगुणा जी की बात कांग्रेस में सुनी भी जाती थी। इसलिए रैणी के आंदोलन के बाद पेड़ों की कटाई पर अस्थाई रोक लगा दी गई जो बाद में 1980 में जाकर एक बड़े समझौते में बदली जिसके तहत चिपको आंदोलन की ज़्यादातर शर्तें मान ली गई थीं। चिपको आंदोलन का देश ही नहीं विश्वव्यापी असर पड़ा और चिपको की नकल पर जगह-जगह पेड़ों की रक्षा और वनीकरण के आंदोलन चले। पृथ्वी सम्मेलन के बाद तैयार किए गए सुझावी दस्तावेज़ में और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के दस्तावेज़ में चिपको का ज़िक्र कई बार हुआ है।

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नहीं रोक सके टिहरी बाँध को 

चिपको की कामयाबी और जागरूकता पदयात्राओं के बाद बहुगुणा जी के दृष्टिकोण में और व्यापकता आई और वे पेड़ों और पानी के स्रोतों को छोड़ पूरे हिमालय की पारिस्थितिकी और पर्यावरण की बात करने लगे। इसी बदलते आयाम ने उन्हें हिमालय की नदियों पर बन रही बाँध और पनबिजली परियोजनाओं और ख़ासकर टिहरी बाँध के ख़िलाफ़ ला खड़ा किया। लेकिन टिहरी की लड़ाई बहुगुणा जी के लिए अजेय साबित हुई। 

वे सैद्धांतिक आधार पर तो अपनी बातों को स्थापित करने में कामयाब हुए। लेकिन बाँध को नहीं रुकवा पाए। बाँधों और पनबिजली परियोजनाओं की सुरक्षा, उनकी मियाद और विस्थापितों के पुनर्वास की बातों पर नए सिरे से सोचा जाने लगा। लेकिन न टिहरी बाँध को रोका जा सका और न ही नर्मदा पर बन रहे बाँधों को।

कैसी विडंबना है कि एक ओर दुनिया भर में जहाँ जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण को लेकर जागरूकता फैली है, वहीं भारत में जागरूकता का जो असर चिपको आंदोलन और नर्मदा बचाओ आंदोलन के दिनों में था, वह उत्तरोत्तर कमज़ोर होता गया है।
ऐसे माहौल में बहुगुणा जैसे मुखर पर्यावरण प्रहरी की आवाज़ का ख़ामोश हो जाना असहनीय आघात है। वे कहा करते थे – “क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी-पानी और बयार। मिट्टी-पानी और बयार, ज़िन्दा रहने के आधार।” ऐसा लगता है कि इस क्रूर कोरोना महामारी ने पर्यावरण चेतना ज़िन्दा रखने का एक मज़बूत आधार भी हमसे छीन लिया है।
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