loader

भारतीय मीडिया क्यों नहीं सुन रहा आने वाली क्रांति की आहट?

ऐतिहासिक अनुभव से पता चलता है कि क्रांतियाँ तब होती हैं जब करोड़ों लोग इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी भी तरह से अब पुराने तरीक़े से रहना असंभव है। यह स्थिति भारत में तेज़ी से आ रही है। हमारा मीडिया शुतुरमुर्ग की तरह बर्ताव करना जारी रख सकता है, आने वाली आँधी से आँखें मूंद सकता है, लेकिन फिर इन्हें बोलने की आज़ादी का मंत्र जपने का कोई अधिकार नहीं जब वह क्रांति की बात करने वालों की आवाज़ दबा रहे हैं।
जस्टिस मार्कंडेय काटजू

भारतीय (और पाकिस्तानी) मीडिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अक्सर होहल्ला करते रहते हैं। लेकिन फिर दूसरी तरफ़ वे एक सावधानी भी बरतते हैं कि उनके लेखन में क्रांति का कोई उल्लेख नहीं होना चाहिए। 'क्रांति' शब्द एक अभिशाप, एक प्रेत, एक पिशाच, एक बोगीमैन के सामान है, जिस से वे ऐसे दूर भागते हैं जैसे किसी प्लेग या महामारी से।

ध्यान भटकाने के लिए, वे सुशांत सिंह राजपूत, रिया चक्रवर्ती, प्रशांत भूषण, जैसे अनावश्यक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, अक्सर झूठ बोलते हैं, और सांप्रदायिकता और अंधराष्ट्रीयता का सहारा लेते हैं। लेकिन क्या यह स्पष्ट नहीं है कि भारत में एक क्रांति आ रही है (हालाँकि यह किस रूप में होगी कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकता है)। 

ताज़ा ख़बरें

एक नज़र से ही पता चलता है कि भारत में सारी व्यवस्था ध्वस्त हो गयी है। हमारे राज्य संस्थान खोखले बन गए हैं, जबकि जनता की कठिनाइयाँ बढ़ती जा रही हैं- बड़े पैमाने पर ग़रीबी, रिकॉर्ड और बढ़ती बेरोज़गारी (अप्रैल 2020 में सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकॉनमी के अनुसार, 12 करोड़ भारतीय अपनी नौकरी खो चुके हैं), बाल कुपोषण के चौंका देने वाले आँकड़े (लगभग हर दूसरा भारतीय बच्चा कुपोषित है- ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार), जनता के लिए उचित स्वास्थ्य सेवा और अच्छी शिक्षा का लगभग पूरा अभाव, खाद्य पदार्थों, ईंधन आदि के मूल्य में वृद्धि, किसानों की आत्महत्याओं का जारी रहना आदि।

यदि अर्थव्यवस्था अच्छी हो तो आम तौर पर सब कुछ अच्छा होता है, लेकिन अर्थव्यवस्था डूब रही है। कोविड लॉकडाउन से पहले भी यह एक भयानक स्थिति में थी (ऑटो सेक्टर, जो अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का एक संकेतक है, वहाँ भी 30-40% बिक्री में गिरावट दर्ज की गई थी)। लॉकडाउन के बाद इसमें और ज़्यादा गिरावट आई। भारत में जीडीपी अप्रैल-जून 2020 की तिमाही में 23.9% कम हो गई है और उद्योग धंधे एक भयानक स्थिति (विशेष रूप से छोटे और मध्यम व्यवसाय) में हैं। 

इस अंधेरे से नागरिकों में निराशा फैलती है जो अशांति की राह पकड़ सकती है। लेकिन हमारे राजनेता केवल राम मंदिर और आने वाले चुनावों को कैसे जीता जाए के बारे में सोचते हैं।

हमारा राष्ट्रीय उद्देश्य तेज़ी से औद्योगीकरण होना चाहिए और उत्तरी अमेरिका, यूरोप, जापान और चीन की तरह एक आधुनिक औद्योगिक देश बनना होना चाहिए। लेकिन इसके लिए एक आधुनिक दिमाग़ वाले राजनीतिक नेतृत्व की आवश्यकता है, जैसा कि जापान में 1868 में मीजी बहाली के बाद हुआ। दुर्भाग्य से भारतीय राजनेताओं को भारत में तेज़ी से औद्योगिकीकरण करने में दिलचस्पी नहीं है। 

उनका एकमात्र उद्देश्य अगला चुनाव जीतना है, और क्योंकि भारत में चुनाव हर 6-9 महीने में किसी न किसी राज्य में होते ही हैं (अगले नवंबर को बिहार में), उनका एकमात्र ध्यान उसी पर केंद्रित होता है। और क्योंकि संसदीय या विधानसभा चुनाव बड़े पैमाने पर जाति और सांप्रदायिक वोट बैंक पर चलते हैं, इसलिए हमारे राजनेता जाति और धर्म के आधार पर समाज का ध्रुवीकरण करते हैं और सांप्रादियक नफ़रत फैलाते हैं।

जातिवाद और सांप्रदायिकता सामंती ताक़तें हैं जिन्हें भारत को अगर प्रगति करनी है, तो नष्ट करना होगा, लेकिन संसदीय चुनाव उन्हें और सशक्त बनाते हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि हमें ढूंढना होगा यानी एक राजनीतिक प्रणाली जो तीव्रता से औद्योगिकीकरण को बढ़ावा दे, और यह केवल एक क्रांति से संभव है, जैसा कि मेरे लेख में कहा गया है - 'India’s moment of turbulent revolution is here'  जो  firstpost.com पर प्रकाशित है।

विचार से ख़ास
हमारे राजनैतिक नेताओं को इस बात का बोध नहीं है कि राष्ट्र के सामने बड़े पैमाने पर मुद्दों को कैसे सुलझाया जाए, और इसलिए भारत में अराजकता का दौर आ रहा है, जैसा कि 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद के मुग़लों के राज में हुआ था। लेकिन प्रकृति को वैक्यूम पसंद नहीं है। अराजकता हमेशा के लिए जारी नहीं रह सकती। वर्तमान प्रणाली का कुछ विकल्प जल्द या बाद में ही सही पर उत्पन्न होना अवश्यम्भावी हैI ऐतिहासिक अनुभव से पता चलता है कि क्रांतियाँ तब होती हैं जब करोड़ों लोग इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी भी तरह से अब पुराने तरीक़े से रहना असंभव है। यह स्थिति भारत में तेज़ी से आ रही है। हमारा मीडिया शुतुरमुर्ग की तरह बर्ताव करना जारी रख सकता है, आने वाली आँधी से आँखें मूंद सकता है, लेकिन फिर इन्हें बोलने की आज़ादी का मंत्र जपने का कोई अधिकार नहीं जब वह क्रांति की बात करने वालों की आवाज़ दबा रहे हैं।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
जस्टिस मार्कंडेय काटजू

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें