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सुनिए अमित शाह जी, कांग्रेस नहीं जिन्ना और सावरकर थे बंटवारे के पैरोकार

नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 को लेकर देश भर में ख़ासी चर्चा है। कई विपक्षी राजनीतिक दलों ने बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के द्वारा लाये गए इस विधेयक को संविधान की आत्मा के ख़िलाफ़ और धार्मिक आधार पर बंटवारा करने वाला बताया है। वहीं, अमित शाह ने कांग्रेस को धर्म के आधार पर देश के बंटवारे का जिम्मेदार बताकर विधेयक को लेकर चल रही बहस को और तेज़ कर दिया है। 
शेष नारायण सिंह

नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 ने देश में उथल-पुथल का माहौल पैदा कर दिया है। असम में आबादी का एक बड़ा हिस्सा बग़ावत की राह पर है। त्रिपुरा में जोरदार विरोध के चलते इंटरनेट बंद कर दिया गया है और पूरे राज्य में निषेधाज्ञा लागू कर दी गयी है। दिल्ली में भी इस विधेयक के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हुए हैं। 

विधेयक को तैयार करने और उसको प्रस्तुत करने में बहुत सारी गलतियाँ हुई हैं। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जब लोक सभा में बिल को पेश करने की अनुमति लेने के लिए चर्चा का जवाब दिया तो उन्होंने इतिहास का ग़लत उल्लेख कर दिया। उन्होंने कांग्रेस को फटकारते हुए कहा, ‘आपको मालूम है कि यह बिल लाना क्यों ज़रूरी है?’ उन्होंने जवाब भी ख़ुद ही दिया और कहा कि अगर कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर देश का बंटवारा न किया होता तो इस बिल को लाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। सदन में मौजूद कांग्रेस के शशि थरूर ने उनके इस दावे का ज़बरदस्त विरोध किया। थरूर ने कहा कि धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे का समर्थन जिन्ना ने किया था। 

धार्मिक आधार पर देश की स्थापना आइडिया ऑफ़ पकिस्तान है जबकि आइडिया ऑफ़ इंडिया धार्मिक बहुलता के स्थाई भाव के साथ चला था। सभी जानते हैं कि हिन्दू महासभा के नेता वी.डी. सावरकर ने भी द्विराष्ट्र के सिद्धांत का ज़बरदस्त समर्थन किया था।

भारत के संविधान की प्रस्तावना 

इतिहास बताता है कि कांग्रेस ने कभी भी धार्मिक आधार पर बंटवारे का समर्थन नहीं किया। पाकिस्तान की स्थापना का आधार धार्मिक था लेकिन भारत के संविधान की प्रस्तावना में साफ़-साफ़ लिखा है कि, ‘हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधान सभा में आज तारीख़ 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’ महात्मा गाँधी की अगुवाई में आज़ादी की पूरी लड़ाई इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए लड़ी गई थी। 

जिस संविधान सभा में संविधान का निर्माण किया गया, उसमें कुछ लोगों को छोड़कर सभी कांग्रेस के ही नेता थे, इसलिए कांग्रेस को बंटवारे के लिए ज़िम्मेदार बताना इतिहास का अज्ञान भी है और सच्चाई से मुंह मोड़ना भी है। सच्चाई यह है कि  मौजूदा सत्ताधारी पार्टी के पूर्ववर्ती संगठन, आरएसएस और हिन्दू महासभा अंग्रेजों के साथ थे और महात्मा गाँधी के ख़िलाफ़ थे। जहां तक धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे की बात है, उसमें जिन्ना और सावरकर दोनों शामिल थे। 

सावरकर ने अंग्रेजों की वफादारी के चक्कर में 1937 में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के रूप में पार्टी के अहमदाबाद अधिवेशन में जोर देकर कहा था कि हिन्दू और मुसलमान दोनों अलग-अलग समुदाय हैं। इसलिए अगर किसी को धार्मिक आधार पर बंटवारे के लिए गुनहगार माना जाएगा तो उसमें मुहम्मद अली जिन्ना और विनायक दामोदर सावरकर ही सरे-फेहरिस्त होंगे।

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दरअसल, भारत का बँटवारा एक बहुत बड़ा धोखा था जो कई स्तरों पर खेला गया था। अंग्रेज भारत को किसी क़ीमत पर आज़ाद नहीं करना चाहते थे लेकिन उनके प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल को 1942 के बाद जब अंदाज़ लग गया कि अब महात्मा  गाँधी की आंधी के सामने टिक पाना नामुमकिन है तो उसने देश के टुकड़े करने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया। जिन्ना और सावरकर अंग्रेजों के वफादार थे ही, चर्चिल ने देसी राजाओं को भी हवा देना शुरू कर दिया था। उसे उम्मीद थी कि राजा लोग कांग्रेस के अधीन भारत में शामिल नहीं होंगे। पाकिस्तान तो उसने बनवा लिया लेकिन राजाओं को सरदार पटेल ने भारत में शामिल होने के लिए राजी कर लिया। जो राजी नहीं हो रहे थे उनको नई हुकूमत की ताक़त दिखा दी। 

हैदराबाद का निज़ाम और जूनागढ़ का नवाब थोड़ा पाकिस्तानी मुहब्बत में नज़र आये तो उनको सरदार पटेल की राजनीतिक अधिकारिता के दायरे  में ले लिया गया। कश्मीर का राजा शरारत की बात सोच रहा था तो उसे भारत की मदद की ज़रूरत तब पड़ी जब पाकिस्तान की तरफ से कबायली हमला हुआ। हमले के बाद राजा डर गया। राजा ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर दस्तख़त कर दिये तो बदले में पाकिस्तानी फ़ौज़ को भारत की सेना ने वापस भगा दिया लेकिन यह सब देश के बंटवारे के बाद हुआ। 

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चर्चिल का सपना था कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद  जिस तरह से यूरोप के देशों की विजयी देशों ने बंदरबाँट की थी, उसी तरह से भारत में भी की जाएगी। अंग्रेजों ने भारत को कभी भी अपने से अलग करने की बात सोची ही नहीं थी। उन्होंने तो दिल्ली में एक ख़ूबसूरत राजधानी बना ली थी। लेकिन 1920 के महात्मा गाँधी के आन्दोलन की सफलता और उसे मिले हिन्दू-मुसलमानों के एकजुट समर्थन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के लोग घबरा गए थे और उन्होंने हिन्दू-मुसलिम एकता को तोड़ने के लिए सारे इंतज़ाम करने शुरू कर दिए थे। 

हिन्दू महासभा के नेता वी.डी. सावरकर को माफ़ी देकर उन्हें किसी ऐसे संगठन की स्थापना का ज़िम्मा दे दिया गया था जो हिन्दुओं और मुसलमानों में फ़र्क़ डाल सके। सावरकर ने अपना काम बख़ूबी निभाया। उनकी किताब ‘हिंदुत्व’ इस मिशन में बहुत काम आई। आरएसएस की स्थापना इसी किताब को आधार बनाकर की गयी।  

1920 में हुए आन्दोलन में दरकिनार होने के बाद कांग्रेस की राजनीति में निष्क्रिय हो चुके मुहम्मद अली जिन्ना को अंग्रेजों ने सक्रिय किया और उनसे मुसलमानों के लिए अलग देश माँगने की राजनीति पर काम करने को कहा।

देश का राजनीतिक माहौल इतना गर्म हो गया कि 1931 में नई दिल्ली के उद्घाटन के बाद ही अंग्रेजों की समझ में आ गया था कि उनके चैन से बैठने के दिन लद चुके हैं क्योंकि उसके पहले लाहौर में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज को अपना लक्ष्य बना लिया था। लेकिन अंग्रेजी हार मानने वाले नहीं थे। बंटवारे के लिए अंग्रेजों ने अपने वफादार मुहम्मद अली जिन्ना से द्विराष्ट्र के सिद्धांत का प्रतिपादन करवा दिया। वी.डी. सावरकार ने भी इस सिद्धांत का समर्थन किया। लेकिन अंग्रेज जानते थे कि सावरकर के पास कोई राजनीतिक समर्थन नहीं है इसलिए वह जिन्ना को उकसाकर महात्मा गाँधी और कांग्रेस को हिन्दू पार्टी के रूप में ही पेश करने की कोशिश करते रहे। लेकिन महात्मा गाँधी ने उनकी एक नहीं चलने दी। 

अंग्रेजों की कोशिश थी कि प्रस्तावित अंतरिम सरकार में कांग्रेस केवल हिन्दू प्रतिनिधि भेजे और मुसलिम लीग की ओर से मुसलमान भी शामिल हों। तत्कालीन वायसराय लार्ड वावेल ने इस आशय का एक पत्र ( 22 जून, 1946) भी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आज़ाद को लिखा था लेकिन कांग्रेस ने 25 जून 1946 को एक प्रस्ताव के हवाले से स्पष्ट कर दिया कि ऐसा कुछ नहीं होगा। कांग्रेस जिसका चाहेगी उसका नाम भेजेगी क्योंकि वह सभी धर्मों के मानने वालों की पार्टी है।

गृह मंत्री अमित शाह के बयान को उनकी पार्टी के सबसे बुजुर्ग नेता लाल कृष्ण आडवाणी के सहयोगी सुधीन्द्र कुलकर्णी ने भी गलत बताया है। कुलकर्णी ने बहुत ही आक्रामक भाषा में  ट्वीट किया और कहा कि संसद के इतिहास में किसी मंत्री ने इतना बड़ा सफ़ेद झूठ नहीं बोला क्योंकि कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे की बात तो दूर, इस विचार को स्वीकार भी नहीं किया। 

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प्रसिद्ध समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने भी लिखा है कि जिस जनसंघ (बीजेपी का पूर्व अवतार) के लोग अखंड भारत के सबसे बड़े पैरोकार बनते हैं उनके पूर्वजों ने मुसलिम लीग और ब्रिटेन को भारत का बंटवारा करने में मदद पहुंचाई है। डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने भी कहा था कि जिन्ना और सावरकर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ बोलते हैं लेकिन द्विराष्ट्र सिद्धांत के मामले में दोनों एक-दूसरे के साथ हैं। इसलिए कांग्रेस को किसी क़ीमत पर धार्मिक आधार पर बंटवारे का दोषी नहीं माना जा सकता है और गृहमंत्री का लोकसभा में दिया गया बयान ग़लत है।
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