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जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी।

जब जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी का चुनाव ख़ारिज कर दिया!

राज नारायण बनाम इंदिरा गाँधी मामला हिन्दुस्तान का एक ऐसा मामला था जिसने देश की राजनीति को बदल कर रख दिया। इस मामले में फ़ैसला सुनाया था जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने। इस फ़ैसले ने हिन्दुस्तान की सबसे ताक़तवर प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को जोरदार झटका दिया था। तमाम प्रलोभनों और दबावों को दरकिनार करते हुए जस्टिस सिन्हा द्वारा सुनाए गए इस फ़ैसले की चर्चा होती रहेगी। 
विजय त्रिवेदी

हिंदुस्तान के राजनीतिक इतिहास की अहम तारीख़। इमरजेंसी की कहानी की पहली सुबह। पैंतालीस साल हो गए। वो दिन था - 12 जून, 1975। इलाहाबाद हाई कोर्ट का कमरा नंबर 24, सुबह दस बजे से पहले ही खचाखच भर गया था। सांसों की तेज़ आवाजाही और तेजी से आते-जाते कदमों की चहलकदमी ने माहौल को गरमा दिया था। रहस्यमयी खामोशी लिए कई चेहरे, दिल की बढ़ती धड़कनों को सीने पर हाथ रख कर दबाने की कोशिश करते कुछ बड़े लोग और अख़बारों के रिपोर्टर्स की चौकस आंखों के बीच जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की एंट्री।

उधर, प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के 1, सफ़दरजंग रोड के आवास पर उनके वरिष्ठ निजी सचिव  एन.के. शेषन की निगाहें दफ्तर में रखे टेलीप्रिंटर पर थीं। टेलीप्रिंटर पर शब्दों के सरकने की आवाज़ उन्हें परेशान कर रही थी। दिल्ली के सबसे ताक़तवर दफ्तर में बैठे एक आला अफ़सर को इंतज़ार था इलाहाबाद हाई कोर्ट से आने वाली ख़बर का।

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राज नारायण बनाम इंदिरा गाँधी मामला

जस्टिस सिन्हा को राज नारायण बनाम इंदिरा गाँधी मामले में फ़ैसला सुनाना था। ये मामला था 1971 के आम चुनाव में रायबरेली सीट से राजनाराय़ण के ख़िलाफ़ प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की जीत का। इस आम चुनाव में श्रीमती गाँधी ने अपनी पार्टी को तो ज़बरदस्त जीत दिलाई ही थी, खुद भी रायबरेली में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राज नारायण को बड़े फासले से हराया था। 

राज नारायण को खुद की जीत को लेकर इतना भरोसा था कि उनके समर्थकों ने चुनाव नतीजे आने से पहले ही जीत का जश्न मना लिया और जुलूस भी निकाल दिया था। 

मगर जब नतीजे उलट आए तो राजनाराय़ण ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया और अपनी अपील में इंदिरा गाँधी का चुनाव निरस्त करने की मांग की। उनका आरोप था कि श्रीमती गाँधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी और संसाधनों का ग़लत इस्तेमाल किया है।

जस्टिस सिन्हा कोर्ट में दाख़िल हुए। कुर्सी संभाली। उनके पेशकार ने कहा, “भाइयों और बहनों, राज नारायण की याचिका पर जब जज साहब फ़ैसला सुनाएं तो कोई ताली नहीं बजाएगा।” कोर्ट रूम में बैठे लोगों की धड़कनें तो बढ़ ही गई थीं, प्रधानमंत्री आवास पर भी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। 

जस्टिस सिन्हा के सामने उनका लिखा हुआ फ़ैसला रखा था- पूरे 255 पेज का दस्तावेज़। एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज़ जो अदालतों और हिंदुस्तान की राजनीति के लिए नज़ीर बनने वाला था।

जस्टिस सिन्हा ने कहा, “मैं इस केस से जुड़े सभी मुद्दों पर जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, उन्हें पढूंगा।” वो एक पल के लिए रुके तो ऐसा लगा कि मानो पूरे कोर्ट रूम की सांसें हीं थम गई हों, फिर बोले - “याचिका स्वीकृत की जाती है।”

अदालत में मौजूद भीड़ को तो एकबारगी भरोसा ही नहीं हुआ। फिर कुछ क्षण लगे होंगे कि पूरा कोर्ट रूम तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। अखबारों और न्यूज़ एजेंसियों के रिपोर्टर दौड़े ख़बर बताने के लिए...

श्रीमती गाँधी की जीवनी लिखने वाले प्रणय गुप्ते ने अपनी किताब ‘मदर इंडिया’ में लिखा कि “सेशन जब वहां पहुंचे तो राजीव गाँधी, इंदिरा के कमरे के बाहर खड़े थे। उन्होंने यूएनआई पर आया वो फ्लैश राजीव गाँधी को पकड़ा दिया। राजीव गाँधी वो पहले शख्स थे जिन्होंने इंदिरा गाँधी को यह ख़बर सुनाई।” 

अपने फ़ैसले में जस्टिस सिन्हा ने श्रीमती गाँधी को दो मसलों पर चुनाव में अनुचित साधनों के इस्तेमाल का दोषी पाया। पहला यह कि श्रीमती गाँधी के सचिवालय में काम करने वाले यशपाल कपूर को चुनाव एजेंट बनाया गया, जबकि वो उस वक्त सरकारी अफ़सर थे। दूसरा, चुनाव सभाओं में मंच बनाने के लिए यूपी के अफ़सरों की मदद लेना। 

चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराया

सोशलिस्ट लीडर राज नारायण की याचिका में इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ जो सात मुद्दे रखे गए थे, उनमें से पांच में जस्टिस सिन्हा ने श्रीमती गाँधी को राहत दे दी थी। जस्टिस सिन्हा ने अपने फ़ैसले में भारतीय जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले 6 साल तक के लिए श्रीमती गांधी को लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी ठहराया था। 

हाई कोर्ट के इस फ़ैसले ने कांग्रेस के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे गैर-कांग्रेसी दलों में जान फूंक दी लेकिन प्रधानमंत्री श्रीमती गाँधी और उनके सिपहसालारों की नींद उड़ गई थी।

जज के ख़िलाफ़ प्रदर्शन

फ़ैसले के करीब पन्द्रह मिनट बाद श्रीमती गाँधी के वकीलों ने जस्टिस सिन्हा के सामने स्टे आर्डर रखते हुए दलील दी कि श्रीमती गाँधी संसद में कांग्रेस पक्ष की नेता होने की वजह से प्रधानमंत्री हैं, इसलिए उनकी जगह नया नेता चुनना पड़ेगा, तब तक सरकार कैसे चलेगी तो इस पर स्टे आर्डर दिया जाए। जस्टिस सिन्हा ने कहा कि वे विरोधी पक्ष के वकील को सुनकर इस पर फ़ैसला देंगे। इंदिरा गाँधी के वकीलों ने जस्टिस सिन्हा के सामने कहा कि विरोधी पक्ष के वकील को इस प्रार्थना की जानकारी है और उन्हें कोई आपत्ति नहीं है तो जस्टिस सिन्हा ने बीस दिन का स्टे आर्डर दे दिया। लेकिन इस दौरान कांग्रेस ने नए नेता का चुनाव करने के बजाय इंदिरा गाँधी के लिए समर्थन जुटाने और जज के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने का काम किया गया। 

दूसरी तरफ, कांग्रेस के कुछ सांसदों जैसे कृष्णकांत और चंद्रशेखर ने इंदिरा गाँधी से इस्तीफ़ा देने का आग्रह किया। श्रीमती गाँधी को इस की ख़बर लग गई थी, उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरूआ से सांसदों से समर्थन पत्र पर दस्तख़त कराने को कहा और जब 18 जून 1975 को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक बुलाई गई तो उसमें 500 में से 451 सदस्य मौजूद थे। 

वहां मौजूद हर कोई अपने भाषण में इंदिरा गाँधी की तारीफ़ कर रहा था। इसी सभा में कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरूआ ने कहा – “इंदिरा इज़ इंडिया एंड इंडिया इज़ इंदिरा।” इससे पहले सरदार स्वर्ण सिंह ने कहा कि “जो इंदिराजी पर बीतेगी वो भारत पर बीतेगी और जो भारत पर बीतेगी, वो इंदिराजी पर बीतेगी।”

इस मुक़दमे से जुड़े वरिष्ठ वकील शांति भूषण ने बताया कि साल 1975 के मार्च महीने में जस्टिस सिन्हा की कोर्ट में दोनों तरफ से दलीलें पेश होने लगीं थी। दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री श्रीमती गाँधी को अपना बयान दर्ज कराने के लिए अदालत में पेश होने का आदेश दिया। तारीख तय हुई 18 मार्च, 1975। 

हिन्दुस्तान के इतिहास में यह पहला मौक़ा था जब किसी मुक़दमे में प्रधानमंत्री को अदालत में पेश होना था। उस वक्त सवाल यह भी आया कि जज के सामने प्रधानमंत्री और बाकी लोगों का शिष्टाचार कैसा हो क्योंकि अदालत में सिर्फ़ जज के आने पर ही वहां मौजूद लोगों के खड़े होने की परंपरा है।

प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के कोर्ट में आने से पहले जस्टिस सिन्हा ने कहा कि अदालत में लोग तभी खड़े होते हैं जब जज आते हैं। इसलिए इंदिरा गाँधी के आने पर किसी को खड़े होने की ज़रूरत नहीं है। अदालत में श्रीमती गाँधी को करीब पांच घंटे तक सवालों के जवाब देने पड़े।

जस्टिस सिन्हा को प्रभावित करने की कोशिश 

श्रीमती गाँधी और उनके समर्थकों को इस बात का अंदाज़ा होने लगा था कि कोर्ट का फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ जा सकता है। ऐसे में जस्टिस सिन्हा को प्रभावित करने की कोशिशें भी शुरू हो गईं। शांति भूषण के मुताबिक़, इलाहाबाद हाई कोर्ट के तब के चीफ़ जस्टिस डी.एस. माथुर एक दिन अपनी पत्नी के साथ जस्टिस सिन्हा के घर पहुंचे और बातचीत के दौरान कहा कि अगर वे राज नारायण के मामले में सरकार के अनुकूल फ़ैसला सुनाते हैं तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट में प्रमोट कर दिया जाएगा। जस्टिस माथुर इंदिरा गाँधी के निजी डॉक्टर के.पी. माथुर के क़रीबी रिश्तेदार थे।

'सरकारी अफ़सरों और मशीनरी का इस्तेमाल' 

इस प्रलोभन से बेअसर रहे जस्टिस सिन्हा ने अपने फ़ैसले में लिखा कि इंदिरा गाँधी ने चुनाव में सरकारी अफ़सरों और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया जो गैर-कानूनी था। शांति भूषण ने बताया कि जस्टिस सिन्हा ने फ़ैसला सुनाने से पहले अपने निजी सचिव से कहा कि “मैं नहीं चाहता कि आप ये फ़ैसला सुनाने से पहले किसी को इसकी भनक लगने दें, अपनी पत्नी को भी नहीं। यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी है; क्या आप इसके लिए तैयार हैं?“ निजी सचिव ने भरोसा दिया कि आप इसको लेकर बेफ़िक्र रहें।

फ़ैसला लिखने के दौरान जस्टिस सिन्हा सब लोगों से दूर रहना चाहते थे लेकिन सुनवाई बंद होने के बाद कांग्रेस के एक सांसद रोज़ाना उनके घर आने लगे। वे उनसे परेशान हो गए और मना करने के बाद भी जब सांसद नहीं माने तो जस्टिस सिन्हा अपने ही घर में ग़ायब हो गए।

28 मई से 7 जून, 1975 तक कोई भी जस्टिस सिन्हा से नहीं मिल सका, उनके नज़दीकी दोस्त भी।

शांति भूषण ने बताया कि जस्टिस सिन्हा ने 7 जून तक फ़ैसला लिख दिया था। तब उनके पास चीफ़ जस्टिस माथुर का फोन आया। जस्टिस माथुर ने उनसे कहा कि गृह मंत्रालय के ज्वॉइंट सेक्रेटरी पी.पी. नैयर ने उनसे मिल कर रिक्वेस्ट की है कि फ़ैसले को जुलाई तक के लिए टाल दिया जाए। ये सुनते ही जस्टिस सिन्हा नाराज़ हो गए और तुरंत हाई कोर्ट गए और रजिस्ट्रार को आदेश दिया कि वो दोनों पक्षों को सूचित कर दें कि फ़ैसला 12 जून को सुनाया जाएगा।

सीआईडी के अफ़सरों को सौंपी ज़िम्मेदारी 

इमरजेंसी के भुक्तभोगी और एक अहम गवाह रहे वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने मुझे बताया था कि सरकार के लिए यह फ़ैसला इतना अहम था कि सीआईडी के कुछ अफ़सरों को यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी कि वे आने वाले फ़ैसले के बारे में पता लगाएँ। 

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सीआईडी के ये अफ़सर 11 जून की देर रात जस्टिस सिन्हा के निजी सचिव मन्ना लाल के घर भी गए लेकिन मन्ना लाल ने एक भी बात नहीं बताई। जस्टिस सिन्हा ने फ़ैसले के कुछ महत्वपूर्ण हिस्से आखिर में जोड़े थे।

कुलदीप नैयर ने एक इंटरव्यू के दौरान इस फ़ैसले के बारे में जस्टिस सिन्हा से पूछा तो उन्होंने कहा, “मैं परेशान तो था लेकिन मैंने फ़ैसला कर लिया था कि ईमानदारी से निर्णय करुंगा।’’ जस्टिस सिन्हा के एक फ़ैसले ने हिन्दुस्तान की सबसे ताक़तवर प्रधानमंत्री और राजनीति को हिला कर रख दिया।

फिर 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो शांति भूषण उसमें क़ानून मंत्री बने। शांति भूषण के मुताबिक़, वो जस्टिस सिन्हा का ट्रांसफर हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट में करना चाहते थे ताकि जब वहां चीफ़ जस्टिस की जगह खाली हो तो वे इस पद पर नियुक्त हो सकें, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया।

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