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राजस्थान: एक-दूसरे के कपड़े फाड़ने से नहीं, मीठी ज़ुबान से दूर होता है सियासी संकट

इस वक़्त राजस्थान विधानसभा की एक घटना याद आ रही है तब भैरोंसिंह शेखावत मुख्यमंत्री होते थे और हरिशंकर भाभड़ा विधानसभा अध्यक्ष। एक बार तो भाभड़ा ने शेखावत का तख्ता पलट करने की कोशिश की थी। उन दिनों शेखावत ने एक परंपरा डाली कि विधानसभा में हर दिन जो भी वक्ता अच्छा भाषण देगा वो लड्डू मँगवायेगा और वो लड्डू सभी विधायकों के लिए होंगे। भले ही विधानसभा में सदन के भीतर किसी भी मुद्दे पर सरकार को घेरा जाए लेकिन लंच और लड्डू सब लोग साथ खाते थे।
विजय त्रिवेदी

राजस्थान के बहाने कांग्रेस की लड़ाई सड़क से लेकर अदालत तक पहुँच गई है और लगता है कि राजनेताओं ने आचार-व्यवहार की भी सभी सीमाएँ लाँघ दी हैं। कल तक एक-दूसरे के साथ गले मिलने वाले लोग अब एक-दूसरे का गला काटने पर उतारू हो गए हैं। राजस्थान में आमतौर पर राजनेताओं को मधुर व्यवहार के लिए जाना जाता रहा है और वहाँ अभी तक यूपी, बिहार या दूसरे प्रदेशों की राजनीति की तरह दूसरी विरोधी पार्टियों के नेताओं से भी पारिवारिक रिश्ता बना रहता था, वहाँ अब एक ही पार्टी के लोग एक-दूसरे के कपड़े फाड़ने में लग गए हैं तो हैरत होती है।

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मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की छवि हमेशा ही मीठे राजनेता की रही है यानी वो राजस्थानी कहावत पर हमेशा खरे उतरते रहे कि गुड़ ना दे, गुड़ की बात तो करे, यानी गुड़ नहीं खिलाए तो कम से कम मिठाई की बात तो करे। लेकिन अब जिस तरह अशोक गहलोत ने अपने सहयोगी और उप मुख्यमंत्री रहे सचिन पायलट पर हमला किया और पायलट को ‘नाकारा’, ‘निकम्मा’, और ना जाने क्या-क्या कहा, साथ ही बोले कि ‘मैं बैगन बेचने नहीं आया हूँ’। इसके अलावा ‘कॉरपोरेट फ़ंडिंग’ जैसा गंभीर आरोप भी लगाया है। यह कम से कम राजस्थान की राजनीतिक आचार-व्यवहार परंपरा नहीं रही है।

इस वक़्त राजस्थान विधानसभा की एक घटना याद आ रही है तब भैरोंसिंह शेखावत मुख्यमंत्री होते थे और हरिशंकर भाभड़ा विधानसभा अध्यक्ष। भाभड़ा और शेखावत की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता जगजाहिर थी। एक बार तो भाभड़ा ने शेखावत का तख्ता पलट करने की कोशिश की थी। उन दिनों शेखावत ने एक परंपरा डाली कि विधानसभा में हर दिन जो भी वक्ता अच्छा भाषण देगा वो लड्डू मँगवायेगा और वो लड्डू सभी विधायकों के लिए होंगे। अच्छा भाषण तय करने का फ़ैसला विधानसभा अध्यक्ष करते थे यानी सत्र के दौरान हर दिन लड्डू चलते रहते थे। इसके साथ ही लंच के समय शेखावत, भाभड़ा और कई और मंत्री व कांग्रेस विधायकों के घर से बड़े-बड़े लंच टिफिन आते थे।

ये टिफिन विधानसभा अध्यक्ष के बाहर वाले कमरे में रखे रहते और हर कोई उस भोजन का लुत्फ़ उठाता था तो भले ही विधानसभा में सदन के भीतर किसी भी मुद्दे पर सरकार को घेरा जाए लेकिन लंच और लड्डू सब लोग साथ खाते थे। इससे हमेशा ही माहौल अच्छा रहता था और पारिवारिक स्तर पर भी सब लोग एक-दूसरे का ध्यान रखते थे।

वाजपेयी और आडवाणी

एक और क़िस्सा याद आ रहा है कि कैसे एक व्यवहार सारी कड़वाहट को ख़त्म कर देता है। बात साल 2001 की है। उस समय बीजेपी के दो बड़े नेताओं, वाजपेयी और आडवाणी के बीच तनाव की ख़बरें आम थीं। झगड़े की एक बड़ी वजह वाजपेयी के मित्र और सरकार में प्रिंसिपल सेक्रेटरी के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र थे। आडवाणी को लगता था कि सरकार वाजपेयी के बजाय मिश्र ही चला रहे हैं। कहा जाता था कि दोनों नेताओं के बीच बातचीत ना के बराबर ही थी।

तब सर्दियों का समय था, गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी अपने पंडारा पार्क वाले घर से दफ्तर के लिए गाड़ी में बैठ ही रहे थे कि तभी उनकी पत्नी कमला आडवाणी दौड़ते हुए आईं कि अभी अटल जी ने फ़ोन कर के कहा है कि वो कल लंच पर हमारे घर खाना खाने आएँगे। आडवाणी कमला जी की तरफ़ मुस्करा कर गाड़ी में बैठकर चले गए।

लंच से दूर हुआ ग़ुस्सा!

यूँ तो वाजपेयी कई बार आडवाणी के घर खाना खाने चले जाते थे। उन्हें कमला जी के हाथ का खाना पसंद था लेकिन उस माहौल में यह सिर्फ़ लंच नहीं राजनीतिक संदेश था। वाजपेयी ने किसी का इंतज़ार नहीं किया और आडवाणी के बजाय कमला जी को फ़ोन कर ख़ुद ही को भोजन पर आंमत्रित कर लिया यानी एक फ़ोन कॉल ने सारी ख़बरों पर तो रोक लगा ही दी, दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला फिर शुरू हो गया। वाजपेयी दोनों के बीच के रिश्ते को ख़त्म नहीं करना चाहते थे। साल 2004 के बाद वाजपेयी के बीमार रहने पर आडवाणी उन चुनिंदा नेताओं में से रहे जो लगातार उनसे मिलने और हालचाल पूछने जाते रहे। यह उदाहरण आपसी रिश्तों से राजनीतिक कड़वाहट को दूर करने के लिए काफ़ी हो सकता है।
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एक और क़िस्सा वाजपेयी का ही है। उस दौर में जयललिता के अलावा दूसरी महिला नेता तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी एनडीए सरकार के लिए ज़्यादातर वक़्त सिरदर्द बनी रहीं। कभी मंत्रालयों के बँटवारे को लेकर तो कभी मंत्रालयों में कामकाज के बँटवारे पर। उस वक़्त ममता बनर्जी रेल मंत्री थीं और हर दिन कोई न कोई मुसीबत खड़ी हो जाती। एक बार पेट्रोल–डीजल के दामों में बढ़ोतरी को लेकर ममता नाराज़ हो गईं। संकट मोचक जॉर्ज फर्नांडिस को ममता को मनाने के लिए कोलकाता भेजा गया। जॉर्ज शाम से पूरी रात तक इंतज़ार करते रहे लेकिन ममता ने मुलाक़ात नहीं की। इसके बाद एक दिन अचानक प्रधानमंत्री वाजपेयी ममता के घर पहुँच गए। उस दिन ममता कोलकाता में नहीं थीं। 
वाजपेयी ने ममता की माँ के पैर छू लिए और उनकी माँ से कहा, ‘आपकी बेटी बहुत शरारती है, बहुत तंग करती है।’ फिर क्या था। ममता का ग़ुस्सा मिनटों में उतर गया। वाजपेयी जानते थे कि राजनीति से ज़्यादा रिश्ते महत्वपूर्ण हैं जो उन्हें अजातशत्रु बनाते थे।

वैसे, राजस्थान में कहा जाता है कि घर की लड़ाई सड़क पर आ जाए तो मोहल्ले वाले सिर्फ़ तमाशा देखने का मज़ा लेते हैं और घर अपना टूटता है।

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