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गोडसे की ‘ग़लती' को सुधारने में लगे हैं मोदी!

गाँधीजी की हत्या के बावजूद भारत हिंदूराष्ट्र नहीं बना। उलटे नेहरू के नेतृत्व में एक उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष राज्य बना। तो क्या गोडसे ने गाँधी को मारकर कोई ग़लती की थी? क्या गोडसे का निशाना कोई और होना चाहिए था? गाँधी के शहादत दिवस पर पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार नीरेंद्र नागर का विश्लेषण कि किस तरह गोडसे की उस ‘गलती’ को सुधारने में लगे हैं प्रधानमंत्री मोदी।
नीरेंद्र नागर

आज से 71 साल पहले जब कट्टर हिंदूवादी नाथूराम गोडसे ने बिड़ला हाउस में 80 साल के एक कमज़ोर बूढ़े की छाती पर चार गोलियाँ दागी थीं तो वह जान रहा था कि ऐसा करके वह अपने लिए केवल बर्बादी चुन रहा है और लोगों से उसे घृणा के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। लेकिन फिर भी उसने ऐसा किया क्योंकि वह 'हिंदू धर्म से ग़द्दारी करने और मुसलमानों का पक्ष लेने वाले’ गाँधीजी से बदला लेना चाहता था।

लेकिन गोडसे यह नहीं जानता था कि ऐसा करके न केवल वह अपना नुक़सान कर रहा है बल्कि अपनी उस राजनीति को भी गहरा आघात पहुँचा रहा है जिसमें वह पला-बढ़ा और जिसको आगे बढ़ाने के लिए वह गाँधीजी की हत्या को ज़रूरी समझता था।

गाँधीजी को मारने से गोडसे को क्या मिला? क्या यह देश पाकिस्तान की तरह धर्मराष्ट्र बन गया? क्या मुसलमानों को, जिनसे वह घृणा करता था, ट्रकों में भरकर पाकिस्तान भेज दिया गया या अरब सागर में डुबो दिया गया? क्या हिंदू महासभा, जिसका वह सदस्य था, वह केंद्र या किसी राज्य में सत्ता में आ गई ताकि देश में भगवा फहराने का उसका सपना पूरा हो सके?

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नहीं आई। हिंदू महासभा तो दूर, उसी की तरह विचारधारा वाला भारतीय जनसंघ भी अगले तीस सालों तक केंद्रीय सत्ता में नहीं आ पाया। 1977 में पहली बार वह तब सत्ता में आया जब उसने अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक नए दल में ख़ुद को विलीन कर दिया। केवल अपने बल पर सत्ता में आने में उसे 42 साल और लगे।

यह सब केवल इसलिए हुआ कि गोडसे ने मूर्खतावश एक बेहद बूढ़े आदमी को गोली मार दी थी जो आज नहीं तो कल दुनिया से जाने ही वाला था। अगर उसने ऐसा नहीं किया होता तो देश को भगवामय करने का सेहरा नरेंद्र मोदी से वर्षों पहले किसी अटल बिहारी या बलराज मधोक के सिर बँध गया होता।

आप कल्पना कीजिए - 1947-48 में माहौल कैसा रहा होगा! 18 साल पहले गुजरात में डेढ़ हज़ार लोगों के क़त्लेआम का असर आज तक राज्य या देश के दिलोदिमाग़ से गया नहीं है तो उस दौर में जब क़रीब डेढ़ करोड़ लोगों ने सीमा पार की होगी और कम-से-कम 10 लाख लोग दंगों में बलि चढ़ गए होंगे (कुछ लोग यह संख्या 20 लाख तक बताते हैं) तब कैसा माहौल रहा होगा। आप ध्यान दीजिए कि अपनी लाख कोशिशों के बाद भी गाँधीजी दंगों में हो रही मौतों को नहीं रोक पाए थे।

गाँधी, नेहरू और कुछ दूसरे नेताओं के चलते भले ही यह देश तब हिंदूराष्ट्र न बन पाया हो, लेकिन कांग्रेस पार्टी और प्रशासन में भी कट्टरवादी हिंदू तत्व तब भारी संख्या में मौजूद थे। तब की अवस्था को समझने के लिए केवल ये दो-तीन उदाहरण काफ़ी होंगे।

23 दिसंबर 1949 को अयोध्या में चोरी-छुपे रामलला की मूर्तियाँ रख दी गईं और प्रधानमंत्री द्वारा उनको तत्काल हटाने के आदेश के बावजूद स्थानीय प्रशासन ने उसे नहीं हटवाया और फटाफट यथास्थिति बनाए रखने का आदेश अदालत से ले लिया गया। 

बाबा साहेब आंबेडकर ने विवाह और विरासत क़ानूनों में स्त्रियों को अधिकार देने के लिए हिंदू कोड बिल का जो मसौदा तैयार किया था, वह संविधान सभा में स्वीकार नहीं हो सका और नेहरू भी उसके बारे में कुछ नहीं कर पाए।

गोडसे ने कोर्ट में क्या दिया था बयान?

इसके अलावा एक वर्णन है जो बताता है कि नाथूराम गोडसे ने जब कोर्ट में अपना बयान दिया तो वहाँ मौजूद लोगों में उसका क्या असर हुआ। मामले की सुनवाई कर रहे जज जी. डी. खोसला, जो बाद में पंजाब के मुख्य न्यायाधीश बने, ने लिखा है - जब उसने अपनी बात ख़त्म की तो कमरे में गहरा सन्नाटा छा गया। श्रोताओं के हाव-भाव से लग रहा था कि गोडसे का बयान उनके दिलों को छू गया है। …मुझे इसमें ज़रा भी शक नहीं है कि अगर उस दिन वहाँ मौजूद श्रोताओं को गोडसे की अपील पर निर्णय देने का अधिकार दे दिया गया होता तो उन्होंने भारी बहुमत से उसे ‘निर्दोष’ घोषित कर दिया होता।

अब ऐसी परिस्थितियों में आप समझ सकते हैं कि पहले गाँधी और बाद में नेहरू के लिए देश के बहुसंख्यक हिंदुओं में मुसलमानों और पाकिस्तान के लिए पनपी घृणा और दूरी को ख़त्म या कम करना कितना मुश्किल रहा होगा। लेकिन गाँधीजी की हत्या ने नेहरू के लिए इस काम को आसान कर दिया। संविधान सभा में नेहरू हिंदुओं संबंधी जिन सुधारों को लागू नहीं करवा पाए थे, वे सुधार वे 1952 के चुनाव जीतने के बाद करवाने में सफल रहे। उन चुनावों में जनसंघ को केवल 3% वोट मिले और अगले 20 सालों में भी उसका वोट शेयर 10% से ऊपर नहीं जा पाया।

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नेहरू की धर्मनिरपेक्षता

गाँधीजी का राजनीतिक पटल से विदा होना नेहरू के लिए लाभदायक रहा। दो साल बाद 1950 में सरदार वल्लभभाई पटेल भी विदा हो चुके थे। इसके बाद नेहरू को अपनी प्रगतिशील नीतियाँ लागू करने से रोकने वाला कोई नहीं था। वह सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष थे, तरक़्क़ीपसंद थे और घृणा की राजनीति से कोसों दूर थे। यह अलग बात है कि इस दौरान उन्हें कांग्रेस के ताक़तवर सवर्ण नेताओं को साथ लेकर चलना पड़ा और कभी-कभी छोटे-मोटे समझौते भी करने पड़े। लेकिन संकीर्ण हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को वे किनारे करने में काफ़ी हद तक कामयाब रहे।

नेहरू के बाद उनकी बेटी इंदिरा गाँधी ने सांप्रदायिक ताक़तों से लोहा लिया और उन्हीं से मुक़ाबला करते हुए 1984 में वह मारी गईं। बस यहीं से शुरू हुआ हिंदुत्ववादी ताक़तों का उभार।

1985 में राजीव गाँधी की बेवक़ूफ़ी से राम जन्मभूमि मंदिर का ताला खुला और उसके बाद जो हुआ, वह हम सब जानते हैं। भारतीय जनता पार्टी जिसे 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर में केवल 8% वोट मिले थे, और जिसकी लोकप्रियता अगले ढाई दशकों तक 15-25% के बीच घटती-बढ़ती रही, वह 2019 में देश के 38% मतदाताओं की चहेती पार्टी बन गई।

बीजेपी की इस सफलता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बहुत बड़ा हाथ है। मोदी जानते हैं कि बीजेपी को या उसकी राजनीति को गाँधीजी से कोई ख़तरा नहीं है। गाँधीजी का सिद्धांत दिल का था, सदाशयता का था, वह दिमाग़ और तार्किकता का नहीं था। इसी कारण उनके सिद्धांतों को अकसर अव्यावहारिक ठहरा दिया जाता है। कुछ समय के लिए और कुछ मामलों में गाँधीवाद काम करता है, लेकिन हमेशा के लिए और हर मामले में काम नहीं कर सकता।

दूसरी तरफ़ नेहरू का सिद्धांत दिमाग़ का था, सोच-विचार का था, मैत्री और समभाव का था, प्रगति और विकास का था। इन्हीं सबसे संकीर्ण विचारधाराओं को सबसे ज़्यादा ख़तरा है - चाहे वे हरे रंग में रंगी हों या भगवा रंग में। गोडसे नेहरू के विचारों को नहीं मार पाया। 
विचार से ख़ास

पिछले कई सालों से नरेंद्र मोदी और उनके साथी-प्रशंसक वह काम कर रहे हैं जो गोडसे नहीं कर पाया। इसके लिए पहला क़दम यह था कि आज़ादी के बाद के भारत में नेहरू के योगदान को पूरी तरह नकार दिया जाए। दूसरा क़दम अब उठाया जा रहा है जब देश की हर गली में, हर चौराहे पर, हर संस्थान में, हर मंच पर, और ख़ासकर संविधान के हर पन्ने से नेहरू और उनके विचारों को मिटा दिया जाए। नेहरू को देश का सबसे बड़ा विलन, सबसे बड़ा ग़द्दार साबित कर दिया जाए।

वे सरेआम नेहरू की हत्या की तैयारी कर रहे हैं। वह काम जो नाथूराम गोडसे नहीं कर पाया था, आज मोदी कर रहे हैं। एक तरह से गोडसे की ग़लती को सुधार रहे हैं।

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नीरेंद्र नागर

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