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वर्धा: गाँधी के नाम पर विश्वविद्यालय में ‘गाँधीवादी विरोध’ गुनाह?

ख़बर मिली है कि वर्धा के महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय प्रशासन ने अपने उस आदेश को वापस ले लिया है जिसके मुताबिक़ 6 छात्रों को विश्वविद्यालय से इस कारण निलंबित कर दिया गया था कि उन्होंने चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन किया। निलंबन को रद्द करने के इस फ़ैसले में कहा गया है कि पहले आदेश में तकनीकी विसंगति थी। यह भी कि प्रशासन को यह ख़्याल आया कि छात्रों को नैसर्गिक न्याय मिलना चाहिए।
अपूर्वानंद

इस निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए। इससे विश्वविद्यालय प्रशासन का रुतबा कम नहीं हुआ। लेकिन इससे एक चिंता पैदा होती है। फ़र्ज़ कीजिए कि इस मसले को राष्ट्रीय मीडिया में जगह न मिलती तो क्या विश्वविद्यालय प्रशासन अपने दंड के निर्णय पर पुनर्विचार करता? दूसरे, कि विश्वविद्यालय जैसी जगह में जहाँ अध्यापन हो या शोध, हर जगह जिस हड़बड़ी और पूर्वग्रह से सावधान रहने का अभ्यास किया और कराया जाता है, प्रशासन ख़ुद उसी का शिकार हो जाए तो फिर विश्वविद्यालय का क़ारोबार कैसे चलेगा?

वर्धा के महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के 6 छात्र महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के क़रीब होने के कारण लगाई गई चुनाव संहिता का उल्लंघन करने के आरोप में विश्वविद्यालय से निकाल दिए गए थे। लेकिन वर्धा के ज़िलाधीश ने विश्वविद्यालय को ख़बर भेजी कि संहिता का सहारा लेकर वह छात्रों को निलंबित नहीं कर सकता। जब अख़बारवालों ने इसपर विश्वविद्यालय प्रशासन से उसकी प्रतिक्रिया माँगी तो उसने कहा कि मामला मूलतः अनुशासनहीनता का था, वह कारण तो बना हुआ है। विश्वविद्यालय ने इन छात्रों को परिसर में इकट्ठा होने से मना किया था। इस आदेश का उन्होंने उल्लंघन किया, इसलिए उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की गई। यह जवाब जिस बात को छिपाने की कोशिश करता है लेकिन जो छिप नहीं सकती क्योंकि उसका आदेश सार्वजनिक है, वह यह कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रों को इकट्ठा होने से मना करने का कारण यह नहीं बताया था कि राज्य में ही चुनाव आचार संहिता लागू है और उस वजह से छात्र यह सामूहिक कार्यक्रम नहीं कर सकते। इसलिए क़ायदे से निलंबन या निष्कासन के आदेश में उसे कारण नहीं बनाया जाना चाहिए था।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

प्रशासन के नोटिस के मुताबिक़ परिसर में प्रदर्शन इसलिए नहीं किया जा सकता कि केन्द्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1964 के मुताबिक़ परिसर में किसी भी प्रकार का धरना/प्रदर्शन प्रतिबंधित है। इस नियम या आचरण संहिता की यह व्याख्या विचित्र है। सिविल सेवा आचरण संहिता उनपर लागू होती है जो सिविल सेवक या सरकारी कर्मचारी माने जाते हैं। यह कोशिश कुछ समय से चल रही है कि विश्वविद्यालय के अध्यापकों को इस संहिता से बाँध दिया जाए ताकि वे सरकार के प्रति आलोचनात्मक गतिविधि में शामिल न हो पाएँ। अध्यापकों की यह आज़ादी कि वे सरकारों की आलोचना कर सकें, राज्य को खटकती रही है। इसलिए बीच बीच में हर सरकार उन्हें नाथने के तरीक़े खोजती रहती है। लेकिन पिछले एक साल में इस आचरण संहिता के विश्वविद्यालयों पर लागू करने से जुड़ी बहस में और संहिता को पढ़ते हुए यह कभी ख़्याल नहीं आया कि छात्रों को भी सिविल सेवक मान लिया जाएगा। या यह कि पूरे परिसर में किसी प्रकार की सामूहिक गतिविधि भी इस संहिता के कारण प्रतिबंधित है।

क्या यह बात आज के शासक दल, जो केंद्र और महाराष्ट्र दोनों जगह सत्ता में है, से संबद्ध शिक्षक और छात्र संगठनों को कबूल है? उन्हें अपनी राय जाहिर करनी चाहिए क्योंकि अगर यह संहिता इस रूप में विश्वविद्यालय परिसरों में लागू की जाएगी तो उनका काम करना भी असंभव हो जाएगा।

प्रशासन अपने निलंबन के लिए यह कारण बता सकता है कि उसने पहले ही छात्रों को चेतावनी दे दी थी। उसके बावजूद उन्होंने जब सामूहिक गतिविधि की तो विश्वविद्यालय भी दंडात्मक कार्रवाई के लिए स्वतंत्र है। अनुशासन का अर्थ पहले ही चरण में दंड नहीं होता। यह आम तरीक़ा है और सरकारी दफ़्तरों में भी अपनाया जाता है कि जिस पर आरोप है, पहले उसे सफ़ाई का मौक़ा दिया जाता है। न्याय का तक़ाज़ा यही है। सीधे वह दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जाती जो क़ायदे से आख़िरी क़दम होना चाहिए। चौतरफ़ा दबाव बनने के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने अपने निर्णय में संशोधन किया है। अपने निर्णय में संशोधन कभी भी कमज़ोरी का परिचायक नहीं है बल्कि वह वैध प्रक्रिया या जायज़ तरीक़े को लेकर प्रशासन की प्रतिबद्धता का ही प्रमाण होगा।

यह बात इससे अलग है कि छात्रों के प्रति आम तौर पर विश्वविद्यालय प्रशासन को उदारता बरतनी चाहिए जब तक कि उनकी कार्रवाई इस हद तक न पहुँच जाए कि विश्वविद्यालय का काम करना मुश्किल हो जाए।
विश्वविद्यालय ऐसी जगह मानी जाती रही है जहाँ सत्ता की आलोचना निरापद होकर की जा सकती है। दुनिया भर में विश्वविद्यालय में किसी तरह घुसपैठ की कोशिश सरकारें करती रही हैं। तुर्की में हज़ारों छात्रों और अध्यापकों का निष्कासन या उन्हें क़ैद एक उदाहरण है। चीन में सरकार की आलोचना परिसर में असंभव है। लेकिन भारत तो गर्व करता रहा है कि वह न तो स्टालिन का रूस है, न चीन या तुर्की। फिर यह जो हिंदी विश्वविद्यालय में हुआ, वह भारत को किस श्रेणी में धकेल देता है? या इसे नया क्यों मानें? 2016 में केंद्रीय गृह मंत्री ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक छोटे से कार्यक्रम में पैदा हुए विवाद के बाद ही यह कहा कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं का गठजोड़ सीमा पार के आतंकवादियों से है। इस निहायत ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयान के लिए उन्होंने आज तक माफ़ी नहीं माँगी है। उसके पहले हैदराबाद में भी आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन पर जिस तरह शासक दल ने हमला किया, वह शर्मनाक था। लेकिन वह आज तक जारी है।

छात्रों के प्रति कठोरता क्यों?

इधर देखा जा रहा है कि भारत भर के विश्वविद्यालय एक विशेष छात्र संगठन को छोड़कर बाक़ी सबके प्रति कठोर हो उठे हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय या हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के अलावा अन्य परिसरों से कुछ इसी क़िस्म के इशारे मिल रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि उस एक संगठन को तो राष्ट्रवादी विचार का प्रचारक माना जाता है जोकि न तो राजनीतिक है, न राज्य विरोधी इसलिए उसके साथ वात्सल्यपूर्ण व्यवहार होता है और बाकियों को विध्वंसक, नकारात्मक आदि मानकर उनपर डंडा चलाया जाता है।

इसके साथ ही यह सवाल भी है कि अगर इस तरह का जमावड़ा किसी राजकीय फ़ैसले का स्वागत करने के लिए किया जाता तो वह संहिता के अनुकूल होता या प्रतिकूल? ख़ुद सरकार ने इस क़िस्म के इशारे स्कूलों और विश्वविद्यालयों को किए कि अनुच्छेद 370 और कश्मीर के बारे में केंद्र सरकार के निर्णय की अभ्यर्थना का सार्वजनिक इज़हार आयोजित किया जाए। वह राजनीतिक होता या राष्ट्रवादी?

भेदभावपूर्ण कार्रवाई?

हम उस घटना पर लौट आएँ जिसके कारण यह टिप्पणी लिखी जा रही है। निलंबित छात्रों की संख्या 6 थी। इनका आरोप है कि वे दलित और अन्य पिछड़े समुदाय के सदस्य हैं इसलिए उन्हें चुनकर निशाना बनाया गया था। उनके मुताबिक़ प्रदर्शन में सौ से अधिक छात्र थे, सिर्फ़ उन्हें क्यों दण्डित किया गया? प्रशासन का तर्क था कि उसके पास सबूत है कि ये छह छात्र प्रतिरोध का नेतृत्व कर रहे थे इसलिए उनपर कार्रवाई की गई है। इसका उनकी जातीय पृष्ठभूमि से कोई लेना देना नहीं। एक मिनट के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन की इस बात को मान भी लिया जाए तो सवाल यह है कि उसने कैसे छात्रों को दो समूहों में बाँटा और इन छह की ज़िम्मेवारी अधिक ठहराई और शेष छात्रों को बिलकुल दोषमुक्त कर दिया। इस न्यायिक कार्रवाई में ही एक अन्यायपूर्ण भेदभाव नज़र आता है। हम मानकर चलें कि वह इसके बारे में आगे कोई और तर्क देगा।

छात्र विरोध किस बात का कर रहे थे? बिहार की एक अदालत ने 49 कलाकारों और बुद्धिजीवियों के ख़िलाफ़ राजद्रोह का मुक़दमा चलाने का आदेश दिया था क्योंकि उन्होंने देश की स्थिति से दुखी या नाराज़ होकर प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था। इस आदेश के बाद देश में एक अभियान चला कि और लोग भी उन 49 की तरह या उनके पक्ष में प्रधानमंत्री को पत्र लिखें। हिंदी विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी तय किया कि वे साथ मिलकर इस क़िस्म का पत्र प्रधानमंत्री को लिखेंगे। यह विश्वविद्यालय प्रशासन को कबूल न था। फिर भी छात्र एकत्र हुए और उन्होंने पत्र लिखा। यह उन 49 के साथ एकजुटता जाहिर करना था।

ऐसा करने के कारण जब उनमें से सिर्फ़ 6 को दण्डित किया जा रहा था तो विश्वविद्यालय द्वारा छोड़ दिए गए छात्रों को ख़ुद सामने आकर विश्वविद्यालय की इस पक्षपातपूर्ण उदारता को अस्वीकार करना चाहिए था।
यह कठिन है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी पिछले दिनों 48 अध्यापकों पर प्रशासन ने दंडात्मक कार्रवाई शुरू की। प्रशासन के मुताबिक़ उसके आदेश का उल्लंघन करते हुए उन्होंने प्रतिबंधित क्षेत्र में प्रदर्शन किया था। जितने लोगों के ख़िलाफ़ यह अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई उनसे कई गुना ज़्यादा उसमें शामिल थे। लेकिन वे छोड़ दिए गए अध्यापक अपने सहकर्मियों के साथ एकता में सामने नहीं आ सके। क्या इससे वह विरोध-प्रदर्शन, जिसमें वे सब शामिल थे, विश्वसनीय रह गया? क्या वे ख़ुद अपनी निगाह में विश्वसनीय रह गए?
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जनतंत्र की हिफ़ाज़त की उम्मीद किसी भी सत्ता से नहीं की जाती, वह राज्य हो या विश्वविद्यालय। लेकिन जो उसके ख़िलाफ़ जनतंत्र की हिफ़ाज़त के नाम पर खड़े होते हैं, उन्हें ही अपनी हर कार्रवाई से जनतंत्र का अर्थ साफ़ करते रहना होता है। लेकिन एक प्रश्न अभी ज़िंदा है कि  एक ही ‘अपराध’ के लिए जब कुछ को चुना जाए तो बाक़ी जो उस कार्रवाई में उतना ही शरीक थे क्या चुप रह जाएँ? यह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छोड़ दिए गए अध्यापकों पर भी उतना ही लागू होता है। वरना प्रशासन की यह व्याख्या वैध साबित होगी कि दण्डित उनको किया गया जिनका दिमाग़ था बाक़ी निष्क्रिय अनुयायी मात्र थे। और इससे बड़ा अपमान किसी व्यक्ति का हो नहीं सकता कि उसका दिमाग़ किसी और का बताया जाए, वह भी तब जब वह व्यक्ति किसी विश्वविद्यालय में छात्र या अध्यापक हो।

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