स्वतंत्रता दिवस पर शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण सुनते हुए कई सवाल दिमाग में आए- राष्ट्रीय सुरक्षा-मज़बूती से लेकर पड़ोसियों से संबंध व गलवान घाटी तक। स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर शौर्य पदकों की सूची में गलवान घाटी में दुश्मन को मुँहतोड़ जवाब देने वाले किसी भी सैनिक का नाम न होने से लगा कि शायद सरकार प्रधानमंत्री के 19 जून के वक्तव्य पर कायम है कि न कोई घुसा, न कोई घुसा हुआ है और न हमारी किसी पोस्ट पर क़ब्ज़ा है। पड़ोसियों से संबंध के बारे में जो बातें प्रधानमंत्री ने कहीं और ज़मीनी हक़ीक़त के बीच तालमेल बैठाने की भी कोशिश करता रहा, लेकिन सफल न हो सका। पाकिस्तान व चीन को छोड़ दीजिए, नेपाल, श्रीलंका व म्यांमार तक से हमारे संबंध चीन के मुक़ाबले कमज़ोर ही नज़र आते हैं। बांग्लादेश से रिश्तों में भी संशय घर करता जा रहा है। प्रधानमंत्री ने सुरक्षा परिषद की अस्थाई सदस्यता के लिए मिले समर्थन को भारत की बढ़ती हुई मज़बूती, सुरक्षा का पैमाना बताया। यहाँ भी समर्थन को लेकर हक़ीक़त दावे से मेल नहीं खा रही है।
कारगिल के योद्धाओं को मिला था उसी साल सम्मान
इस स्वतंत्रता दिवस पर 84 वीरता पदकों की घोषणा की गई लेकिन इनमें गलवान घाटी में हुई चीनी सेना से मुठभेड़ में शामिल एक भी जवान का नाम नहीं है। जबकि प्रधानमंत्री ने लाल क़िले से अपने भाषण में इन सैनिकों की वीरता को असाधारण क़रार दिया और राष्ट्रपति ने भी राष्ट्र के नाम अपने संदेश में गलवान घाटी के शहीदों को राष्ट्रीय गौरव के लिए प्राण न्योछावर करने वाला कहा और उनके शौर्य को नमन किया। लेकिन इस असाधारण शौर्य के बावजूद देश के इन शहीदों को शौर्य पुरस्कार लायक नहीं समझा गया। दूसरी तरफ़, जुलाई 1999 में कारगिल युद्ध के बाद उसी वर्ष कारगिल के योद्धाओं को स्वतंत्रता दिवस पर चार परमवीर चक्र समेत अनेक वीरता पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था।
गलवान को लेकर संशय ही मज़बूत हुआ
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कहा- ‘असाधारण लक्ष्य को लेकर के असाधारण यात्रा पर निकलते हैं तो रास्ते में चुनौतियों की भरमार होती है और चुनौतियाँ भी असाधारण होती हैं। इतनी आपदाओं के बीच सीमा पर भी देश के सामर्थ्य को चुनौती देने के दुष्प्रयास हुए हैं। लेकिन एलओसी से लेकर एलएसी तक देश की संप्रभुता पर जिस किसी ने भी आँख उठाई, देश की सेना ने, हमारे वीर जवानों ने उसका उसी की भाषा में जवाब दिया है। भारत की संप्रभुता की रक्षा के लिए पूरा देश एक जोश से भरा हुआ है। संकल्प से प्रेरित है और सामर्थ्य से भरा हुआ है। इस संकल्प के लिए हमारे वीर जवान क्या कर सकते हैं, देश क्या कर सकता है, ये लद्दाख में दुनिया ने देख लिया है। मैं आज मातृभूमि पर न्योछावर उन सभी वीर जवानों की लाल क़िले की प्राचीर से आदर पूर्वक नमन करता हूँ। आतंकवाद हो या विस्तारवाद, भारत डटकर मुक़ाबला कर रहा है।’
इससे पहले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा कि भारत की आस्था शांति में है लेकिन किसी भी आक्रामक प्रयास का वह मुँहतोड़ जवाब देने में सक्षम है।
राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री द्वारा गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों के शौर्य का इतना इस्तकबाल करने के बाद भी एक भी शौर्य पदक न दिया जाना पहले से चले आ रहे संशयों को ही मज़बूत करता है।
क्या भारत 2011 के मुक़ाबले कम मज़बूत व सुरक्षित है?
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि ‘आज दुनिया का भारत पर विश्वास और मज़बूत हुआ है। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अस्थाई सदस्य के रूप में 192 में से 184 देशों का समर्थन मिलना, यह हमारे हर हिंदुस्तानी के लिए गर्व दिलाता है। विश्व में हमने अपनी कैसी पहुँच बनाई है, उसका ये उदाहरण है। और ये तभी संभव होता है जब भारत ख़ुद मज़बूत हो, भारत सशक्त हो, भारत सुरक्षित हो। इसी सोच के साथ, आज अनेक मोर्चों पर काम किया जा रहा है।’ राष्ट्रपति ने भी अपने संदेश में कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता के लिए, हाल ही में सम्पन्न चुनावों में मिला भारी समर्थन, भारत के प्रति व्यापक अंतरराष्ट्रीय सद्भावना का प्रमाण है।
मतलब यह हुआ कि सुरक्षा परिषद की अस्थाई सदस्यता के लिए इतना भारी समर्थन पहले कभी नहीं मिला। प्रधानमंत्री ने ख़ुद कहा कि 192 में से 184 देशों का समर्थन मिलना इस बात का प्रमाण है कि भारत बहुत ज़्यादा मज़बूत हुआ है। आइये देखते हैं कि इससे पहले जब भी भारत सुरक्षा परिषद का अस्थाई सदस्य बना, तब उसे सबसे ज़्यादा समर्थन कब मिला था? तो इससे पहले भारत सात बार अस्थाई सदस्य रह चुका है और अंतिम बार उसको अस्थाई सदस्यता 2011-12 में मिली थी। उस समय भारत को संयुक्त राष्ट्र के 191 में से 187 सदस्यों का समर्थन मिला था। इस चुनाव में एक सदस्य देश ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया था। इस चुनाव की खास बात यह थी कि पाकिस्तान ने भी भारत के पक्ष में वोट दिया था। अगर प्रधानमंत्री मोदी के तर्क को माना जाए तो क्या हमें समझना चाहिए भारत 2011 के मुक़ाबले अब कम सशक्त व सुरक्षित रह गया है?
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