तिब्बत सीमा से लगे नेपाल-भारत-चीन त्रिकोण पर स्थित कालापानी के इलाके पर नेपाल दशकों से अपना अधिकार जताता रहा है जिसे भारत सरकारें हलके में लेती रहीं। इसका नतीजा आज यह निकला है कि भारत और नेपाल के रिश्तों में यह मुद्दा एक ऐसे कांटे की तरह चुभेगा जिसे निकालना भारतीय राजनयिकों के लिए मुश्किल साबित होगा।
अस्सी के दशक में जब नेपाल ने इस मसले को उठाया था तब भारत-नेपाल रिश्तों में चीन उतना बड़ा कारक नहीं था, इसलिए भारतीय राजनयिकों ने इस नजरिये से कभी नहीं सोचा होगा कि चीन नेपाल-भारत रिश्तों में इस वजह से पैदा हुई खाई का लाभ उठा सकता है।
वर्तमान विवाद पर चीनी विदेश मंत्रालय का यह कथन काफी महत्वपूर्ण है कि कालापानी का मसला भारत और नेपाल के बीच का है और इसे लेकर कोई भी देश एकपक्षीय क़दम नहीं उठाए।
नेपाल के सीमांत इलाके के नजदीक भारत के उत्तराखंड प्रदेश में लिपुलेख के रास्ते तिब्बत के भीतर कैलाश मानसरोवर तक जाने के लिए जो 80 किलोमीटर का सड़क मार्ग भारत ने बनाया है, वह चीन को इसलिए खटक रहा है क्योंकि यह मार्ग भारत को सामरिक लाभ की स्थिति प्रदान करेगा।
पड़ोसी देशों के साथ छोटा विवाद भी बड़ा मसला बन सकता है जिसके अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नतीजे हो सकते हैं। अक़सर इस तरह के छोटे विवादों को नजरअंदाज करने या टाल देने या फिर दादागिरी के अंदाज में यह कह देने से कि भारत नेपाल के दावे को खारिज करता है, भारत की दादा देश की छवि बनती है।
वास्तव में कालापानी का मसला एक गैर मुद्दा ही कहा जा सकता है जो भारतीय कूटनीति की टालमटोल की नीति की वजह से गर्म मसला बन गया है।
कालापानी के इलाके पर नेपाल का दावा अनुचित है, यह नेपाल को राजनयिक स्तर पर बातचीत से अच्छी तरह समझाया जा सकता था लेकिन इस मसले पर नेपाल की शिकायत या चिंता दूर करने के लिए भारत ने कभी गम्भीर क़दम नहीं उठाए।
लंबे समय तक लटका रहा मसला
अस्सी के दशक में भारत-नेपाल सीमा निर्धारण के लिए एक तकनीकी स्तर का संयुक्त सीमा कार्यदल गठित किया गया था जिसने कालापानी और सुस्ता के इलाके को छोड़कर बाकी की सीमा तय कर दी थी। इसके तुरंत बाद भारतीय राजनयिकों को चाहिये था कि नेपाली राजनयिकों के साथ वार्ता जारी रखकर इसका हल निकाल लेते लेकिन यह मसला लटका रहा और जब सन 2000 में तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री बी.पी. कोईराला ने भारत का दौरा किया तो तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें भरोसा दिलाया कि 2002 तक इस मसले का हल बातचीत से निकाल लिया जाएगा। लेकिन यह मसला फिर लटका रहा।
गौरतलब है कि नेपाल-भारत सीमा का मूल निर्धारण 1816 में तत्कालीन ब्रिटिश भारत और नेपाल सरकार के बीच सुगौली संधि के जरिये हुआ था और फिर 1923 में इस संधि की पुष्टि की गई। इस संधि में महाकाली के पश्चिमी इलाके भारत के अधीन तय किये गए, जहां 309 वर्ग किलोमीटर का कालापानी का इलाका आता है।
वास्तव में तब से महाकाली नदी ही भारत-नेपाल की व्यावहारिक सीमा के तौर पर चलती रही। लेकिन आज नेपाल कहता है कि वह ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ हुए समझौते को नहीं मानता।
दोनों देशों के अपने-अपने तर्क
नेपाल का कहना है कि महाकाली नदी लिपुलेख के उत्तर-पश्चिम में लिम्पियाधुरा से निकलती है, इसलिए कालापानी और लिपुलेख का इलाका नदी के पूर्व में पड़ता है और इस नाते वह सारा इलाका नेपाल का माना जाना चाहिये जबकि भारत का कहना है कि महाकाली नदी लिपुलेख दर्रे के नीचे से निकलती है और सुगौली संधि में इस इलाके का पक्का निर्धारण नहीं किया गया।
भारत का कहना है कि इस इलाके पर 19वीं सदी से ही ब्रिटिश भारत सरकार का राजस्व और प्रशासनिक अधिकार रहा है। इस नाते कालापानी भारत का है जो उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का हिस्सा बनता है।
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