1945 में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने, ख़ासकर लेबर पार्टी की नई सरकार ने भारत को औपनिवेशिक स्वराज देने के अपने वादे पर अमल करना शुरू किया। साल 1946 में कैबिनेट मिशन नामक एक दल भारत आया और स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा के गठन की कार्रवाई शुरू की गई। कैबिनेट मिशन ने कल के भारत का एक राजनीतिक-प्रशासनिक ढाँचा भी प्रस्तावित किया जिसके अनुसार भारत के अंदर ही धर्म के आधार पर उत्तर-पश्चिम, पूर्व और मध्य-दक्षिण प्रांतों को मिलाकर तीन आंचलिक समूह बनने थे लेकिन इसके साथ ही किसी भी प्रांत को किसी भी समूह के साथ जाने या न जाने की अनुमति मिलनी थी।
इन प्रस्तावों का कांग्रेस और मुसलिम लीग दोनों ने स्वागत किया लेकिन बाद में कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों की व्याख्या को लेकर फिर मतभेद उभर गए। इस बीच जवाहरलाल नेहरू ने यह भी कह दिया कि संविधान सभा कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों में ज़रूरत पड़ने पर बदलाव भी कर सकती है। इससे जिन्ना भड़क गए। लीग ने 16 अगस्त को ‘डायरेक्ट ऐक्शन’ का अभियान शुरू किया जिसके बाद कलकत्ता और कुछ और इलाक़ों में भयंकर दंगे शुरू हो गए। इन दंगों के बाद लगने लगा कि विभाजन के अलावा अब कोई रास्ता नहीं बचा।
लेकिन कुछ लोगों को लग रहा था कि विभाजन के बाद भी विभाजित क्षेत्र एक महासंघ का हिस्सा बने रह सकते हैं। इसी उम्मीद में दिसंबर 1946 में एक और कोशिश की गई और नेहरू, लियाक़त अली और जिन्ना को लंदन बुलाया गया। लेकिन वहाँ कोई बात नहीं बनी। वार्ता के बाद एक संयुक्त बयान जारी किया गया जिसके अनुसार भारत के किसी भी इलाक़े के अनिच्छुक लोगों पर नया संविधान नहीं थोपा जाएगा। लेकिन जिन्ना इससे बहुत संतुष्ट नहीं हुए और लीग ने संविधान से जुड़े मामलों पर होने वाले विचार-विमर्श में भाग लेने से इनकार कर दिया। इसके बाद जिन्ना ने घोषणा कर दी कि वे पाकिस्तान के रूप में एक अलग और स्वतंत्र देश देखना चाहते हैं। इसके साथ ही भारतीय महासंघ - जिसका हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों हिस्सा होते - बनने से पहले ही ध्वस्त हो गया।
अब बारी थी प्रांतों के बँटवारे की। विभाजन तो तय हो गया था, दोनों भारतीय महासंघ के हिस्सा नहीं होंगे, यह भी तय हो गया था। लेकिन किसके हिस्से कौन-कौनसे प्रांत आएँगे, यह पूरी तरह तय नहीं हुआ था। जिन्ना चाह रहे थे कि पंजाब और बंगाल जो मुसलिम-बहुल थे, पाकिस्तान के हिस्से में आ जाएँ। लेकिन इन प्रांतों में हिंदुओं और सिखों की बड़ी तादाद थी और वे पाकिस्तान के साथ अपना भविष्य नहीं जोड़ना चाहते थे। सो बात अटकी हुई थी।
ब्रिटेन की नई सरकार जल्द-से-जल्द भारत से विदा लेना चाहती थी। लेकिन वाइसरॉय वेवल कांग्रेस और लीग के मतभेदों के चलते कुछ ख़ास कर नहीं पा रहे थे। इसलिए मार्च 1947 को उनको हटाकर लॉर्ड माउंटबैटन को भारत का वाइसरॉय बनाया गया। माउंटबैटन को जून 1948 तक का वक़्त दिया गया कि इससे पहले भारत में सत्ता का हस्तांतरण हो जाना चाहिए। लेकिन उन्होंने यह काम 6 महीनों के अंदर ही कर दिया हालाँकि कुछ लोगों का कहना है और उसमें अंग्रेज़ी हुकूमत के लोग भी शामिल हैं कि अगर उन्होंने इतनी हड़बड़ी न की होती तो दंगों में लाखों लोगों की जानें न जातीं।
पंजाब और बंगाल बँटवारे पर ठनी
ख़ैर, जैसे ही यह तय हो गया कि बँटवारा अब टल नहीं सकता, चीज़ें तेज़ी से आगे बढ़ने लगीं। नेहरू ने बाद में 1960 में कहा, ‘सच्चाई यह है कि हम सब थक चुके थे… विभाजन की योजना ने एक रास्ता खोला और हमने उसे स्वीकार कर लिया।’ कांग्रेस के नेताओं को लगा कि मुसलिम-बहुल प्रांतों वाला संयुक्त भारत कोई अच्छा सौदा नहीं होगा अगर इसके लिए एक कमज़ोर केंद्रीय सरकार की शर्त माननी पड़े; इससे बेहतर विकल्प होगा कि इन प्रांतों से रहित एक विभाजित भारत हो जिसकी बागडोर एक मज़बूत केंद्रीय सरकार के हाथों में हो।
इसके साथ ही कांग्रेस ने भी यह ठान लिया था कि पूरा का पूरा पंजाब या बंगाल पाकिस्तान के हिस्से में नहीं जाने देंगे क्योंकि वहाँ के हिंदू और सिख अल्पसंख्यक ऐसा नहीं चाहते।
जब जिन्ना को कांग्रेस के इरादों का पता चला तो उन्होंने एक बयान जारी किया। उन्होंने कहा - अब बंगाल और पंजाब को बाँटने की माँग की जा रही है, किसी ईमानदार मक़सद से नहीं, बल्कि कटुता और दुर्भावना से प्रेरित एक दुष्टताभरी चाल के तहत ताकि अव्वल तो ब्रिटिश सरकार और वाइसरॉय के सामने और परेशानियाँ उत्पन्न कर दी जाएँ और दूसरे मुसलमानों को यह बताकर और बार-बार दोहराकर हतोत्साहित कर दिया जाए कि उनको एक टूटा-फूटा और दीमकखाया पाकिस्तान ही हाथ आएगा।
जिन्ना ने कहा कि यदि पंजाब और बंगाल को इस आधार पर बाँटा जा रहा है कि उसमें रहने वाले अल्पसंख्यक पाकिस्तान के साथ जुड़ना नहीं चाहते तो यही बात उन प्रांतों में भी लागू हो सकती है जहाँ हिंदू बहुसंख्यक हैं और मुसलमान अल्पसंख्यक हैं और उनको भी बाँटना होगा। यदि ऐसा हुआ तो इन प्रांतों की प्रशासनिक, राजनीतिक और आर्थिक जड़ें हिल जाएँगी।
जिन्ना का प्रस्ताव - बंगाल, पंजाब को न बाँटा जाए
जिन्ना ने इसके बदले यह प्रस्ताव दिया कि पंजाब और बंगाल को न बाँटा जाए और यदि वहाँ रहने वाले अल्पसंख्यक भारत में जाना चाहें तो उनको जाने दिया जाए। इसी तरह भारत के हिस्से में आए प्रांतों के अल्पसंख्यक पाकिस्तान जाना चाहें तो उनको भी जाने दिया जाए।
कांग्रेस के नेता डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने जिन्ना की बातों को लीग के 1940 के लाहौर प्रस्ताव से ही काटा। उन्होंने याद दिलाया कि लाहौर प्रस्ताव में ही लिखा था कि भौगोलिक रूप से जुड़े हुए इलाक़ों को मिलाकर नए क्षेत्र बनाए जाएँ और ज़रूरी हो तो उनमें सीमाई बदलाव भी किए जाएँ…।
दोनों हाथों में लड्डू नहीं: राजेंद्र प्रसाद
डॉ. प्रसाद ने याद दिलाया कि ‘उस प्रस्ताव के हिसाब से ही ऐसे मुसलिम-बहुल इलाक़ों को मिलाकर नया राज्य बनाया जा रहा है जो एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और ज़रूरत को देखते हुए उसमें सीमाई बदलाव भी किए जा रहे हैं। प्रस्ताव के अनुसार मुसलिम लीग ऐसे किसी इलाक़े पर दावा नहीं कर सकती जो आपस में जुड़ा हुआ न हो और जहाँ मुसलमान बहुमत में न हों। यदि बंगाल और पंजाब के उन इलाक़ों के लोग जहाँ मुसलमान बहुमत में नहीं हैं, लीग के प्रस्ताव पर अमल करना चाहते हैं तो जिन्ना के मुँह से यह सुहाता नहीं है कि वे उन लोगों पर इल्ज़ाम लगाएँ और उन्हें अपशब्द कहें। आपके दोनों हाथों में लड्डू नहीं हो सकते।’
जिन्ना की इस टिप्पणी पर कि पंजाब और बंगाल के विभाजन से इन प्रांतों की ज़िंदगी अस्तव्यस्त हो जाएगी, डॉ. प्रसाद ने कहा : वे भूल रहे हैं कि इसके लिए वे ख़ुद ज़िम्मेदार हैं जो भारत के बँटवारे की माँग करके केवल यही नहीं बल्कि सदियों से पनपे न जाने कितने ही बहुमूल्य रिश्तों को तार-तार कर रहे हैं।
माउंटबैटन की अंतिम योजना
पंजाब और बंगाल का विभाजन न करने की जिन्ना की बात नहीं मानी गई। 2 जून को माउंटबैटन ने भारतीय नेताओं के सामने अपनी अंतिम योजना रख दी जो इस प्रकार थी :
15 अगस्त 1947 को ब्रिटेन दोनों डोमिनियनों को सत्ता सौंप देगा।
प्रांत इस बारे में तय करेंगे कि वे मौजूदा संविधान सभा के साथ रहना चाहेंगे या नई (यानी पाकिस्तान) के साथ जुड़ना चाहेंगे।
बंगाल और पंजाब को भी वोट का अधिकार होगा - संविधान सभा चुनने का और विभाजन के बारे में राय देने का।
उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत (जहाँ मुसलिम-बाहुल्य के बावजूद लीग की सरकार नहीं थी) और असम के मुसलिम-बहुल सिलहट ज़िले में (जो पूर्वी बंगाल से जुड़ा हुआ था) रायशुमारी से तय होगा कि वहाँ के लोग किसके साथ जुड़ना चाहेंगे।
3 जून को माउंटबैटन, नेहरू, जिन्ना और सिख नेता बलदेव सिंह ने रेडियो पर इसकी औपचारिक घोषणा की। जिन्ना ने अपना संबोधन इस नारे से समाप्त किया - पाकिस्तान ज़िंदाबाद।
अगले कुछ हफ़्तों में पंजाब और बंगाल में वोट डाले गए और उसके हिसाब से दोनों का विभाजन हुआ। सिलहट और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत ने पाकिस्तान के साथ जाने का फ़ैसला किया हालाँकि उ.प. सीमा प्रांत में बहुत कम वोटिंग हुई और केवल 10% लोगों को वोट डालने दिया गया। सिंध और बलूचिस्तान की विधानसभाओं ने भी पाकिस्तान से मिलने की राय जताई।
जिन्ना का संविधान सभा में भाषण
आज़ादी और साथ-साथ बँटवारे का दिन क़रीब आ रहा था। जिन्ना 7 अगस्त को मुंबई से कराची के लिए रवाना हुए। 11 अगस्त को पाकिस्तान की नई संविधान सभा की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा, ‘आप आज़ाद हैं; आप आज़ाद हैं किसी भी मंदिर, किसी भी मसजिद या पाकिस्तान राज्य के किसी भी अन्य पूजास्थल में जाने के लिए… आप किसी भी धर्म या जाति के हो सकते हैं - राज्य के कामकाज का उससे कोई लेनादेना नहीं है… मैं समझता हूँ कि हमें अपने सामने यही आदर्श रखना चाहिए और कुछ समय के साथ आप देखेंगे कि हिंदू हिंदू नहीं रहे और मुसलमान मुसलमान नहीं रहे, धार्मिक अर्थ में नहीं क्योंकि वह तो उनकी निजी आस्था का विषय है, लेकिन राजनीतिक तौर पर और राज्य के नागरिक के रूप में।'
इसके अगले ही दिन यानी 12 अगस्त को सीमा आयोग के अध्यक्ष रैडक्लिफ़ ने बँटवारे का नक़्शा माउंटबैटन को सौंप दिया। माउंटबैटन ने 17 अगस्त तक उसे जारी नहीं किया क्योंकि वे आज़ादी के जश्न को बेस्वाद नहीं करना चाहते थे। वैसे सीमाई इलाक़ों में रहने वाले हिंदुओं और मुसलमानों के लिए यह आज़ादी आग की लपटें और ख़ूनी तलवारें लेकर आई थी जिसमें लाखों हिंदू और मुसलमान जलकर ख़ाक हो गए या मर-कट गए और जो बचे, वे अपने नए देश या वतन में शरणार्थी बनकर रहने पर मजबूर हो गए। इस बँटवारे के कारण क़रीब डेढ़ करोड़ लोगों को अपनी जन्मभूमि या कर्मभूमि से बेदख़ल होना पड़ा और 5 से 10 लाख स्त्री, पुरुष और बच्चे मर गए या मार डाले गए।
लाखों लोगों की तबाही के बाद जो पाकिस्तान बना, क्या जिन्ना उससे ख़ुश थे? जवाब है नहीं, क्योंकि बंगाल और पंजाब के विभाजन के बाद जो भू-भाग पाकिस्तान के हिस्से आया था, उसे तो वे ख़ुद ही ‘दीमक खाया’ ठहरा चुके थे।
कुछ विद्वानों का मत है कि यदि जिन्ना को पता होता कि विभाजन में पंजाब और बंगाल का भी बँटवारा होगा तो वह शायद बँटवारे की ज़िद पर न अड़े रहते।
भारत महासंघ पर नेहरू-पटेल की राय
कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जिन्ना केवल सत्ता में मुसलमानों की हिस्सेदारी और धार्मिक व अन्य अधिकारों की गारंटी चाहते थे और अंत-अंत तक उनकी इच्छा यही थी कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान एक ढीलेढाले महासंघ का हिस्सा बनकर रहते जहाँ केंद्रीय स्तर पर दोनों की औकात बराबर की रहती। लेकिन जैसा कि हमने ऊपर देखा, नेहरू और पटेल इस बात के लिए राज़ी नहीं थे क्योंकि इस विकल्प की जड़ में थी एक कमज़ोर और लुंजपुंज केंद्रीय सत्ता जो कांग्रेस को बिल्कुल ही गवारा नहीं थी। उन्होंने संयुक्त भारत मगर कमज़ोर केंद्र बनाम विभाजित भारत मगर शक्तिशाली केंद्र के बीच दूसरे विकल्प को चुना।
कुछ लोगों का मानना है कि यदि नेहरू की जगह जिन्ना भारत के पहले प्रधानमंत्री होते (जैसा कि गाँधीजी ने प्रस्ताव दिया था) तो भारत का बँटवारा टल जाता। वे बँटवारे के लिए नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराते हैं कि सत्ता के लोभ में उन्होंने यह विकल्प ठुकरा दिया। सच्चाई क्या है, यह हम जानेंगे इस सीरीज़ की अगली और अंतिम कड़ी में।
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