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CAB: मोदी जी! क्या ठंड से काँपते बच्चे की मदद से पहले उसका धर्म पूछेंगे?

प्रधानमंत्री मोदी ने नागरिकता संशोधन बिल के पारित होने का स्वागत करते हुए कहा है कि इससे भारत ने अपनी ‘करुणा और भाईचारे के राष्ट्रीय संस्कारों’ का प्रदर्शन किया है। अच्छी बात है। लेकिन उनकी इसी बात पर मैं उनसे और आपसे भी एक सवाल पूछना चाहूँगा। अगर आपको अपने घर के बाहर चार-पाँच साल का कोई बच्चा ठंड से ठिठुरता हुआ दिख जाए तो आप उसे अपने बेटे का पुराना स्वेटर देने से पहले क्या यह सोचेंगे कि वह किस धर्म या जाति का है?
नीरेंद्र नागर

नागरिकता संशोधन बिल जिसे अंग्रेज़ी में सिटिज़नशिप अमेंडमेंट बिल (CAB या कैब) कहा जाता है, उसका संसद से लेकर सड़क तक भारी विरोध हो रहा है। संसद में तो जो होना था, हो चुका क्योंकि दोनों सदनों ने बहुमत के साथ इसे पास कर दिया है और राष्ट्रपति की मुहर लगते ही यह क़ानून भी बन चुका है लेकिन सड़कों पर हालात गंभीर हैं। पूरे उत्तर-पूर्व में हिंसा फैली हुई है और कई ज़िलों में इंटरनेट बंद कर दिया गया है। लेकिन क्या आपको मालूम है कि संसद के अंदर कांग्रेस और उसके सहयोगी इस बिल का जिस कारण से विरोध कर रहे थे, वह असम और दूसरे उत्तर-पूर्वी राज्यों में हो रहे जन प्रतिरोध से बिल्कुल अलग, बल्कि उल्टा है।

आगे बढ़ने से पहले संक्षेप में समझ लें कि यह बिल है क्या। नागरिकता संशोधन बिल दरअसल भारत के तीन पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश- के उन अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने का प्रावधान करता है जो वहाँ धार्मिक कारणों से सताए जाने के कारण भारत आ गए हों और यहाँ कम-से-कम पिछले पाँच सालों से रह रहे हों। लेकिन इसमें पेच यह है कि यदि इन देशों से आने वाला विदेशी मुसलमान हो तो उसे भारत की नागरिकता नहीं मिलेगी।

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सरकार का तर्क है कि मुसलमानों को इस श्रेणी से अलग इसलिए किया गया है कि ये तीनों मुसलिम-बहुल देश हैं और वहाँ कोई मुसलमान अल्पसंख्यक हो, और इस कारण सताया जा रहा हो, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। पाकिस्तान में 40 लाख अहमदिया मुसलमान हैं जिनको वहाँ मुसलमान तक नहीं माना जाता। इसके अलावा शिया भी वहाँ अल्पसंख्यक हैं। विभाजन के समय भारत से पाकिस्तान गए मुसलमानों के साथ भी वहाँ भेदभाव होने की शिकायतें हैं।

यदि भारत सरकार को इन तीन पड़ोसी देशों में धर्म या दूसरे कारणों से सताए जा रहे लोगों की इतनी ही फ़िक्र है तो उसे सभी धर्मों के लोगों को भारत में आने और नागरिकता देने को तैयार रहना चाहिए था। वैसे भी जब चिंता है तो केवल इन तीन देशों में रहने वालों की ही क्यों? यदि पड़ोसी देशों में सताए जा रहे लोगों का इतना ही ख़्याल है तो बर्मा, श्रीलंका या किसी भी और पड़ोसी देश को क्यों छोड़ देना चाहिए? बर्मा में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ जो अत्याचार हुआ, उसे दुनिया जानती है। इसी तरह तमिल चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, श्रीलंका में अल्पसंख्यक हैं। यह बात एआईएडीएमके और दूसरे क्षेत्रीय दलों ने संसद में चर्चा के दौरान उठाई थी हालाँकि उन्होंने बिल के समर्थन में ही वोट दिया।

संक्षेप में इस बिल का विरोध करने वाले या आंशिक समर्थन करने वाले सैद्धांतिक तौर पर ऐसे किसी क़ानून के विरोधी नहीं हैं, न ही वे पड़ोसी देशों में सताए जा रहे लोगों को भारत की नागरिकता देने के ख़िलाफ़ हैं। वे तो बस इतना चाहते हैं कि ऐसा क़ानून लाने से पहले देशों का दायरा बढ़ाया जाए और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाए। उनका कहना है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और इसका संविधान धर्म के आधार पर ऐसा कोई भेदभाव करने की अनुमति नहीं देता कि बांग्लादेश या बर्मा से आए हुए लोग जो पिछले पाँच सालों से भारत में रह रहे थे और अब तक घुसपैठिए कहे जाते थे, उनको भारत की नागरिकता देते समय उनका धर्म पूछा जाए। 

नागरिकता संशोधन बिल का विरोध करने वाले यह नहीं चाहते कि बांग्लादेश में कोई हिंदू सताया गया हो तो उसे तो हम भारत की नागरिकता दे दें लेकिन बर्मा में कोई मुसलमान सताया गया हो तो उसे खदेड़ दें।

अब यह जानते हैं कि पूर्वोत्तर में इस बिल का विरोध क्यों हो रहा है। क्या वे भी यही चाहते हैं कि बिल में जो धार्मिक-क्षेत्रीय भेदभाव है, उसे समाप्त किया जाए और सभी पड़ोसी देशों में सताए जा रहे हिंदू-मुसलमान-बौद्ध-सिखों को भारत की नागरिकता दी जाए? नहीं। वे तो यह चाहते हैं कि ऐसे किसी भी व्यक्ति को भारत की नागरिकता नहीं दी जाए चाहे वह हिंदू हो, सिख हो, बौद्ध हो या मुसलमान हो और यदि दी जाए तो उन्हें इन राज्यों में रहने या बसने की इजाज़त न दी जाए। कारण, उनको डर है कि ये लोग यदि इन राज्यों में आ गए तो उनका सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। उनकी आशंकाओं को देखते हुए पूर्वोत्तर के कुछ आदिवासी ज़िलों को पहले ही इस बिल के दायरे से अलग रखा गया है लेकिन यह क़ानून बनने के बाद पूर्वोत्तर के ग़ैर-आदिवासी इलाक़ों में बांग्लादेश या बाक़ी दो देशों से आए हुए ग़ैर-मुसलिम न केवल रह सकते हैं बल्कि भारत की नागरिकता भी पा सकते हैं।

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विरोध के भी दो अलग-अलग आधार

यानी बिल का विरोध करने वाले दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं। एक उदार तबक़ा है जो भारत में आने वाले हर परेशान विदेशी का स्वागत करना चाहता है चाहे वह किसी भी धर्म का हो। दूसरा आंचलिक हितों से प्रभावित तबक़ा है जो किसी भी विदेशी को भारत में, ख़ासकर अपने इलाक़े में, आने देना नहीं चाहता चाहे वह किसी भी धर्म का हो।

सरकार (यानी बीजेपी) इन दोनों के बीच खड़ी है। वह मुसलमानों के अलावा सभी का भारत में स्वागत करने को तत्पर है। उसका यह रवैया उसकी हिंदूवादी और मुसलिम-विरोधी नीति के अनुकूल ही है। लेकिन क्या भारत का संविधान देश की केंद्रीय सरकार को धर्म के आधार पर ऐसा भेदभाव करने की इजाज़त देता है?

इस बात का अंतिम फ़ैसला तो उच्चतम न्यायालय ही करेगा और वह हम सबको मान्य होगा। 

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प्रधानमंत्री के संस्कार क्या?

प्रधानमंत्री मोदी ने इस बिल के पारित होने का स्वागत करते हुए कहा है कि इससे भारत ने अपनी ‘करुणा और भाईचारे के राष्ट्रीय संस्कारों’ का प्रदर्शन किया है। अच्छी बात है। लेकिन उनकी इसी बात पर मैं उनसे और आपसे भी एक सवाल पूछना चाहूँगा क्योंकि राष्ट्रीय संस्कार भी वैयक्तिक संस्कारों से ही बनते हैं। इसलिए यह सवाल आपसे - आपके अपने संस्कार क्या कहते हैं? 

अगर आपको अपने घर के बाहर चार-पाँच साल का कोई बच्चा ठंड से ठिठुरता हुआ दिख जाए तो आप उसे अपने बेटे का पुराना स्वेटर देने से पहले क्या यह सोचेंगे कि वह किस धर्म या जाति का है? क्या आप स्वेटर देने से पहले उससे पूछेंगे कि तुम्हारा नाम क्या है?

मोदी सरकार ने इस बिल के द्वारा यही किया है। सही किया है या ग़लत किया है, इसका जवाब ऊपर के मेरे सवाल पर आपके जवाब में ही छुपा है।

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नीरेंद्र नागर

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