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सफ़ाई कर्मचारियों के पाँव धोने वाले मोदी जी कब लेंगे उनकी सुध?

क़रीब एक साल पहले सफाईकर्मी तब चर्चा में आए थे, जब लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें कर्मयोगी करार देते हुए उनके पाँव पखारे थे। दिल्ली में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं और सफाई कर्मी एक बार फिर चर्चा में हैं। हाल ही में गहरे नाले में सफाई करते समय दिल्ली में एक कर्मचारी की मौत हो गई। आनन-फानन में आम आदमी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में यह एलान किया कि अगर किसी सफाईकर्मी की ड्यूटी करते वक़्त मौत हो जाती है तो उनकी सरकार उसे 1 करोड़ रुपये वित्तीय सहायता देगी। कर्मयोगियों के पांव धोने वाले नरेंद्र मोदी दोबारा प्रधानमंत्री बन चुके हैं लेकिन उन्होंने दिल्ली के सफाईकर्मियों के लिये कुछ नहीं किया।

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क्या है स्थिति

दिल्ली में काम करने वाले एक संगठन पीपुल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट (पीयूडीआर) की सितंबर, 2019 में एक रिपोर्ट आई। रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरी योजना और रखरखाव की उचित व्यवस्था न होने, सफाई के दौरान सुरक्षा उपकरण न होने और इस मामले में अपराधियों को दंडित किए जाने का प्रावधान न होने की वजह से सफाई कर्मियों की मौतें हो रही हैं। 

सरकार के आंकड़ों के मुताबिक़ हर 5 दिन में एक व्यक्ति की मौत सीवर में सफाई करने से हो जाती है। यह ख़बरें दुनिया भर के अख़बारों में आए दिन सुर्खियां बनती हैं, भले ही उन्हें भारत में चर्चा में शामिल नहीं किया जाता है। 

भारत में क़रीब 50 लाख लोग सफाई कर्मचारी के रूप में काम करते हैं। ये साफ-सुथरे लोगों का कचरा साफ करते-करते औसतन 40 साल की उम्र में दम तोड़ देते हैं।

सफाई के काम का मशीनीकरण और सफाई के दौरान सुरक्षा का उचित प्रबंध न होने के कारण सफाई कर्मियों को सांस की बीमारी, त्वचा संबंधी रोग, एनीमिया, पीलिया, ट्रोकोमा और कॉर्बन मोनो ऑक्साइड के जहरीले असर से जूझना पड़ता है।

कम मिलता है वेतन

विश्वविद्यालय और सचिवालय तक निजीकरण अब पहुंचा है। सबसे पहले चतुर्थ श्रेणी में निजीकरण हुआ और उन निरीह सफाईकर्मियों की ओर से कोई ऊंची आवाज भी नहीं उठी। रेलवे, अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों जैसे तमाम विभागों में सफाई कर्मी के तौर पर पोस्ट ग्रेजुएशन सहित बड़ी डिग्री रखने वाले ऊंची जाति के लोगों ने रिश्वत देकर नौकरियां पाईं और वे कभी सफाई करने नहीं गए। मामूली पैसे पर या रिश्वत देकर लोग भर्ती किए गए और ऐसा करके ऊंची जाति के लोग सफाई का काम करने से 2-3 साल तक बचे रहते थे। 

बाद में उच्च डिग्री के आधार पर विभागीय परीक्षा देकर या प्रमोशन पाकर सफाई के काम से मुक्ति पा लेते थे। इस तरह से उनकी मोटी सैलरी का इंतजाम हो जाता था। इस खेल में वास्तविक सफाईकर्मियों को शिकार बनना पड़ा और क्षमता से दोगुना या तीन गुना काम करने के बावजूद उन्हें कामचोर घोषित किया गया।

लेकिन अब स्थिति बदल गई है। नगर निगम से लेकर अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों तक में सफाई कर्मी ठेके पर काम करते हैं। मुंबई के नगर निकाय में करीब 30,000 कर्मचारी शहर को साफ रखने के लिए लगाए गए हैं। इसमें सबसे ज्यादा ख़तरनाक काम जाम हो गई नाली को साफ करने वाले सफाई कर्मियों को करना होता है। वे ऑक्सीजन सिलिंडर या बगैर सुरक्षा व्यवस्था के नाले में घुसते हैं और हाथ से नालियों को साफ करते हैं। इस दौरान तमाम कर्मचारी जहरीली गैसों खासकर हाइड्रोजन सल्फाइड के असर से जान गंवा देते हैं। 

अहम यह है कि नाली में उतरकर काम करने वाले कर्मचारी ठेके पर काम करने वाले कैजुअल वर्कर होते हैं और उन्हें दिहाड़ी के आधार पर काम पर रखा जाता है। न उन्हें स्वास्थ्य बीमा मिलता है, न जीवन बीमा मिलता है और न मौत के बाद उनके परिजनों को कोई हर्जाना मिलता है। यही हाल दिल्ली-एनसीआर का है, जहां गहरे नाले में जहरीली गैस से मरने वाले सफाईकर्मी दिहाड़ी पर काम पर रखे जाते हैं।

केंद्र सरकार ने क्या किया

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1 फ़रवरी को केंद्र सरकार का बजट पेश किया। इसमें सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के लिए 2020-21 में 10,103 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं। वित्त वर्ष 2019-20 में 10,070 करोड़ रुपये आवंटित किए गये थे लेकिन मंत्रालय को दिये गये महज 8,885 करोड़ रुपये। सरकार ने वित्त वर्ष 2020-21 में 30,42,230 करोड़ रुपये खर्च करने का बजट रखा है, जिसमें से महज 10,103 करोड़ रुपये आवंटित करते हुए वित्त मंत्री ने जोरदार आवाज़ में घोषणा की, “हाथ से मल-मूत्र की सफाई करने के काम का उन्मूलन करने और उसके मशीनीकरण के विशेष प्रयास किए जाएंगे।”

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मौत का गम क्यों नहीं?

उच्चतम न्यायालय के आदेशों और सरकार की तमाम कवायदों के बावजूद गहरे नाले में घुसकर सफाई करने का काम जारी है। उससे होने वाली मौतें भी अनवरत जारी हैं। न तो सुरक्षा व्यवस्था हो पा रही है और न मशीनों से सफाई। अगर हम 1930 के दशक की चार्ली चैपलिन की फिल्में देखें तो नजर आता है कि उस दौर में गहरे नालों की मशीनों से सफाई शुरू हो चुकी थी। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है कि भारत में सफाई कर्मचारियों को यूं ही मरने के लिए छोड़ दिया जाता है?

पीयूडीआर की रिपोर्ट देखें तो उसमें बताया गया है कि जातीय कलंक सफाई के काम में भी घुसा हुआ है। “क्रूर, हिंसक और गहरा असमान जातीय ढांचा और असमानता के विचार इसके लिए जिम्मेदार हैं।’’ कुछ जाति विशेष के लोगों को इस काम में सदियों से लगाए रखा गया है। स्वतंत्रता के बाद इस पेशे का सरकारीकरण किया गया, जिससे कि सफाई के काम में लगे कर्मचारियों का जीवन स्तर सुधर सके और उन्हें भी न्यूनतम जरूरत के मुताबिक पैसा मिल सके। उच्च जातियों की चालबाजियों ने सफाई के काम को भी नहीं छोड़ा और निजीकरण के दौर में सफाई का काम पूरी तरह से ठेके पर चला गया। 

सरकारें भले ही घोषणा कर दें कि सफाई कर्मी कर्मयोगी हैं, उनकी मौत पर आर्थिक मदद की जाएगी लेकिन सफाई के काम में अब सरकारी कर्मचारी बचे ही नहीं हैं।

ऐसा नहीं है कि ठेके पर सफाई कर्मचारी रखे जाने और सफाई कर्मचारियों को कम पैसे दिए जाने से सरकार का सफाई के काम पर ख़र्च घटा है। सिक्योरिटी गार्ड से लेकर सफाई तक पर सरकारी ख़र्च बढ़ा ही है। जानकार बताते हैं कि इसकी वजह यह है कि किसी क्षेत्र विशेष, अस्पताल या मेडिकल कॉलेज का ठेका पाने के लिए ठेकेदारों को रिश्वत देनी पड़ती है। 

उच्च पदों पर बैठे लोग सफाई के पैसे में बंदरबांट करने के लिए अगर 100 कर्मचारियों की नियुक्ति दिखाते हैं तो वास्तव में उसके आधे ही काम पर लगाए जाते हैं और आधे कर्मचारी फर्जी होते हैं, जिनका वेतन ठेकेदार और ठेका देने वाले के बीच बंट जाता है। 

केंद्र सरकार में स्वास्थ्य सचिव रहे एक अधिकारी ने नाम न सार्वजनिक किए जाने की शर्त पर दिल्ली के सफ़दरजंग मेडिकल कॉलेज के सुरक्षा कर्मियों का आंकड़ा देकर बताया कि किस तरह से ठेका व्यवस्था लागू होने के बाद से मेडिकल कॉलेज की सुरक्षा का ख़र्च बढ़ गया है। जानकार बताते हैं कि जहां भी ठेका व्यवस्था लागू है, वहां सरकार का ख़र्च घटने के बजाय बढ़ गया है।

किसी को कोई चिंता नहीं?

सफाई कर्मचारियों की मौतों पर कोई सवाल उठाने वाला नहीं है। उनकी जिंदगी की चिंता किसी को नहीं है। भारत में यह सामान्य है और सदियों से यह माना जाता रहा है कि नीची जाति में पैदा होने वाले सफाई के लिए ही बने हैं और उनका दायित्व ही सफाई करना है। जिन जातियों के लोग सफाई के काम में लगे हैं, उनका केंद्र सरकार की कैबिनेट और प्रधानमंत्री कार्यालय में असर नहीं है। वर्ना अगर कैबिनेट सेक्रेटरी का दूर का रिश्तेदार भी नाले में जहरीली गैस से मरता तो सीवर की सफाई के लिए आधुनिक उपकरणों का आयात शुरू हो जाता या उन उपकरणों के मेक इन इंडिया पर बात शुरू हो जाती। 

न्यायालय के फ़ैसले, उनके रोजगार की सुरक्षा, उनके जीवन बीमा, ईपीएफ, पेंशन आदि की व्यवस्था भी तुरंत हो जाती। दुर्भाग्य यह है कि समाज को बजबजाते नालों और सड़क पर पाखाना बहने से बचाने वालों की जिंदगी इस जाति व्यवस्था ने नर्क बना रखी है और इसका दूर-दूर तक कोई समाधान नजर नहीं आता।

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प्रीति सिंह

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