महात्मा गाँधी का पार्थिव शरीर आम जनता के दर्शन के लिए विशेष वाहन पर रखा हुआ था। इनके शरीर के आसपास पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, देवदास गाँधी, सरदार बलदेव सिंह, आचार्य जेबी कृपलानी और राजेंद्र प्रसाद कुछ ऐसे अस्थिर से खड़े थे मानो संगमरमर की मूर्ति हों।
राजघाट में गाँधी का पार्थिव शरीर अंतिम संस्कार के लिए वाहन से उतारा गया। “गाँधी का सिर सरदार की गोद में था। पटेल लगातार रोए जा रहे थे और ऐसा लग रहा था कि सरदार अचानक बूढ़े हो गए थे।” (एंड ऑफ़ एन एपक - मनुबेन गाँधी, पेज 61)।
इसके पहले पटेल ने 30 जनवरी 1948 को गाँधी की हत्या के तत्काल बाद राष्ट्र को संबोधन में कहा, “आप जानते हैं कि हमारे ऊपर जो बोझ पड़ रहा है, वह इतना भारी है कि क़रीब-क़रीब हमारी कमर ही टूट जाएगी। उनका एक सहारा था और हिंदुस्तान को यह बहुत बड़ा सहारा था। हमको तो जीवन भर उन्हीं का सहारा था। आज वह चला गया।”
पटेल ने उम्मीद भी जताई कि देश के लिए गाँधी का यह सर्वोच्च बलिदान देश को सद्बुद्धि देगा और स्थिति में सुधार होगी। उन्होंने कहा,
“जो नौजवान पागल हो गया था, उसने व्यर्थ सोचा कि वह उनको मार सकता है। जो चीज उनके जीवन में पूरी न हुई, शायद ईश्वर की ऐसी मर्जी हो कि उनके द्वारा इस तरह से पूरी हो क्योंकि इस प्रकार की मृत्यु से हिंदुस्तान के नौजवानों का कांशस है, जो हृदय है, वह जाग्रत होगा, मैं ऐसी आशा करता हूँ।” (भारत की एकता का निर्माण, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार वर्ष 2015, पेज 155-56)
हालाँकि पटेल को इस बात की चिंता लगातार बनी हुई थी कि गाँधी की हत्या के आक्रोश में देश भर में दंगे भड़क सकते हैं। उनकी आशंका नाहक नहीं थी। लोगों में आक्रोश था और नाथूराम गोडसे के गृह राज्य में नागपुर के आसपास बड़े पैमाने पर चितपावनों के साथ मारपीट शुरू हो चुकी थी, जिस कम्युनिटी का गोडसे था। 2 फ़रवरी 1948 को पटेल ने गाँधी जी की शोकसभा में कहा, “जब मैं इधर आ रहा था तो एक भाई ने मेरे पास चिट्ठी भेजी कि कम्युनिस्टों का एक जुलूस निकला, उस जुलूस में वे कहते थे कि हम बदला लेंगे। यदि फिर भी हम इस ढंग से काम करेंगे तो माना जाएगा कि गाँधी जी की बाद जिंदगी भर तो हमने सुनी नहीं, मानी नहीं, मरने के बाद भी उसे नहीं माना।” उन्होंने कहा कि बदला लेने का काम हमारा नहीं है, हमें भटके लोगों को समझाना है और मारपीट करने के बजाय अगर आपके पास कोई सूचना हो तो उसे हुकूमत को बता देना है, गवर्नमेंट की तरफ़ से पूरी तरह खोजबीन और कार्रवाई की जाएगी।
इस बीच नेहरू खेमे के माने जाने वाले समाजवादियों ने गाँधी की हत्या में पटेल के महकमे की लापरवाही को लेकर उनके इस्तीफ़े की माँग भी शुरू कर दी थी, जिनमें जय प्रकाश नारायण और मृदुला प्रमुख थे। गाँधी जी की हत्या के 10 दिन पहले भी गाँधी के ऊपर बम फेंका गया था, लेकिन उसमें किसी को नुक़सान नहीं हुआ था। जब घनश्यामदास बिड़ला ने पटेल से सुरक्षा बढ़ाने की बात कही तो पटेल ने कहा था, “आप क्यों चिंतित हैं। यह आपका काम नहीं है। यह दायित्व मेरा है। यह मुझ पर छोड़ दें, मैं बिड़ला हाउस में घुसने वाले हर व्यक्ति की तलाशी लूँगा। लेकिन बापू मुझे ऐसा नहीं करने देंगे।” 23 जनवरी 1948 से हर व्यक्ति की तलाशी शुरू हो गई थी। उसके बावजूद पटेल पर आरोप लगे। पटेल ने 4 फ़रवरी 1948 को कांग्रेस की विधायी परिषद को संबोधित करते हुए कहा, “समाजवादी कहते हैं कि मैं गाँधी को सुरक्षा देने में नाकाम रहा। मैं आरोपों को खारिज करता हूँ। बम की घटना के बाद क़रीब हर कमरे में पुलिस इंस्पेक्टर तैनात थे। मैं जानता था कि महात्मा गाँधी यह पसंद नहीं करते थे कि किसी भी परिस्थिति में मैं प्रार्थना सभा में आने वाले हर व्यक्ति की जामा तलाशी कराऊँ। हत्यारा महात्मा के सामने झुका, उसने पिस्तौल निकाली और जब तक कोई कुछ कर पाता, उसने गोली दाग दी। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण आपदा की तरह हुआ है।”
गाँधी की मृत्यु के एक हफ़्ते के भीतर जवाहरलाल नेहरू और पटेल के बीच कई महीने से चल रही तनातनी ख़त्म हो गई, लेकिन पटेल के सीने पर गाँधी की हत्या का बोझ बना रहा। गाँधी के जाने के महज एक महीने बाद 5 मार्च 1948 को पटेल के सीने में दर्द उभरा।
वहाँ मौजूद मणिबेन, शंकर और डॉ. सुशीला नैयर ने देखा कि पटेल ने अपना दाहिना हाथ सीने पर रखा, खामोश हो गए। सुशीला ने जब पूछा कि क्या हुआ, तो पटेल ने कहा कि उन्हें सीने में तेज़ दर्द हो रहा है। पटेल को हार्ट अटैक आया था। सुशीला ने शंकर से कहा कि वह तत्काल डॉ. ढांडा को बुलाएँ और नेहरू को सूचित करें। डॉ. ढांडा 15 मिनट के भीतर पटेल के पास पहुँच गए और उन्हें मार्फीन का इंजेक्शन दिया। थोड़ी ही देर में नेहरू, इंदिरा और फिरोज भी पहुँच गए। अटैक के बाद जब पहली बार पटेल ने आँखें खोलीं तो उन्होंने कहा, “मुझे बापू के साथ जाना चाहिए था। वह अकेले चले गए।” यह कहते समय पटेल के चेहरे पर आँसू फैल गया। दूसरे दिन उन्होंने सुशीला, संभवतः जिनकी उपस्थिति की वजह से उनकी जान बचाई जा सकती थी, से कहा,
“अगर वह (बापू) जानेंगे तो आपको डाँटेंगे। मैं उनके साथ जाने के लिए रास्ते में था और आपने मुझे रोक लिया। हर कोई कहता है... यहाँ तक कि ब्रज कृष्ण भी कहते हैं कि मैंने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया।” उसके पहले पटेल ने घनश्यामदास और डॉक्टरों से कहा था, “यह अटैक सिर्फ़ काम के बोझ की वजह से नहीं आया। बापू की मौत का बोझ भारी है।” (पटेल, ए लाइफ, लेखकः राजमोहन गाँधी, पेज 472)
इसके बाद कुछ महीने तक पटेल स्वास्थ्य लाभ लेते रहे और उनके विभाग के अधिकारी पल पल की गतिविधियों की सूचना देते रहते थे और उनसे निर्देश लेते रहते थे। नेहरू भी लगातार देश-विदेश की गतिविधियों से उन्हें अवगत कराते रहे। और पटेल स्वस्थ होकर फिर से अपने काम में लग गए। हालाँकि जब भी गाँधी की बात आती थी, उनका दर्द छलक पड़ता था। पटेल ने दिल्ली के राजघाट पर 12 फ़रवरी 1949 को दिए अपने भाषण में कहा,
“जब जब ऐसा मौक़ा आता है तब दिल भर जाता है और जबान नहीं चलती है। हम ऐसा ख़याल करते हैं कि कैसे हम नालायक लोग हैं कि उनको इस तरह से मरना पड़ा, जिससे हमारा नाम बदनाम हुआ। उनके लिए तो बहुत अच्छा हुआ क्योंकि वह अपने सिद्धांत पर अडिग रहे। मुल्क और दुनिया के कल्याण के लिए मरना उनका बड़ा सिद्धाँत था। चुन चुनकर जो अच्छा काम वह पसंद करते थे, उसके लिए वे मरने की तैयारी करते थे।” (भारत की एकता का निर्माण, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार वर्ष 2015, पेज 160)
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