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मोदी सरकार के लिए ख़तरे की घंटी है छात्र आंदोलन

जेएनयू में नक़ाबपोश गुंडों के छात्रों पर हमला करने के ख़िलाफ़ कई विश्वविद्यालयों में छात्रों ने आवाज़ बुलंद की है। इसके अलावा राजनीतिक दल, आम लोग भी इससे आक्रोशित हैं। भले ही संघ परिवार आवाज़ उठाने वालों को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘अर्बन नक्सल’ कहे लेकिन कहीं न कहीं इसके पीछे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा हर साल दो करोड़ रोज़गार देने के वायदे की असफलता के साथ ही देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और मोदी की राजनीति से निराशा भी एक कारण दिखाई देगा। 
अरविंद मोहन

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए ‘नक़ाबपोश हमले’ के बाद जिस तरह देश के लगभग सारे विश्वविद्यालय उबल पड़े हैं, उससे साफ़ होता है कि बात सिर्फ वही नहीं है जो विश्वविद्यालय प्रशासन और नरेन्द्र मोदी सरकार चाहती है। तत्काल देखेंगे तो नागरिकता क़ानून में बदलाव और नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) की घोषणा के बाद जामिया और कई और विश्वविद्यालयों के आंदोलन और पुलिस दमन का मामला दिखाई देगा। पर गौर करने वाली बात यह है कि यह घटना हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या और जेएनयू में ही एक फर्जी वीडियो के जरिए ‘देश तोड़ने का षड्यंत्र’ दिखाए जाने और तब के छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार पर हमले से जुड़ती लगेगी। 

आज तक न रोहित वेमुला कांड में कुछ हुआ है, न ही कन्हैया के ख़िलाफ़ मामला दर्ज हो पाया है, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत सारे संघ परिवार ने ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘अर्बन नक्सल’ नाम के जुमलों को ख़ूब प्रचलित कर दिया है। अगर छात्र आंदोलनों का जरा भी आगे-पीछे जानने की इच्छा हो तो देश की बेरोज़गारी और नरेन्द्र मोदी द्वारा हर साल दो करोड़ रोज़गार देने के वायदे की असफलता के साथ ही देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और मोदी की राजनीति से निराशा भी कारण दिखाई देगा। बात किसानों और मुसलमानों ही नहीं, आम जनों की नाराज़गी से जुड़ती भी लगेगी। 

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पर छात्र आंदोलनों के इतिहास में, जो ‘अंग्रेजी हटाओ’ से लेकर ‘इन्दिरा हटाओ’ तक चला है, शायद ही कभी बात इतने अस्पष्ट एजेंडे और इतने ढुलमुल कार्यक्रमों की रही है और अगर सीधे मोदी सरकार से ही नाराज़गी है तो फिर उसे अभी छह महीने पहले मिले भारी जनादेश का क्या मतलब है। क्या मोदी इतने बड़े कलाकार हैं जो सवा अरब लोगों को छल लेंगे। 

यह सही है कि हर बार का छात्र आंदोलन छोटे मुद्दों से ही शुरू होता है लेकिन किसी भी ट्रेड यूनियन आंदोलन के विपरीत वह कभी भी सिर्फ अपने हित से जुड़ी मांगों तक सीमित नहीं रहता। उसमें देश-दुनिया की बड़ी बातें आ ही जाती हैं। लेकिन इसका कारण छात्र संगठनों का राजनैतिक जुड़ाव और प्रशिक्षण होता है। इस बार के आंदोलन में आए ज्यादातर छात्र राजनीति से दूर रहने वाले हैं। आईआईएम और आईआईटी के छात्र भी पहली बार निकले हैं। 

जेएनयू और दिल्ली विवि वगैरह में मुट्ठी भर छात्र ज़रूर राजनैतिक चेतना वाले हैं पर उनमें से अधिकांश वामपंथी जमातों के हैं जिनके राजनैतिक संगठन आज किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में हैं। और जो दल इन आंदोलनों से राजनैतिक लाभ लेने के लिए तत्पर लगते हैं उनके लिए छात्रों के बीच राजनीति करना, उनको प्रशिक्षित करना कोई प्राथमिकता की चीज रहे ही नहीं हैं। इसलिए आंदोलन व्यापक लगता है, सघन लगता है पर इसकी दिशा समझ पाना मुश्किल है। 

प्रशिक्षण के अभाव का सबसे बड़ा लक्षण सिर्फ़ मुद्दों या फ़ोकस की अस्पष्टता ही नहीं है। हिंसा का सहारा लेना भी वही बताता है जिससे सरकार को कहीं इसे हिन्दू-मुसलमान तो कहीं देशद्रोही बताने में सुविधा हो जाती है। जब दस-बीस लोगों द्वारा की गई हिंसा या दो चार झंडा-बैनर ही आंदोलन को भटकाने में सक्षम होंगे और आंदोलन बुलाने वालों का इन चीजों पर वश नहीं होगा तो निश्चित रूप से यह चिंताजनक स्थिति होगी। 

हिंसा, अराजकता पर पाना होगा क़ाबू

सरकार वैसे भी इसके लिए तत्पर रहती है और इस सरकार के लिए तो शासन-पुलिस के साथ सारा संघ परिवार और भक्त मंडली कुछ भी करने को तैयार है। इसलिए जामिया में बस फूंकना हो, दरियागंज में कार या फिर जेएनयू में घुसकर सिर फोड़ना, इसके लिए बहुत थोड़े से लोगों की ज़रूरत रह जाती है। बच्चे इन सवालों पर तत्पर न हों, ऐसा नहीं है और जामिया का आंदोलन तो अब ज्यादा ही गाँधीवादी और मानवतावादी हो गया है। लेकिन हिंसा और अराजक नारेबाज़ी ने इसका नुक़सान किया है। सम्भव है कि आंदोलनकारी जल्दी इन पर काबू पा लें लेकिन ज्यादा अन्देशा यही है कि आंदोलन को बदनाम करने वाले और बिखराने वालों का षड्यंत्र कारगर हो सकता है। 

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आंदोलन में न हो बिखराव

इस आंदोलन की मांगों की अनिश्चितता और बिखराव भी चिंता पैदा करता है जो फ़ीस की वृद्धि से लेकर एनआरसी-सीएए के विरोध, बीजेपी सरकार की मुसलमान और दलित-आदिवासी विरोधी राजनीति के ख़िलाफ़ मोर्चेबन्दी तक जाती है। सामान्य ढंग से सारे मोदी विरोधी भी इसके समर्थक बन जाते हैं और बीजेपी विरोधी राजनीति करने वाले तो ताक में बैठे ही हैं। पर शिक्षा (से लेकर स्वास्थ्य और अन्य जरूरी सेवाओं) के निजीकरण का विरोध अगर दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यकों के असंतोष से जुड़ता है तो इसमें बड़ी राजनीति की सम्भावनाएं भी छुपी हुई हैं। लेकिन सिर्फ़ ख़्याली पुलाव पकाने से बात नहीं बनेगी। और जो लोग भी रोहित वेमुला प्रसंग से लेकर कन्हैया कुमार प्रकरण के सहारे दलित-अल्पसंख्यक और वामपंथी राजनीति के उभरने का सपना देख रहे हैं, उनका अब तक का काम ख़्याली पुलाव ही ज्यादा लगता है। 

बीजेपी शासन का मतलब नरेन्द्र मोदी-अमित शाह का राज भर नहीं है। यह सरकार बहुत साफ़ आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक एजेंडे पर काम कर रही है जिसे राष्ट्रवाद, पाकिस्तान विरोध और अघोषित मुसलमान विरोध के नाम पर आगे बढ़ाया जा रहा है और अभी का मार्क्सवाद या अखिल इस्लामवाद भूमंडलीकरण की इस नीति के आगे नतमस्तक ही है। 

इस लेख का आशय कहीं से भी आंदोलन कर रहे, उसे सही मुद्दों पर लाने की कोशिश कर रहे लाखों लड़के-लड़कियों को हतोत्साहित करना नहीं है पर उन्हें यह समझ ज़रूर होनी चाहिए कि वे क्या करने निकले हैं और वह काम कितना मुश्किल है। वे सिर्फ किताबों में डूबे रहें, नौकरी-करियर की चिंता करें, यह वकालत भी नहीं की जा सकती और न उनके उत्साह को रोकने की ज़रूरत है, पर उनको स्थिति की समझ होनी चाहिए। दूसरी बात जो सरकार में हैं, जिनके ख़िलाफ़ इतने बड़े पैमाने पर दलित, आदिवासी, किसान और नौजवानों का गुस्सा दिख रहा है, उनके लिए तो यह ख़तरे की घंटी है ही। 

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