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एनआरसी, एनपीआर, सीएबी, आर्थिक मंदी, साल की ऐसी बुरी शुरुआत कभी नहीं

साल 2020 की शुरुआत आर्थिक बदहाली के अलावा एनआरसी, एनपीआर, सीएबी-सीएए में उलझा हुआ है। नए साल की इतनी बुरी शुरुआत कभी नहीं हुई। सरकार एनआरसी के खेल में व्यस्त है। शायद इसी पर बन रहा आन्दोलन उसे सही दिशा में काम करने को मजबूर करे। पर अभी तक सरकार की लाइन बदलने का कोई लक्षण नहीं दिखता। इससे नए साल के लिए कोई उम्मीद नहीं जगती।
अरविंद मोहन
एनआरसी, एनपीआर, सीएबी-सीएए जैसे प्रथमाक्षरों में उलझा देश अपना डीपीआर अर्थात डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट तलाशते हुए नए साल में प्रवेश कर रहा है। यह डीपीआर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के मन में तो था और शायद है भी, पर वे उसे प्रकट नहीं करना चाहते और कर भी नहीं सकते।
पर मुल्क उनकी ‘मंशा’ भांपकर जिस तरह की प्रतिक्रिया दे रहा है वह पहले से ख़राब हालात को और ख़राब कर रहे हैं। नए साल की ऐसी शुरुआत शायद ही कभी हुई हो।
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आर्थिक कारोबार पस्त है, बेरोज़गारी से लेकर हर समस्या शीर्ष पर है, स्कूल-कॉलेज ठप हैं, सरकार विश्वविद्यालयों और छात्रों से डरी है। छात्र भविष्य को लेकर आशंकित हैं, अल्पसंख्यकों का डर नए नागरिकता क़ानून के बाद भड़क उठा है।
कुछ भी न करने वाला विपक्ष नौजवानों और नागरिकों के बढ़ते आक्रोश को ललचाई आँखों से देख रहा है, सात महीने पहले भारी जनादेश पाने वाली पार्टी उसके बाद हुए हर चुनाव में लहूलुहान है।

अर्थव्यवस्था की चिंता किसे?

ऐसी सरकार को न अर्थव्यवस्था का होश है न कानून-व्यवस्था का। वह बढ़ते हंगामे को हिन्दू-मुसलमान मुद्दा में बदलकर राजनैतिक रोटियाँ सेंकना चाहती है। पर चौतरफा अफरातफरी, निराशा और बदहाली ही शायद नई राह निकाले।

जब तीन तलाक़, राम मन्दिर और अनुच्छेद 370 जैसे मसलों का ‘हल’ निकालने के बावजूद मोदी सरकार को मुल्क नए चुनाव के लिए पकता नहीं लगा तो उन्होंने नागरिकता संशोधन क़ानून और मुल्क भर में नागरिकता रजिस्टर बनाने के साथ ध्रुवीकरण कराने के अपने डीपीआर पर काम शुरू कर दिया।

बुनियादी उसूलों को बदलने की कोशिश

बिना ख़ास चर्चा के अचानक नागरिकता क़ानून में संशोधन कराया गया और इसके पक्ष में वोट देने वालों को भी ठीक-ठीक मालूम न हुआ कि उन्होंने किस तरह देश और संविधान के बुनियादी उसूलों में बदलाव कर दिया।
उधर इस सफलता से उत्साहित मोदी और शाह की जोड़ी ने संसद और झारखंड की चुनावी सभाओं में एनआरसी लाने की घोषणा कर दी जबकि असम में तैयार कराए नागरिकता रजिस्टर को वहीं की सरकार फ़ेल बता कर नई गणना की माँग शुरू कर दी थी। बात यहीं नहीं रुकी। राज्यों को अवैध घोषित होने वाले लोगों के लिए डिटेंशन शिविर बनाने के निर्देश दिए जाने शुरू हो गए।
अचानक मुसलमानों और नौजवानों का गुस्सा फूटने लगा और फिर तो हर कोई सरकार के इस कदम के ख़िलाफ़ निकल पड़ा। एनडीए के सहयोगी दल और उनकी राज्य सरकारें भी विरोध में आईं और एनआरसी लागू न करने की घोषणा शुरू हुई।

सहयोगियों का विरोध

शिवसेना, अकाली दल, जदयू, बीजद, वाईएसआर कांग्रेस समेत अनेक दलों ने अपना स्टैंड बदला। झारखंड के चुनावी नतीजों ने भी दबाव बढ़ाया। सरकार शुरू में मामले को हिन्दू-मुसलमान बनाने में लगी रही, पर उसको मजबूरन अपना स्टैंड बदलना पड़ा। प्रधानमंत्री ने एनआरसी और डिटेंशन कैम्प सम्बन्धी बातों का सीधे खंडन किया तो गृह मंत्री पॉपुलेशन रजिस्टर की बात ले आए। 
दूसरी ओर बीजेपी ने नागरिकता क़ानून के पक्ष में सड़क पर उतरने का फ़ैसला किया तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग से सरकार नागरिकता के सवाल पर चल रहे आन्दोलन के ख़िलाफ़ अभियान चलाने लगी है। पर साफ़ लग रहा है कि भारी जनादेश, जिसके लिए अब बालाकोट-पुलवामा ही एकमात्र कारण लग रहे हैं, के नशे में सरकार ने एक और चुनाव जीतने का खेल कुछ ज़्यादा ही जल्दी और तेज़ी से शुरू कर दिया।
उसकी रणनीति का सफल होना भी मुल्क को भारी पड़ेगा और असफल होना भी। और उसके उत्साह और पिटाई का नाता सिर्फ साम्प्रदायिक शांति-असुरक्षा या वोट की राजनीति भर से नहीं है। यह पूरे प्रशासन के पंगु होने या उत्साह से काम करने और चुनावी चिंता से अलग बातों पर ध्यान देने से जुड़ा फ़ैसला है।

पस्त अर्थव्यवस्था

और कहना न होगा कि इस चक्कर में सबसे बुरा हाल पहले से ही पस्त अर्थव्यवस्था का हो रहा है। अब तो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष खुल कर सलाह देने लगा है कि भारत आर्थिक मन्दी से निपटने के लिए क्या कुछ करे जबकि सरकार मन्दी को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
वह इसके लिए कितने आँकड़े छुपा रही है, बजट को किस तरह बेमानी बना रही है, राजकोषीय घाटे को सामने नहीं आने दे रही है और कर वसूली समेत सारी गिरावटों की किस तरह उल्टी व्याख्या कर रही है, यह गिनवाने की ज़रूरत नहीं है।
हाल-फिलहाल सरकार का एक भी ऐसा बड़ा आर्थिक फ़ैसला नहीं हुआ है, जिससे हालात सुधरें या जिससे उम्मीद बँधे। बल्कि यह साफ़ लग रहा है कि मोदी-शाह के अजेंडे में आर्थिक बदहाली कहीं है ही नहीं। वे एकदम दूसरी दिशा में देखते हुए काम कर रहे हैं।

बदहाल शिक्षा व्यवस्था

ऐसी या शायद इससे भी बुरी हालत शिक्षा (और स्वास्थ्य) की है। पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी भर से ‘बैर’ लगता था। आज तो सारे ही विश्वविद्यालय आतंकित हैं और सरकार बच्चे-बच्चियों से आतंकित है। एड-हॉक शिक्षकों से काम लेना और लैब-पुस्तकालयों की सुविधा में कटौती झेलना उनकी नियति बन गया है।
सारे कुलपति ‘छंटे’ हुए लोग बने हैं जिनका पढ़ने-पढ़ाने से कम ही वास्ता है। और इससे भी ज्यादा बुरा हाल कुलाधिपतियों अर्थात राज्यपालों का है जो आज हर मामले में मोदी-शाह के लठैत जैसा काम कर रहे हैं। उनकी बाजाप्ता नालिश होने लगी है तो कहीं छात्र ही उनको विश्वविद्यालय में नहीं घुसने दे रहे हैं।
यह आम धारणा बन गई है कि शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में या तो सब कुछ निजी क्षेत्र के हवाले हो रहा है या लठैतों के।

अभी तक बाज़ार में ग्राहक कम होने की, ख़र्च में कमी की, सामान न उठने की शिकायत थी। पर क़ीमतों के कम रहने से एक राहत महसूस की जा रही थी। अब तो क़ीमतें आसमान पर पहुँचने लगी हैं और तिमाही में दस-दस फ़ीसदी तक की वृद्धि रिकॉर्ड की जाने लगी है।
बरसात के बाद अर्थात अगस्त से शुरू हुई लूट (दालों, प्याज, टमाटर, आलू वगैरह की) छह महीने तक बेलगाम जारी है और सरकार एनआरसी के खेल में व्यस्त है। शायद इसी पर बन रहा आन्दोलन उसे सही दिशा में काम करने को मजबूर करे। पर अभी तक सरकार की लाइन बदलने का कोई लक्षण नहीं दिखता। इससे नए साल के लिए कोई उम्मीद नहीं जगती।

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