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आख़िर देश की नौकरशाही को हुआ क्या है? 

ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने सही कहा था अपने लिहाज़ से। ब्यूरोक्रेसी उनके शासन के लिए हर स्याह-सफ़ेद करने को तैयार रहती थी। वह भारतीय पर गोली चलाना हो या कृषि को खोखला करने की राजकीय साज़िश हो, या फिर हिन्दू-मुसलमान को लड़ाना हो या आवाज़ उठाने वालों को देशद्रोह के मुक़दमों में फँसाना हो।
एन.के. सिंह

सीधी बात समझने की हमारी आदत नहीं है। क़िस्से के ज़रिये ग़लत बात भी दिल के भीतर उतर जाती है और सदियों पड़ी रहती है। वैदिक समय की श्रुति परम्परा से ब्रिटिश काल की ग़ुलाम मानसिकता तक और उसके बाद आज़ाद भारत में हमने कभी भी तार्किक-वैज्ञानिक सोच से सत्य को नहीं देखा। वैदिक काल में देवी-देवताओं के तथाकथित उड़नखटोले (वायुयान) से लेकर शल्य चिकित्सा के ज़रिये मानव पर हाथी का सर आरोपित करना हमारे धार्मिक विश्वास का आधार बना।

आधुनिक भारत के शिल्पी नेहरु के कपड़े पेरिस से धुल कर आना या उनका कॉलेज में कई गुना जुर्माना दे कर एक ‘किस’ की जगह कई ‘किस’ लेना, लॉर्ड मैकाले का सन 1835 में ब्रिटिश संसद में भारतीयों को अंग्रेज़ी सिखाकर मानसिक ग़ुलामी वाले ‘भूरे-क्लर्कों’ की फ़ौज तैयार करना ताकि अंग्रेज़ी हुकूमत अनवरत चलती रहे और लौह-पुरुष  सरदार पटेल का केन्द्रीय सेवा यानी अफसरशाही को ‘स्टील-फ्रेम’ बताना, कुछ ऐसे क़िस्से हैं जो कभी सच थे नहीं, लेकिन जो सदियों से प्रबुद्ध लोक-विमर्श को ग़लत खाद-पानी देते रहे हैं।

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मैकाले के बारे में इस क़िस्से को तो इतना सच माना गया कि लालकृष्ण आडवाणी जैसा विचारवान व्यक्ति भी अपनी किताब ‘माई कंट्री, माई लाइफ’ के पेज संख्या 102 पर पुरजोर तरीक़े से लिखता है बगैर यह दरयाफ्त करते हुए कि उस समय मैकाले ब्रिटेन की संसद में नहीं, भारत में थे और ये बातें उसने उस वर्ष कलकत्ता की 5 फ़रवरी की शिक्षा समिति की मीटिंग में अपने मशहूर भाषण में कभी नहीं कही थीं, बल्कि जो बातें कही थीं, उनका भाव और सार बिलकुल अलग था। 

उसी तरह पटेल के बारे में हर छोटे-बड़े व्यक्ति ने कहा कि उन्होंने देश के गृह मंत्री के रूप में 21 अप्रैल, 1947 को भारतीय प्रशासनिक सेवा के पहले बैच को दिल्ली के मेटकाफ़ हाउस में संबोधित करते हुए प्रशासनिक सेवा को स्टील-फ्रेम कहा था यानी एक ऐसा ढांचा जो उस फौलादी ताक़त का है और न तो टूटता है न हीं लचकता है। हकीकत यह है कि पटेल ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा था बल्कि यह बात ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री लायड जॉर्ज ने 1922 में ब्रिटिश संसद में कुछ इस तरह कही थी- 

‘वह फौलादी ढांचा जिस पर भारत में हमारे प्रशासन और हमारी हुकूमत की इमारत टिकी हुई है, अगर हटा दिया जाये तो पूरी इमारत ढह जायेगी- यही एक संस्था है जिसे हम पंगु नहीं होने देंगे, यही एक संस्था है जिसके विशेषाधिकार हम कम नहीं करेंगे और यही वह संस्था है जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को खड़ा किया है’।

संविधान के अनुच्छेद 310-312 के प्रारूप, जो आईएएस/आईपीएस की सेवा शर्तों को मज़बूत बनाता है और जिस पर तमाम सदस्यों ने ऐतराज़ जताया, पर बोलते हुए पटेल ने ब्यूरोक्रेसी के पूर्व (आईसीएस) व नए तंत्र (आईएएस-आईपीएस) की भूरि-भूरि प्रशंसा की और प्रारूप पारित हुआ। लेकिन पूरे भाषण में कहीं भी स्टील फ्रेम वाली बात नहीं की। 

दरअसल, पटेल को जब लौह-पुरुष कहा जाने लगा तो अधिकारियों के प्रति उनकी प्रबल तरफ़दारी को कई दशक पहले ब्रिटिश पीएम द्वारा प्रयुक्त फ्रेज ‘स्टील फ्रेम’ के साथ घालमेल करते हुए इस जन-विमर्श में पटेल द्वारा वर्तमान अफसरशाही को स्टील फ्रेम कहना मान किया गया।

राजनीतिक आकाओं के लिए ये फौलाद है

उत्तर प्रदेश आबादी के लिहाज़ा से देश का सबसे बड़ा राज्य है। आज़ादी की लड़ाई में इसका योगदान अतुलनीय रहा है। लेकिन इस राज्य के हाई कोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत पिछले दो सालों में निरुद्ध 41 लोगों में (जिनमें 90 फ़ीसदी अल्पसंख्यक थे) 30 की गिरफ़्तारी ग़लत क़रार दी। इस धारा में निरुद्धी के आदेश ज़िले का कलेक्टर/ज़िलाधिकारी जारी करता है। इन आदेशों के ख़िलाफ़ अदालत की टिप्पणियों की कुछ बानगी देखें: अधिकांश मामलों में ज़िलाधिकारियों ने मशीनी रूप से बगैर अपना दिमाग लगाये पुलिस की रिपोर्ट के आधार पर इस क़ानून का इस्तेमाल किया; इन निरुद्ध लोगों को क़ानून में दी गयी बचाव की प्रक्रिया को गंभीर रूप से बाधित किया गया; और संविधान द्वारा दी गयी व्यक्तिगत आज़ादी को बगैर सोचे –समझे ख़त्म नहीं किया जा सकता।

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उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। यहाँ के अलीगढ़ ज़िले में कुछ माह पहले ही एक दलित बालिका की हत्या के बाद ज़िले के अफ़सरों ने शव को जबरिया जला दिया ताकि सत्ता शिखर पर बैठे लोगों की इमेज पर आँच न आये। जिन अल्पसंख्यकों को एनएसए में निरुद्ध किया गया उनमें अनेक के ख़िलाफ़ हिन्दू संगठनों ने शिकायत की और वह भी गौकशी जैसे संदेहों की।

दिल्ली दंगों के दौरान एक शीर्ष आईपीएस अफ़सर ने जाँच कर रहे जूनियर अफ़सरों को परिपत्र में लिखा: मामले में हिन्दुओं की गिरफ्तारी को लेकर कुछ हिन्दू संगठनों में आक्रोश है इसलिए जांच करते वक़्त मामले की नजाकत समझें।

दिल्ली पुलिस मोदी-अमित शाह सरकार के अधीन है।

 

विचार से ख़ास

उत्तर प्रदेश के एक ज़िले के अफ़सर शिव-भक्त ‘कांवरियों’ पर हेलीकॉप्टर से फूल बरसाते हैं। इस होड़ में एक ज़िले का एसपी तो इतना आगे बढ़ गया कि उसने एक काँवरिये का पैर धोया और इसका वीडियो मीडिया को देने के साथ ही मुख्यमंत्री कार्यालय भेज दिया ताकि राजनीतिक आका इसकी फौलादी ताक़त का अहसास कर आगे भी ज़िले की पोस्टिंग देते रहें।

यह क़िस्सा किसी एक पार्टी की सरकार का नहीं है। राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए जमीर तो छोड़िये, कानून के अनुपालन की शपथ लेने वाले ये अफ़सर गुलाम बनने की होड़ में इस कदर लगे कि पश्चिम बंगाल में ममता के एक अधिकारी से पूछताछ करने आई सीबीआई की टीम को राज्य की पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया।

ये अफसर भ्रष्ट हैं, यह अब मुद्दा नहीं रहा बल्कि नया मुद्दा है इनका सत्ता बदलने के साथ ही अपना चरित्र बदलना और फिर अपराधियों को शर्मसार करते हुए वही कुछ करना जो पिछली सरकार में नयी सरकार के लोगों के या संप्रदाय –विशेष के ख़िलाफ़ किया था।

फौलाद की विशेषता तो समझें

ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने सही कहा था अपने लिहाज़ से। ब्यूरोक्रेसी उनके शासन के लिए हर स्याह-सफ़ेद करने को तैयार रहती थी। वह भारतीय पर गोली चलाना हो या कृषि को खोखला करने की राजकीय साज़िश हो, या फिर हिन्दू-मुसलमान को लड़ाना हो या आवाज़ उठाने वालों को देशद्रोह के मुक़दमों में फँसाना हो। ए ओ ह्यूम को छोड़ कर शायद ही कोई अँगरेज़ अफ़सर हो जो तन के खड़ा हुआ हो अपनी ही सरकार के कुकृत्यों के ख़िलाफ़। एक फौलाद की मानिंद ये अफ़सर राजनीतिक मालिकों की सेवा करते थे, अपना जमीर बेच कर। शायद ब्यूरोक्रेसी में आने के बाद जमीर बचती ही नहीं।

ऐन चुनाव के दौरान विपक्षियों पर प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग या सीबीआई के छापे महज यही तस्दीक करते हैं कि ये फौलाद है सत्ता के आकाओं के लिए—वे चाहे कोई भी हों। 

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अकबर-बीरबल के क़िस्सों में से एक कुछ इस सूरते-हाल का बयान करता है। बीरबल बादशाह सलामत के साथ खाना खा रहे थे, थाली में था बैगन का भरता। अचानक अकबर के कहा, ‘बीरबल, ये बैगन भी क्या लज़ीज सब्जी है’। उनका वाक्य ख़त्म भी नहीं हुआ था कि बीरबल बोले, ‘अरे हुजूर, क्या फरमाया है। मेरा तो दिन ही खराब जाता है अगर मैंने बैगन का भरता कम से कम एक बार नहीं खाया।’  

कुछ माह बीते फिर दस्तरखान पर दोनों बैठे। इस बार बैगन खा कर अकबर भड़के। ‘यार बीरबल, ये बैगन भी क्या बकवास सब्जी है’। बीरबल ने उसी रफ़्तार से स्वर में स्वर मिलाया ‘अरे हुज़ूर, मेरे तो थाली में बैगन पड़ जाए तो मैं उस दिन भूखा ही उठ जाता हूँ’। अकबर ने पलट कर कहा- ‘बीरबल अभी कुछ ही दिन पहले तुमने बैगन की तारीफ़ की थी’। बीरबल बगैर सहमे बोले, ‘हुजूर, मैं आपका ग़ुलाम हूँ, बैगन का थोड़े न’।

हमें इनके फौलादी होने पर शक नहीं करना चाहिए। जिस संविधान की शपथ राजनीतिक आकाओं ने खाई उसी की इन्होंने भी। लिहाज़ा गणित के ‘क’ बराबर ‘ख’ बराबर ‘ग’। लिहाज़ा ‘क’ बराबर ‘ग’ कर दिया है।

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