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रिया एक्ट्रेस न होती तो टीवी मुँह काला कर गधे पर घुमा देता?

एक पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को अपने अनुरूप ढालने और ढहाने के कुछ कारगर उपक्रम होते हैं। इसके बाद भी अगर वह बची रह जाए तब उसे अपमानित कर कमज़ोर कैसे किया जाए इसकी कोशिश की जाती है। हाल की कुछ घटनाओं और दो बिल्कुल भिन्न चरित्र, रिया चक्रवर्ती और कंगना रनौत के मामलों में यह साफ़ देखा जा सकता है कि पितृसत्तात्मक समाज में शोषण और प्रताड़ना के लिए स्त्री कितनी सहज लक्ष्य है। एक स्त्री आर्थिक रूप से स्वतंत्र, कितने ही प्रतिष्ठित पद पर क्यों न हो, वह लैंगिक विषमता से कम प्रभावित भले हो लेकिन पूरी तरह बची रह सके, ऐसा नहीं है।

मामला आत्महत्या के लिए उकसाने की आरोपी के रूप में एक स्त्री को देखने का हो या राजनीतिक बयानबाज़ी में किसी स्वतंत्र स्त्री के विचारों से हुई खलबली का हो, इन दोनों ही मामलों और इन जैसे अनगिनत मामलों में स्त्री का कौन-सा रूप खड़ा किया जाता है उसे समझने की ज़रूरत है। यह समझने की ज़रूरत है कि पितृसत्ता इसमें कैसे काम करती है, इस व्यवस्था में कब पुरुष और स्त्री दोनों ही शोषक और शोषित की भूमिका में आ जाते हैं, वैचारिक परिवेश की भिन्नता दो स्त्रियों को भी कैसे एक-दूसरे का विरोधी बना देती है।

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रिया का भयावह मीडिया ट्रायल और कंगना को अपने मुखर स्वभाव के चलते 'हरामखोर लड़की' के ताने, इन दोनों मामलों में जो समानता है वह है पितृसत्तात्मक समाज द्वारा दो अलग स्त्रियों का अलग तरह से प्रताड़ना और शोषण की झलकियाँ। इसके ज़रिये आसानी से समझा जा सकता है कि हर वर्ग, समुदाय और एक आधुनिक स्त्री की भी इस पितृसत्तात्मक समाज से लड़ने की चुनौतियाँ कितनी मुश्किल और जटिल हैं। रिया पर चलाया गया मीडिया ट्रायल, चरित्र हनन जैसे अमानवीय व्यवहार का सामना उन्हें करना पड़ा। वहीं कंगना रनौत को मुंबई को पीओके यानी पाक अधिकृत कश्मीर से तुलना किये जाने पर टीका टिप्पणी का सामना करना पड़ा। दो अलग विचारधारा का टकराव स्वाभाविक है लेकिन इसमें राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के समीकरण बनने लगे तब मुद्दा काफ़ी पेचीदा हो जाता है। 

बीते कुछ महीनों से रिया चक्रवर्ती ख़बरों में हैं क्योंकि वह सुशांत सिंह राजपूत मामले में एक अहम सूत्रधार हो सकती हैं। न्यूज़ चैनल, सोशल मीडिया पर रिया से जुड़ी हर छोटी-छोटी बात पर ख़बरें बुलेट की तरह चल रही हैं। ट्रोलिंग और मिम्स भी काफ़ी संख्या में दिखाई दे रहे हैं। जाँच एजेंसियाँ अपना काम कर रही हैं। रिया ड्रग्स मामले में जेल के अंदर हैं। रिया के मामले में ग़ौर करने वाली बात यह है कि इस समय भारतीय पत्रकारिता का एक वीभत्स रूप सामने आया। ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पर कोरा उन्माद ज़्यादा हावी रहा।

टेलीविजन पर सुबह शाम रिया नाम की जुगाली चल रही है। और उन ख़बरों में भी क्या दिखाया जा रहा है- रिया नाम की एक ऐसी स्त्री जो काला जादू करती है। उसे विषकन्या, डायन, चुड़ैल नामों से पुकारने से भी कोई गुरेज नहीं हैं।

डेली सोप में स्त्रियों का एक ख़ास तरह का गेटअप, नागिन, जादू, तंत्र-मंत्र के ज़रिये घरेलू स्त्रियों की समझ पर पर्दा तो पहले ही डाल दिया गया है। अब उन्हें असल ज़िंदगी में भी डायन, चुड़ैल कह कर पितृसत्तात्मक मानसिकता को मज़बूत किया जा रहा है। जिसका ज़ोर इस बात पर होता है कि स्त्री चाहे साधारण हो या बुरे चरित्र की, स्त्री बुरी ही होती है।

कंगना रनौत पर टिप्पणी

पितृसत्ता का एक दूसरा रूप अभिनेत्री कंगना रनौत पर हुई टिप्पणी से भी समझा जा सकता है। कंगना को एक संवैधानिक पद के वरिष्ठ नेता 'हरामखोर लड़की' कह कर सम्बोधित करते हैं। इससे पता चलता है कि पितृसत्तात्मक मूल्य कितने सभ्य और पढ़े-लिखे मस्तिष्क में भी दबी रहती है और किस तरह बाहर फूटती है। क्या इस तरह के शब्द का इस्तेमाल एक गरिमामय पद पर बैठे नेता के मुँह से निकलना सामान्य बात है, क्या यह स्त्री विरोधी नज़रिया नहीं है!

are rhea chakraborty media trial and kangana ranaut case example of patriarchy in india - Satya Hindi

कंगना के निडर और मुखर स्वभाव से हम पहले भी परिचित हुए हैं। अपनी फ़िल्मों की तरह असल ज़िंदगी में भी वह ऐसी नायिका हैं जिसने चुनौतियों का डट कर सामना किया है। प्रभावशाली अभिनय और स्वतंत्र विचार रखने की काबिलियत ही उन्हें अन्य अभिनेत्रियों से जुदा बनाते हैं। वह जो सोचती हैं वह कहती हैं, और बोल्ड होना बदतमीज होना नहीं हैं। उन्होंने अपने ऊपर लगे हर बेबुनियाद आरोपों और जुबानी हमले का बेहद शालीनता से जवाब दिया है। उसी तरह अभिनेत्री रिया चक्रवती जो आरोपी होने से ज़्यादा एक 'स्त्री' होने के चलते निशाने पर हैं।

रिया की प्रताड़ना

इतना ही नहीं, अचानक लोग रिया के लुक पर अपनी प्रतिक्रिया करने, उनको हैरेस करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ना चाहते। रिया 'सलवार कमीज में सती सावित्री का ढोंग रच रही है', 'पंद्रह करोड़ हड़पने के बाद भी दस रुपये वाला मास्क लगा रखी है', 'अफसोस तो चेहरे पर दिखता ही नहीं', और 'आँखों में एक बूंद भी आँसू नहीं है', 'बेचारी बनने का ढोंग कर रही है'। इस तरह के जजमेंटल बयान मात्र आरोपी होने के चलते हैं या उनका 'स्त्री' होने के कारण हैं। अवचेतन में छिपी यह स्त्री विरोधी मानसिकता क्या किसी 'पुरुष' आरोपी के लिए भी प्रकट की गई, चाहे वह कितना ही गंभीर अपराधी और बलात्कारी ही क्यों न हो। क्या इतना जजमेंटल होना सही है?

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सोशल मीडिया पर एक फ़ोटो दिखा जिसमें रिया के चेहरे का इस्तेमाल किया गया जिसमें उसे चक्की से अनाज पीसते हुए एक महिला के रूप में दिखाया गया है। कितनी सहजता से किसी स्त्री को उसके रोज़मर्रा से जुड़े श्रम, गृह कार्य के प्रति हीनता और तुच्छता का बोध करवाया जा सकता है। जहाँ चक्की चलाने का एक ही मतलब है अपने अपराध की सज़ा काटना। क्या इसका मतलब यह मान लिया जाए कि हर वह स्त्री जो चक्की का इस्तेमाल अपनी रसोई में करती है किसी न किसी रूप में अपराधी है और सज़ा ही काट रही है।

हमारा पूरा प्राचीन साहित्य इस बात से भरा हुआ है कि स्त्रियाँ नरक का द्वार हैं, कभी ‘अप्सरा’ कभी 'मोहिनी' के रूप में अनर्थ ही करती आई हैं, पुरुषों को पतन के मार्ग पर ले जाती हैं, इत्यादि। ऐसे ही समाज गढ़ा जाता है, लैंगिक भेद कायम किया जाता है।

भारतीय समाज में स्त्रियों का जीवन कितनी शर्तों और नियमों-परम्पराओं से बंधा होता है, उसकी कल्पना करना मुश्किल है।

पितृसत्तात्मक समाज का यह सबसे आसान उपक्रम है। किसी स्त्री का चरित्र हनन कर उसको अपमानित करना। सदियों से चला आ रहा यह हथियार गाँवों में ही नहीं, शहरों में पढ़े लिखे सभ्य समझे जाने वाले समाज में भी बहुत मज़बूत है। पहले शब्द बाण के ज़रिये स्त्री को कमज़ोर करो, उसे डायन बना कर उसका शिकार करो और फिर उसे मार दो। गली चौराहों से निकलते हुए स्त्रियों पर जिस तरह की भद्दी व बेहूदा फब्तियाँ कसी जाती हैं, टीका टिप्पणी की जाती है वैसा ही माहौल टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर बन चुका है।

कुछ चैनलों ने जिस तरह से रिया पर ट्रायल चलाया है, उन्हें 'चुड़ैल और काला जादू करने वाली' और न जाने क्या क्या कहकर जिस तरह उनका चरित्रहरण किया जा रहा है, क्या यह स्त्री विरोधी मानसिकता नहीं है?

यह कैसा समाज है जो किसी व्यक्ति को अपनी गरिमा को बनाये रखने और अपनी बात रखने का अधिकार का उसे कोई मौक़ा भी नहीं देना चाहता। रिया की वह तसवीर हम सबने देखी जिसमें एक लड़की पर सौ लोग ख़तरनाक गिद्धों की तरह एक साथ टूट पड़ते हैं, कैमरे के पीछे से उसे घेरने की कोशिश करते हैं, उसके शरीर से लगते हैं।

इतने संवेदनशील केस में एक स्त्री की छवि को इस तरह पेश करना ख़ुद असंवेदनशीलता का उदाहरण है। रिया एक्टर न होकर एक साधारण स्त्री होती तो उसका मुँह काला कर गधे पर बैठा के घुमाया जाता और अंत में उसे कुँए में कूदकर या फाँसी लगाकर आत्महत्या करने को मजबूर कर दिया जाता, जैसा इतिहास में होता आया है।

पाठकों के विचार से ख़ास

यहाँ कई बातों से आपत्ति हो सकती है एक 'सभ्य समाज' को। बिना शादी के रहने से दिक्कत क्या है? दूसरे के पैसे पर अय्याशी? क्या बिना शादी साथ रहना ही अय्याशी है? सबसे बड़ी समस्या तो वह है जिस संबंध में रहते हुए भी आपका जीवन और मन कैद हो। वह दोनों ही आधुनिक विचारों के इंसान है। हो सकता है वह लिव इन में हो या प्रेम संबंध हो। और इस तरह से रहते हुए भी दोनों एक दूसरे पर उनके चीजों पर बराबर हकदारी रखते हैं। यह रिया का अधिकार और स्वतंत्रता थी। लिव इन में यही होता है। जब तक रही अपने तरीक़े से रही और जब संबंध टूटा तो वह चली गई।

कंगना के पोस्टर पर जूते फेंके

इसी तरह कंगना के विरोध में उतरी महिलाओं के एक समूह ने उनके पोस्टर पर जूते चप्पल से ऐसे प्रहार किये जैसे वह अपने अंदर के छिपे किसी ग़ुस्से या कहें कि एक तरह के अवसाद को इस बहाने बाहर निकाल रही हों। जिन्होंने अपने घर में कभी सर उठाकर भी बात नहीं की, पति से मार खाती हो, गालियाँ और दुत्कारी जाती हों, क्या वह कंगना और उस जैसी स्वतंत्र और बेबाक राय रखने वाली स्त्रियों की सोच से कभी सहमत हो सकती हैं?

कंगना रनौत एक प्रभावशाली अभिनेत्री हैं, उन्हें डायन, वेश्या, पागल, मनोरोगी तक कहा गया। लेकिन कंगना ने सब बेबुनियादी आरोपों को खारिज किया और पितृसत्तात्मक समाज का असली चेहरा दिखाया। वह कहती हैं, ‘स्त्री को तानों से भी मारा जा सकता है, फिर मारने के लिए हाथ लगाने की क्या ज़रूरत है?’

इन दोनों मामलों में समर्थन और आलोचना, कोई भी पक्ष हो लेकिन पितृसत्ता इस बहस का केंद्र बिंदु है। ये घटनाएँ हमारे सामाजिक संरचना पर प्रश्न चिन्ह खड़े करती हैं। लैंगिक भेदभाव एक सामाजिक सच्चाई है। किसी को लग सकता है कंगना अकेले ही लड़ सकती है, रिया को अपने ही कर्मों की सज़ा मिल रही है, आदि आदि। लेकिन इस बीच इन दोनों के प्रति जो रवैया रहा है वह ग़लत है। पितृसत्ता के चश्मे से देखें तो समस्या इस बहस से बहुत बड़ी और विकराल है और इस पर चुप्पी हमारी मौन स्वीकृति होगी। नारीवाद दुनिया को समझने का एक औजार है उसी के ज़रिये 'पितृसत्ता' से लड़ सकते हैं। यही संदेश इन पंक्तियों में छुपा है जो इन दिनों चर्चा में है:

गुलाब का रंग है लाल 

आसमान का रंग नीला

ध्वस्त करें पितृसत्ता को

मैं और तुम।

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प्रीति

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