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क्या इस देश के लोकतंत्र को अल्जाइमर रोग हो गया है?

राष्ट्र और इंसान की जीवन अवधि अमूमन अलग-अलग होती है। बावजूद इसके आज़ादी के 75 वर्ष के पास पहुँचे भारत राष्ट्र में अल्जाइमर रोग के लक्षण दिखने शुरू हो गए हैं जो 75 वर्ष के इंसान में भी नहीं दिखता। उम्र से पहले बूढ़े होते भारतीय राष्ट्र में दिखते इस जनतांत्रिक रोग को लोकतांत्रिक अल्जाइमर ही कहा जा सकता है।

लोकतांत्रिक अल्जाइमर के लक्षण भारतीय जनमानस में पहली बार 1980 के आम चुनाव में दिखा था जब उसने इंदिरा गांधी के 21 महीनों के आपातकाल को भुला वापस उन्हें प्रधानमंत्री पद पर आसीन किया था। लोकतांत्रिक संस्थाओं और सोच की हत्या जिस तरह से आपातकाल में की गई थी उसकी माफ़ी सिर्फ़ लोकतांत्रिक अल्जाइमर से ग्रस्त राष्ट्र का जनमानस ही दे सकता था।

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वर्तमान में प्रधानमंत्री को 'सुप्रीम लीडर' मानते मीडिया, हर एक आंदोलन को भूलती जनता, विरोध के कर्तव्य को इतिश्री कह चुके विपक्ष, चुनाव पूर्व वादों को भूलती सरकार और प्राकृतिक न्याय की अवधारणा से विचलित न्यायपालिका इस रोग से पूर्णत: ग्रसित हैं। जब राष्ट्र के शीर्ष पर पार्टी विशेष को बैठाया जा रहा हो, राष्ट्रवाद की नई परिभाषा गढ़ी जा रही हो, लोकतांत्रिक समाज सवाल करने की आदत भूल रहा हो, तब इसके उपचार का ज़िम्मा किसका है?

भूल जाने की सबसे बड़ी खामी यह है कि पुनः याद आने के लिए फिर से जंग करनी पड़ती है। निर्भया कांड के बाद पूरे देश में हुए विशाल आंदोलन के पश्चात लगा कि अब फिर कभी ऐसा नहीं होगा। जनता संघर्ष करेगी। पर लोकतांत्रिक अल्जाइमर से ग्रस्त जनता को बलात्कार की गंभीरता याद दिलाने के लिए फिर किसी बच्ची की लाश को हाथरस में यूपी पुलिस के हाथों जलना पड़ता है। हर रोज़ होते बलात्कार से संवेदनहीन हो चुकी जनता के ध्यानाकर्षण के लिए पीड़िता की दर्दनाक मौत मानो न्यूनतम मापदंड हो।

नागरिकता क़ानून के विरोध में शुरू आंदोलन से किसान आंदोलन तक, जनता यह भूल जाती है कि आंदोलन शुरू ही क्यों हुए थे। महीनों से धूप, बारिश, ठंड में दिल्ली बॉर्डर पर बैठे आंदोलनरत किसान उस जनता के इंतज़ार में है जो उनकी आवाज़ सुने। आवाज़ कब शोर में तब्दील हो गई पता नहीं चला। पिछले वर्ष सरकारी अव्यवस्था के बीच लगे लॉकडाउन में पूर्वांचल के प्रवासी मज़दूर अपने परिवार संग दिल्ली-मुंबई से हज़ारों किलोमीटर पैदल अपने-अपने गाँव पहुँचे। 

21वीं सदी के इस व्यापक मानवीय पलायन के बावजूद भी वही प्रवासी मज़दूर उसी सरकार को पुनः चुनते हैं जिसने केंद्र और राज्य दोनों स्तर पर उनके घर वापसी को स्वीकार करने से मना कर दिया था। लोकतांत्रिक अल्जाइमर से ग्रसित यह जनता उसी लाठी को सत्ता सौंपती है जिससे उसे हाँका गया हो।

विपक्षी दल द्वारा विपक्ष के रूप में अपने कर्तव्यों के निर्वहन की जब मात्र खानापूर्ति हो रही हो तब सवाल करने के नैसर्गिक और लोकतांत्रिक कर्तव्य को भूलता मीडिया घुन लगे चौथे खंभे की तरह है। अल्जाइमर ग्रस्त इस मीडिया में लोकतांत्रिक राष्ट्र में अपने दायित्व का बोध उठाने की शक्ति नहीं रह गई है। राष्ट्र में जब निरंतर उसके धर्मनिरपेक्ष चरित्र को क्षीण किया जा रहा हो, अर्थव्यवस्था की गंभीर स्थिति ग़रीब जनता के लिए अभिशाप का काम कर रही हो, पहले से बदहाल हो चुकी किसानी के बीच खाद की क़ीमतों में दोगुनी वृद्धि हुई हो, बेरोज़गारी की गंभीर समस्या बढ़ती ही जा रही हो, उस वक़्त भारतीय मीडिया का दरबारी कवि की भूमिका निभाते हुए निज़ाम की महिमा का गुणगान करना आश्चर्यजनक या हास्यास्पद नहीं बल्कि शर्मनाक है। लोकतांत्रिक अल्जाइमर से ग्रस्त यह मीडिया पत्रकारिता की अपनी कक्षाओं के उन अध्यायों को भूल गया है जिसमें मीडिया नीतिशास्त्र का ज़िक्र है।

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बनारस के सिविल जज आशुतोष तिवारी द्वारा विजय शंकर रस्तोगी की याचिका पर काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मसजिद के संदर्भ में ASI सर्वे का आदेश न्यायपालकीय अल्जाइमर का ताज़ा उदाहरण है। इसमें माननीय जज ने संविधान के उन अनुच्छेदों को भुला दिया जिसमें क़ानून की संवैधानिकता का प्रश्न सिविल जज के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया है (इस संदर्भ में Places of worship Act 1991)। इस आदेश से उन्होंने इस क़ानून की संवैधानिकता की समीक्षा की जाँच कर सर्वोच्च न्यायालय की पीठ की भी अवहेलना की है जिससे केंद्र सरकार से इस मामले में उसका पक्ष पूछा है। बाबरी मसजिद निर्णय में 5 सदस्यीय बेंच के निर्णय को ताक पर रखते हुए निचली अदालत का यह आदेश लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर ही करता है। नागरिक समाज द्वारा आलोचनात्मक टिप्पणी से आहत होने वाला सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय संवैधानिक प्रश्नों वाली कई याचिकाओं पर कब से बैठे हैं। 

जम्मू कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनने का मामला हो या चुनावी बांड से पारदर्शिता के बहाने चुनावी प्रक्रिया को अलोकतांत्रिक करने का प्रश्न हो। न्यायपालिका का यह अल्जाइमर जनता का उसमें विश्वास कम कर रहा है।
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इन सारे स्तंभों की भूलने की यह बीमारी कार्यपालिका को अत्यधिक मज़बूत करती है। चुनाव पूर्व अपने वादों को पूरा न करके भी वह सवालों से बची रहती है। यह स्थिति लोकतांत्रिक जामा पहने तानाशाही की ज़मीन तैयार करती है। तब शक्ति जनता में निहित न होकर एक भीड़ में निहित होती है जिसे चाणक्यीय फ़ॉर्मूला द्वारा जीता जा सकता है। दरअसल, वर्तमान में चुनाव जीतने के लिए हरेक अलोकतांत्रिक हद पार करने की सोच रखने वाले राजनीतिज्ञ को भारतीय मीडिया में चाणक्य बोला जाता है। लोकतांत्रिक अल्जाइमर से ग्रसित गणराज्य इतिहास से सीखता नहीं है। इतिहास की प्रासंगिकता उससे मिलने वाली उन सीखों से है जिसे हमने कई ग़लतियाँ करके कमाई है। आगे ग़लतियों से बचना उन सीखों की उपलब्धि होती है। अल्जाइमर ग्रस्त 75 वर्ष का यह गणराज्य अपने इतिहास को भूल रहा है। भूल जाने का यह रोग इसे खुद इतिहास न बना दे।
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आशुतोष कुमार सिंह

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