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अनुच्छेद 370 पर पटेल, अम्बेडकर और लोहिया का नाम क्यों ले रही है बीजेपी?

आख़िर बीजेपी और केंद्र सरकार के बड़े नेता जम्मू-कश्मीर और अनुच्छेद 370 से संबंधित आरएसएस के पुराने एजेंडे को लागू करने के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल, बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर और डॉ. राम मनोहर लोहिया के नामों का सहारा क्यों ले रहे हैं।
उर्मिेलेश
भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार के बड़े नेता इन दिनों जम्मू-कश्मीर और अनुच्छेद 370 से संबंधित आरएसएस के पुराने एजेंडे को लागू करने को जायज ठहराने के लिए अब देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल, संविधान का प्रारूप तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर और समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया के नामों को भी लपेट रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो राष्ट्र के नाम अपने संदेश में यह तक कह दिया कि उनकी सरकार ने कश्मीर पर यह फ़ैसला करके सरदार पटेल, बाबा साहेब अम्बेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अटल जी का सपना पूरा किया है।
मुखर्जी और वाजपेयी के बारे में तो यह बिल्कुल सही है पर प्रधानमंत्री ने सरदार पटेल और डॉ. अम्बेडकर का नाम क्यों जोड़ा, यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आई। कोई आम बीजेपी नेता ऐसा कहता तो बात समझी जा सकती है कि वह कुछ भी कह सकता है, पर भारत के प्रधानमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति इस तरह तथ्यों को कैसे नजरंदाज कर सकता है? गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में प्रखर समाजवादी नेता डॉ. लोहिया का नामोल्लेख कर कह दिया कि बीजेपी सरकार ने कश्मीर पर उनका भी सपना पूरा किया है।
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संसदीय राजनीति में अब नरेंद्र देव-वादी या लोहिया-वादी बचे नहीं पर कुछेक लोग अब भी लाल टोपी पहनकर अपनी समझौता-परस्त दिवालिया राजनीति को ‘लोहियावादी’ बताते फिरते हैं। ऐसे ‘लोहियावादियों’ के सामने ही संसद में बीजेपी और सरकार के शीर्ष नेताओं ने इस फ़ैसले को लोहिया के विचारों के अनुरुप होने का दावा किया। पर वहाँ बैठे किसी कथित लोहियावादी ने उन्हें रोका नहीं कि जनाब, आप हमारे सामने सरासर गलतबयानी क्यों कर रहे हैं? वे कहते रहे, ये सुनते रहे! अपने ही श्रद्धेय नेताओं को नहीं पढ़ेंगे तो यही होगा!
सबसे पहले सरदार वल्लभ भाई पटेल को लेते हैं। यह बात सही है कि कश्मीर पर सरदार पटेल की समझ पूरी तरह जवाहर लाल नेहरू की समझ जैसी नहीं थी। पर वह नेहरू की राय की खुलकर मुखालफत भी नहीं करते थे। इसकी सबसे बड़ी वजह थी - कश्मीर के मामले में महात्मा गाँधी की राय! आज़ादी की लड़ाई में जवाहर लाल नेहरू के मुकाबले ‘कंजरवेटिव’ माने जाने वाले महात्मा गाँधी कश्मीर के मामले में बहुत साफ और सुंसगत थे। इसके प्रमाण आज़ादी से पहले मई, 1946 में भी मिलते हैं, जब जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ़्रेंस के नेता शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला की अगुवाई में ‘कश्मीर छोड़ो’ (राजाओं-महाराजाओं, सूबे की सत्ता छोड़ो) आंदोलन की शुरुआत हुई थी।

अब्दुल्ला को मिला भारी समर्थन 

झेलम घाटी और सूबे के अन्य इलाकों में भी शेख अब्दुल्ला को भारी समर्थन मिला और देखते ही देखते यह एक जन-आंदोलन में तब्दील हो गया। इससे भयभीत होकर महाराजा की सरकार ने शेख अब्दुल्ला को गिरफ़्तार कर लिया। शेख की गिरफ़्तारी का पूरे सूबे में भारी प्रतिरोध हुआ। महाराजा की पुलिस ने कई स्थानों पर गोलियाँ चलाईं। सरकारी तौर पर इनमें मरने वालों की संख्या सिर्फ 20 बताई गई। लेकिन मरने वालों की संख्या इससे बहुत ज़्यादा थी।

शेख अब्दुल्ला के साथ थे नेहरू

उन दिनों आचार्य कृपलानी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वह शेख अब्दुल्ला के आंदोलन के ख़िलाफ़ और महाराजा के प्रति मुलायम थे। दूसरी तरफ़, मुसलिम लीग और उसके नेता मोहम्मद अली जिन्ना भी शेख अब्दुल्ला के आंदोलन को अराजक और असामाजिक तत्वों का उपद्रव बता रहे थे। लेकिन जवाहर लाल नेहरू ऐसे नाजुक मौक़े पर पूरी तरह शेख अब्दुल्ला के साथ थे। उसकी सबसे बड़ी वजह थी कि नेहरू को मालूम था कि कश्मीरी अवाम का व्यापक हिस्सा शेख के साथ है। तब डोगरा राज द्वारा शेख की गिरफ़्तारी के विरोध में नेहरू कश्मीर रवाना हो गए। वहाँ महाराजा की पुलिस ने नेहरू को गिरफ़्तार कर लिया और उड़ी के डाक बंगले में रखा।

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उधर, दिल्ली में कैबिनेट मिशन से वार्ता के लिए उनका इंतजार हो रहा था। कांग्रेस नेतृत्व और ब्रिटिश सरकार के दबाव में महाराजा ने अंततः नेहरू को रिहा किया और एक निजी विमान से उन्हें जल्दी-जल्दी दिल्ली लाया गया ताकि कैबिनेट मिशन से वार्ता हो सके। लेकिन नेहरू दिल्ली आकर जेल में पड़े शेख अब्दुल्ला को भूले नहीं। उन्होंने मुक़दमे में शेख की पैरवी के लिए पटना के मशहूर वकील बलदेव सहाय को कश्मीर भेजा। सहाय के अलावा आसफ़ अली और दीवान चमन लाल भी शेख के वकील थे। ये सभी तपे-तपाये राष्ट्रवादी थे।

उस दौर में सरदार वल्लभ भाई पटेल शेख अब्दुल्ला के आंदोलन से बहुत खुश नहीं थे। वह आचार्य कृपलानी की तरह शेख अब्दुल्ला से भिन्नाए और महाराजा के पूरी तरह साथ तो नहीं थे पर क्षुब्ध जरूर थे। ऐसे नाजुक दौर में कश्मीर मामले में नेहरू को किसी और का नहीं, स्वयं महात्मा गाँधी का समर्थन मिला। 

एक ही बार कश्मीर गए महात्मा गाँधी

अपने पूरे जीवन में महात्मा गाँधी सिर्फ़ एक ही बार कश्मीर गए। वह मौक़ा था, आज़ादी मिलने के कुछ ही दिनों पहले 1947 में! वह सूबे की सियासत का झंझावाती दौर था! वहाँ महात्मा गाँधी ने साफ़ शब्दों में कहा कि महाराजा को कश्मीरी जनता का विश्वास प्राप्त नहीं है। लोग शेख अब्दुल्ला का सम्मान करते हैं और उनकी रिहाई चाहते हैं। लौटते समय़ उन्होंने जम्मू की प्रार्थना सभा में यह भी कहा कि जम्मू-कश्मीर के भविष्य़ का फ़ैसला यहाँ के लोग ही करेंगे। अंततः आज़ादी के बाद 20 सितम्बर, 1947 को शेख अब्दुल्ला महाराजा की जेल से रिहा किए गए। सरदार पटेल की कश्मीर विषयक समझ और रणनीति में महात्मा गाँधी के रूख के खुलासे के बाद काफ़ी बदलाव देखा गया।

अगर महात्मा गाँधी के विचारों की रोशनी में देखें तो मौजूदा मोदी सरकार का कश्मीर पर लिया गया फ़ैसला गाँधी जी के विचारों के ठीक उलट है।

संविधान में अनुच्छेद 370 के शामिल किये जाने से पहले उसके संभावित प्रावधानों पर ज़्यादातर बैठकें सरदार पटेल के बंगले पर हुईं। इममें एन. गोपालासामी आयंगर सहित कई लोग नियमित रूप से हिस्सा लेते थे। आयंगर नेहरू कैबिनेट में बिना किसी विभाग के मंत्री बने थे। बाद में उन्हें रेलमंत्री बनाया गया था। आयंगर को कश्मीर मामले में संवैधानिक विशेषज्ञ माना जाता था क्योंकि वह ‘महाराजाधिराज’ के राज में कई वर्ष तक जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री (1937-43) रह चुके थे। 

अनुच्छेद 370 को संविधान सभा में अनुच्छेद 306-ए के तौर पर पेश किया गया था। बाद में वही अनुच्छेद 370 बना। जिस वक्त यह सब हुआ, जवाहर लाल नेहरू देश से बाहर थे। इसलिए बीजेपी, संघ या मौजूदा सरकार का यह दावा कि पटेल अनुच्छेद 370 के सख़्त ख़िलाफ़ थे और यह अनुच्छेद सिर्फ नेहरू के कारण हमारे संविधान में घुसा, वस्तुतः एक सफेद झूठ है। 

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मेनन के संपर्क में थे पटेल

सरदार पटेल कश्मीर को भारत में रखने को लेकर एक समय उतने उत्सुक भले न रहे हों पर बाद के हालात की रोशनी में उन्होंने ऐसी जिद्द कभी नहीं की। सच तो यह है कि कश्मीर के भारत में सम्मिलन (इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन) के भारतीय गणराज्य के प्रमुख वार्ताकार वी. पी. मेनन जिन दिनों अक्सर ही श्रीनगर-जम्मू और दिल्ली के बीच शटल करते थे, सरकार की तरफ़ से यह सरदार पटेल ही थे, जो उनके नियमित संपर्क में होते थे। 

बीच-बीच में मेनन प्रधानमंत्री नेहरू और लार्ड माउंटबैटन से भी मिलते रहते थे। इसलिए दोनों तथ्य पूरी तरह आधारहीन हैं कि सरदार पटेल जम्मू कश्मीर के भारत में सम्मिलन या अनुच्छेद 370 के ख़िलाफ़ थे और इस मुद्दे पर उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू की मुखालफ़त की थी। ऐसी तमाम अफ़वाहों के जनक जनसंघ के दिवंगत नेता बलराज मधोक रहे हैं, जिन्हें बाद के दिनों में स्वयं संघियों ने बहिष्कृत कर दिया था। 

जहाँ तक बाबा साहेब डॉ. भीम राव अम्बेडकर का सम्बन्ध है, कश्मीर या पाकिस्तान के मामले में उनकी सोच जवाहरलाल नेहरू या कांग्रेस वैचारिकी से कुछ मामलों में अलग थी। पाकिस्तान के बारे में उनकी बहुचर्चित किताब ‘थाट्स ऑन पाकिस्तान’ सर्वसुलभ है। उसे पढ़कर उनकी पाकिस्तान के संबंध में राय समझी जा सकती है। कश्मीर मामले पर उस किताब में भी टिप्पणियाँ हैं। 

इसके अलावा नेहरू कैबिनेट से 27 सितम्बर, 1951 को दिए डॉ. अम्बेडकर के इस्तीफ़े में दर्ज कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों से भी कश्मीर पर उनके विचारों को समझा जा सकता है। उनका इस्तीफ़ा दस पृष्ठों का है। वह कोई मामूली त्यागपत्र नहीं है। यह उस वक्त की भारतीय राजनीति और वैचारिकी को समझने का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन चुका है। 

नेहरू कैबिनेट से अपने इस्तीफ़े के लिए डॉ. अम्बेडकर ने कई प्रमुख कारण बताए। इस्तीफ़े के तीसरे कारण में उन्होंने नेहरू सरकार की विदेश नीति के कुछ ख़ास पहलुओं से असहमति जताई है।
इस क्रम में डॉ. अम्बेडकर ने जॉर्ज बर्नाड शा और बिस्मार्क को भी उद्धृत किया है। वह बताते हैं, ‘भारत इस वक्त कुल 350 करोड़ का राजस्व सालाना प्राप्त कर रहा है, इसमें 180 करोड़ हम सेना पर ख़र्च कर रहे हैं। यह बहुत बड़ा खर्च है और ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं और मिलेगा। सेना पर यह खर्च हमारी विदेश नीति के चलते है। हमारे दोस्त देश नहीं हैं, जिन पर हम किसी इमरजेंसी में भरोसा कर सकें। क्या यह सही विदेश नीति है? पाकिस्तान से हमारा झगड़ा विदेश नीति की विफलता का नतीजा है, जिससे मैं बुरी तरह क्षुब्ध रहा हूं। दो वजहें हैं, जिनके चलते हमारे पाकिस्तान से रिश्ते खराब हैं। पहली वजह कश्मीर और दूसरी वजह है पूर्वी बंगाल का इलाका।’
डॉ. अम्बेडकर कश्मीर पर साफ़ शब्दों में कहते हैं कि जम्मू और लद्दाख के इलाके को अगर भारत अपने साथ रखे और पूरे कश्मीर को पाकिस्तान को सौंपे या कश्मीरी जनता पर छोड़े कि वहाँ के लोग क्या करना चाहते हैं! यह पाकिस्तान और कश्मीर के मुसलमानों के बीच का मामला है। वह यह भी कहते हैं कि जनमत संग्रह कराना है तो वह सिर्फ कश्मीर में कराया जाय!

अब माननीय प्रधानमंत्री और माननीय गृहमंत्री ही देश को समझा सकते हैं कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर संबंधी अपने फ़ैसले के जरिये किस तरह डॉ. अम्बेडकर के सपनों को पूरा किया है?

डॉ. अम्बेडकर के रूख पर फैलाया गया भ्रम

इसके अलावा अनुच्छेद 370 पर डॉ. अम्बेडकर के रूख के बारे में भी बहुत सारे भ्रम फैलाए गए हैं। यह भी कहा जा रहा है कि उन्होंने अनुच्छेद 370 का प्रारूप बनाने से इंकार कर दिया था तब जाकर एन. गोपालासामी आयंगर को इसका दायित्व सौंपा गया। लेकिन यह बात सिरे से गलत है। संविधान निर्माण की प्रक्रिया का इतिहास पढ़ें तो तस्वीर साफ़ हो जायेगी कि संविधान के सभी अनुच्छेदों को सिर्फ एक व्यक्ति ने नहीं लिखा। पर सारे अनुच्छेद प्रारूप तैयार करने वाली समिति (ड्राफ्टिंग कमेटी) के अध्यक्ष के रूप में डॉ. अम्बेडकर की नजर से जरूर गुजरे। सबको उन्होंने संवारा। कुछ पर ज़्यादा जोर नहीं दिया क्योंकि ऐसे कुछ अनुच्छेदों पर कांग्रेस या तत्कालीन संविधान सभा के अधिसंख्य सदस्यों की राय से उनकी राय पूरी तरह नहीं मिलती थी। लेकिन उन्होंने अनुच्छेद 370 (मूल रूप से 306-ए) का संविधान सभा में विरोध नहीं किया। 

मजे की बात है कि बाद के दिनों में इस अनुच्छेद के सबसे प्रबल विरोधी के रूप में उभरे जनसंघ के नेता और संविधान सभा के तत्कालीन सदस्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भी संविधान सभा में 370 की मंजूरी के मतदान में इसका विरोध नहीं किया था।
पूरी संविधान सभा में सिर्फ एक माननीय सदस्य ने इसका विरोध किया था और उनका नाम है, मौलाना हसरत मोहानी। इन तथ्यों से साफ़ होता है कि डॉ. अम्बेडकर के बारे में भी बीजेपी नेताओं और सरकार के शीर्ष पदाधिकारियों का यह दावा बेसिर-पैर का है कि बीजेपी सरकार के फ़ैसले से बाबा साहेब का सपना पूरा हुआ है।

अब तीसरे बड़े नेता बचे डॉ. लोहिया, जिनके बारे में संसद तक में दावा कर दिया गया कि उन्होंने अनुच्छेद 370 के खात्मे की बात की थी और मोदी सरकार ने एक ‘ऐतिहासिक फ़ैसला’ करके उनके सपनों को पूरा किया है। इन सत्ताधारी नेताओं ने ऐसा दावा करते हुए यह कहीं नहीं बताया कि उन्होंने डॉ. लोहिया के ऐसे विचार कहाँ देखे या पढ़े हैं! 

लंबे समय तक कांग्रेस के ‘बौद्धिक नेता’ और यूपीए के दौर में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के निकटस्थ सलाहकार समझे जाने वाले जनार्दन द्विवेदी तक ने दावा कर दिया कि उनके ‘गुरू’ डॉ. लोहिया भी अनुच्छेद 370 का खात्मा चाहते थे इसलिए वह मोदी सरकार के फ़ैसले से खुश हैं।

‘संसद में डॉ. लोहिया’ नामक पुस्तक में डॉ. लोहिया के भारत-पाकिस्तान रिश्तों और कश्मीर के संदर्भ में अनेक भाषण और विचार संकलित हैं। किसी भी स्थान पर डॉ. लोहिया ने अनुच्छेद 370 के खात्मे या राज्य के इस तरह के विभाजन की बात नहीं की है। इसके उलट डॉ. लोहिया उस दौर में लगातार भारत और पाकिस्तान के फेडरेशन या महासंघ की बात जोरशोर से उठाते रहे। उनका मानना था कि ऐसे महासंघ से ही कश्मीर जैसे विवादों का भी समाधान हो जायेगा। इसके अलावा ‘लोहिया के विचार’ शीर्षक से उनके लेखन और भाषणों का वृहत संकलन नौ खंडों में प्रकाशित है। इसके एक खंड में कश्मीर पर बाकायदा एक अध्याय है। पर इसमें भी डॉ. लोहिया ने ऐसी कोई बात नहीं कही है। फिर डॉ. लोहिया ने वह बात कहाँ कही, जिसका दावा भारत के गृहमंत्री के रूप में अमित शाह जी कर रहे हैं? 

डॉ. लोहिया बार-बार यह बात दोहराते हैं, ‘कश्मीर के लोगों की रजामंदी के बगैर उनके बारे में किसी तरह का फ़ैसला नहीं होना चाहिए। उनको किसके साथ रहना है या नहीं रहना है, यह फ़ैसला उनका होना चाहिए। वे चाहे जहाँ रहें पर महासंघ का हिस्सा बनें।’
अब आप ही बताइये, कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के उन प्रावधानों के खात्मे, जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा खत्म कर केंद्र शासित क्षेत्र बनाने और सरहदी सूबाई-विभाजन के फ़ैसले से सरदार पटेल, डॉ. अम्बेडकर और डॉ. लोहिया जैसे बड़े राजनीतिक दिग्गजों का क्या लेना-देना!
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