अपने लेख की शुरुआत आज मैं एक उद्धरण से कर रहा हूँ। यह उद्धरण है- संविधान-प्रारूप लेखन समिति के अध्यक्ष डॉ. भीम राव अम्बेडकर का। उन्होंने ‘हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा पर बहुत साफ़ शब्दों में कहा था:
‘हिन्दू राष्ट्र की धारणा इस देश के लिए ख़तरनाक है। इसके समर्थक कुछ भी कहें, पर हिन्दुत्व स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के मूल्यों के लिए बड़ा ख़तरा है। इसलिए हिन्दू-राष्ट्र हमारे प्रजातंत्र के लिए सर्वथा अनुपयुक्त होगा। हिन्दू राष्ट्र को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए!’ -(डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण लेखन-भाषण, हिन्दी संस्करण, खंड 15, पृष्ठ 365)।
संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित होने और राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिलने के बाद नागरिकता संशोधन विधेयक (CAB यानी कैब) अब नागरिकता का संशोधित अधिनियम (CAA) बन चुका है! इस नये नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 को लेकर सत्ताधारी बीजेपी और उसके विरोधियों, दोनों के सामने आज गंभीर चुनौतियाँ हैं। सत्ताधारी बीजेपी के सामने चुनौती है कि अपने बल पर बहुमत न होने के बावजूद राज्यसभा में ‘संसदीय-प्रबंधन’ करके उसने विधेयक तो पास करा लिया, अब जनता के कड़े प्रतिरोध का प्रबंधन वह कैसे करे? इस नये क़ानून के विरोधियों, ख़ासकर विपक्षी दलों, जनसंगठनों और सिविल सोसायटी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वे इस मुद्दे पर जनता के प्रतिरोध को किस तरह आगे बढ़ाएँ? देश के कई राज्यों की सरकारों ने भी इसे लागू करने से इंकार कर दिया है। पर बीजेपी जिस बात को लेकर आश्वस्त है और विपक्ष जिसे लेकर सतर्क नहीं नज़र आ रहा है- वह है इस विवादास्पद अधिनियम के समर्थन-विरोध को हिन्दी भाषी प्रदेशों में ‘हिन्दू-मुसलमान’ में तब्दील करने का सत्ताधारी एजेंडा!
यह स्वाभाविक था कि असम सहित संपूर्ण पूर्वोत्तर के लोगों को नागरिकता के इस नये संशोधित क़ानून का मतलब सबसे पहले समझ में आया! असम की जनता ने बीते पाँच सालों के दौरान नागरिकता निर्धारण से जुड़ी एनआरसी की प्रक्रिया को स्वयं झेला है। सभी जाति-धर्मों के लोगों ने उस दर्द को सहा है। कइयों ने अपने को भारतीय साबित करने की कोशिश में जान गँवा दी। ऐसे लोगों में ज़्यादातर ग़रीब हिन्दू, स्थानीय समुदायों के बेहाल लोग और ग़रीब मुसलमान थे। इसीलिए नागरिकता के इस संशोधित क़ानून का मतलब वे समझ रहे हैं। असम में उग्र-विरोध का झंडा यूँ ही नहीं उठा है। बहिरागतों की पहचान के सन् 1971 के ‘कट-ऑफ़ ईयर’ को भी नये नागरिकता क़ानून में सन् 2014 कर दिया गया है। जहाँ तक दक्षिणी राज्यों का सवाल है, वहाँ कर्नाटक को छोड़कर बीजेपी को कहीं भी ज़्यादा समर्थन नहीं मिल सकता। तमिलनाडु के लोग इसलिए ज़्यादा नाराज़ हैं कि इस विधेयक में जिन पड़ोसी मुल्कों से आए धार्मिक रूप से प्रताड़ित लोगों को शरण और नागरिकता देने का प्रावधान है, उसमें सिर्फ़ मुसलिम-बहुल तीन देशों पाकिस्तान, बाँग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान को रखा गया है, श्रीलंका को नहीं। इस तरह, तमिल शरणार्थियों के साथ यह विधेयक सरेआम अन्याय करता है।
असम ने अपने दर्दनाक अनुभव की रोशनी में बीजेपी और मोदी-शाह सरकार के झूठ को जिस तरह खारिज किया है, वह पूरे भारत के लिए एक नज़ीर है। भारत में नागरिकता का रजिस्टर (एनआरसी) तैयार करने का एजेंडा सबसे पहले वहीं आजमाया गया। इस प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर लोगों को डिटेंशन सेंटर भेजा गया। इनमें ऐसे रिटायर आर्मीमेन भी थे, जिन्होंने करगिल के मोर्चे पर भारत के लिए लड़ाई लड़ी थी। पर दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह और गुवाहाटी में मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल कहते रहे कि असम में एनआरसी के नतीजे बहुत तेज़ी से लागू हो रहे हैं। पर हुआ क्या— एनआरसी के नतीजे आए तो 19 लाख लोगों को ‘अनधिकृत’ घोषित किया गया, जो अपनी भारतीय नागरिकता का ठोस प्रमाण नहीं पेश कर सके। पर बीजेपी की मंशा पूरी नहीं हुई। उसके इस झूठ का उसकी ही एनआरसी ने पर्दाफाश कर दिया कि असम के कथित घुसपैठिए बाँग्लादेशी मुसलमान हैं और उन्हें बाहर किया जाएगा! 19 लाख में तक़रीबन 11 लाख से कुछ अधिक हिन्दू या ग़ैर-मुसलिम निकल आए। तब सरकार ने कहा- एनआरसी के नतीजों पर अमल नहीं होगा। सरकार जल्दी ही नागरिकता के क़ानून में बदलाव करेगी, फिर एनआरसी लाएगी, जो असम सहित पूरे देश में लागू होगी।
असम में 1600 करोड़ ख़र्च करके एनआरसी कराई गई। वह सारी सरकारी रक़म बेकार। नतीजे रद्द। अब तक़रीबन पाँच-छह लाख करोड़ ख़र्च करके देश भर में एनआरसी लागू होगी- पता नहीं फ़ैसले बीजेपी की पसंद के नहीं आए तो वह भी रद्द। क्या मज़ाक़ बना दिया है- शासन, सरकार और संविधान का?
नागरिकता क़ानून में जो संशोधन किया गया, उसके बाद भारत में अब सिर्फ़ पाकिस्तान, बाँग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान से आने वाले या आने के इच्छुक ग़ैर-मुसलिमों यानी हिन्दुओं, सिखों, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों और पारसियों को ही भारतीय नागरिकता दिए जाने का प्रावधान है। क़ानून में प्रताड़ित अल्पसंख्यकों की श्रेणी में मुसलमानों को नहीं शामिल किया गया है। उन लोगों को भी नहीं शामिल किया गया है, जो नास्तिक या अधार्मिक हैं! पाकिस्तान में बेहद प्रताड़ित मोहाजिर और अहमदिया अल्पसंख्यक भी इसमें नहीं हैं। सवाल उठता है, क्या म्यांमार, श्रीलंका, भूटान और चीन हमारे पड़ोसी नहीं हैं? अगर इस क़ानून के पीछे ‘कम्युनल’ के बजाय मानवीय नज़रिया होता तो निश्चय ही इसमें म्यांमार और श्रीलंका को ज़रूर शामिल किए गए होते ताकि भारत में पहले से रह रहे 40 हज़ार रोहिंग्या और हज़ारों तमिलों के मसले भी हल किए जा सकें।
तीन मुल्कों से आने वाले ‘धार्मिक कारणों से प्रताड़ित शरणार्थियों’ को नागरिकता देने के लिए ‘कट-ऑफ़ ईयर’ भी 2014 रखा गया है। ऐसे में उस असम-समझौते का क्या होगा, जिसमें ‘कट-ऑफ़-ईयर’ सन् 1971 रखा था और जिसे मानने के लिए भारत सरकार समझौते के तहत वचनबद्ध है। मजे की बात है कि असम समझौते के समय यही बीजेपी चाहती थी कि ‘कट-ऑफ़-ईयर’ सन् 1948 रखा जाए। पर अब उसने सन् 2014 कर दिया! असम की जनता इस मुद्दे पर बीजेपी और मोदी-शाह सरकार को पूरी तरह खारिज कर रही है। असमिया लोग किसी के बहकावे में आकर सड़कों पर नहीं हैं। उनका साफ़ शब्दों में कहना है कि उन्हें किसी तरह की बहिरागत आबादी मंज़ूर नहीं है, चाहे वह हिन्दू हों या मुसलमान और इसका निपटारा सन् 1971 कट ऑफ़ ईयर के आधार पर तय होना चाहिए। असमिया लोगों ने पूरे पाँच साल एनआरसी की पीड़ा झेली है।
नागरिकता क़ानून और हिन्दी भाषी राज्य
नागरिकता क़ानून पर अब असल सियासी जद्दोजहद हिन्दी भाषी राज्यों में है। अगर नागरिकता के संशोधित क़ानून के राष्ट्र-विरोधी और संविधान-विरोधी चरित्र को यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे प्रदेशों की बड़ी आबादी को नहीं समझाया गया तो विपक्ष और सिविल सोसायटी की सारी कोशिशों पर सत्ताधारी बीजेपी पलीता लगा सकती है। वह सारे मसले को सांप्रदायिक रंग देकर इसे ‘हिन्दू-मुसलमान अंतर्विरोध’ में तब्दील करने में जुट जाएगी। बीजेपी-आरएसएस के कार्यकर्ता अभी से गाँवों-कस्बों में तमाम तरह के झूठ का प्रसार करने लगे हैं। मसलन, झारखंड के एक गाँव से मेरे एक मित्र ने कल फ़ोन पर बताया कि उसके इलाक़े में साधारण, कम पढ़े-लिखे या अपढ़ लोगों के बीच प्रचारित किया जा रहा हैः ‘अपने देश में कोई क़ानून ही नहीं था कि कौन भारत का नागरिक है और कौन नहीं है? इसी का फ़ायदा उठाकर दूसरे मुल्कों के लोग आकर अपने लोगों की ज़मीन-जायदाद पर क़ब्ज़ा कर लेते थे या नौकरियाँ पा लेते थे। अब मोदी सरकार ने नया क़ानून बनाकर बाहर वालों को रोक दिया है!’ बहुत संभव है, इस तरह के झूठे प्रचार का असर तीस से चालीस फ़ीसदी पर लोगों पर पड़े। इसकी सबसे बड़ी वजह है हिन्दी क्षेत्रों में अशिक्षा, कथित शिक्षितों की अपढ़ता और मनुवादी सोच के लोगों का समाज पर दबदबा! इन क्षेत्रों के आम लोगों को अगर यह भी नहीं मालूम हो कि अपने देश में सन् 1955 से ही एक नागरिकता क़ानून है, जिसमें कई बार संशोधन हो चुके हैं, तो इसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता! ऐसे में सबसे बड़ा चुनौती और जोखिम हिन्दी क्षेत्र में ही है।
मुख्यधारा मीडिया, ख़ासकर न्यूज़ चैनलों के ‘एकतरफ़ा-प्रचारतंत्र’ में तब्दील होने के बाद अब लोगों के बीच सूचना और संवाद के नये तरीक़े आजमाने होंगे ताकि उन तक इस क़ानून का सच पहुँचाया जा सके।
संघ की भूमिका
नागरिकता क़ानून सिर्फ़ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के ही उलट नहीं है, वह संविधान की बुनियादी संरचना, विचार और उसके कई अन्य अनुच्छेदों के भी विपरीत है। नागरिकता और शरण के बारे में हमारी संविधान सभा में विस्तार से बहस हुई थी। इसमें जवाहर लाल नेहरू, डॉ. अम्बेडकर, अलगू राय शास्त्री, ब्रजेश्वर प्रसाद और महमूद अली बेग जैसे सदस्यों ने महत्वपूर्ण विमर्श पेश किया, जिसके आधार पर नागरिकता के प्रावधान तय किए गए। उस वक़्त मोदी-शाह के राजनीतिक पूर्वज नागपुर और पुणे के आसपास इस बात के लिए अभियान चलाते थे कि भारत का झंडा भगवा होना चाहिए और ऐसे किसी संविधान की कोई ज़रूरत नहीं है। वे उस वक़्त भी हिन्दू राष्ट्र की बात करते थे, इसलिए एक आधुनिक भारतीय राष्ट्र के पक्ष में नहीं थे। यही कारण है कि संघी लोग आज़ादी की लड़ाई के किसी खेमे के साथ नहीं थे। वे न तो गाँधी-नेहरू की कांग्रेस के साथ थे, न भगत सिंह-आज़ाद की सोशलिस्ट रिपब्लिकन के साथ, न वाम-सोशलिस्टों के और न तो डॉ. अम्बेडकर के अभियान के साथ थे! वे आज़ादी की लड़ाई के किसी मोर्चे पर नहीं दिखाई देते। उसमें हिस्सेदार ही नहीं थे।
संघ के संस्थापक केशव हेडगेवार शुरुआती दौर में कांग्रेस की ज़िला समिति में शामिल हुए थे पर कुछ ही समय बाद आज़ादी की लड़ाई और कांग्रेस से अलग होकर पुणे-सतारा-नागपुर-नासिक के इलाक़े में हिन्दुओं को संकीर्ण एजेंडे के साथ संगठित करने में जुट गए और सन् 1925 में आरएसएस की स्थापना की। इसलिए उस वक़्त जनता आख़िर उनकी बात क्यों सुनती! इतिहास की कैसी विडम्बना है कि देश की आज़ादी की लड़ाई में जो हिस्सेदार ही नहीं थे, उनके राजनीतिक-वंशज आज देश के संविधान को भगवा-चादर पहना रहे हैं। और डंके की चोट पर आरएसएस के प्रमुख कहते भी हैं कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है। अपनी सरकार पाकर अब वे इसे धीरे-धीरे संवैधानिक तौर पर जामा पहनाने की कोशिश कर रहे हैं।
"सिर्फ़ अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं, दलित-आदिवासी-बहुजन आबादी के लिए भी इस नये ‘हिन्दू राष्ट्र’ के बढ़ते क़दम बेहद ख़तरनाक साबित होंगे। बहुत पहले इस आशय की टिप्पणी स्वयं डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने की थीः ‘हिन्दू राष्ट्र की धारणा इस देश के लिए ख़तरनाक है। इसके समर्थक कुछ भी कहें, पर हिन्दुत्व स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के मूल्यों के लिए बड़ा ख़तरा है। इसलिए हिन्दू-राष्ट्र हमारे प्रजातंत्र के लिए सर्वथा अनुपयुक्त होगा। हिन्दू राष्ट्र को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए!" - (डॉ. अम्बेडकर- संपूर्ण लेखन-भाषण, हिन्दी संस्करण, खंड 15, पृष्ठ 365)।
‘हिन्दुत्व’ के नये राजनीतिक प्रतीक-पुरुष बनकर उभरे मोदी-शाह को भी मालूम है कि यह राजनीतिक लड़ाई उनके लिए कितनी महत्वपूर्ण और कितनी चुनौतीपूर्ण है! उन्हें इस वक़्त अपने राजनीतिक पूर्वजों के 94 साल पुराने सपने को पूरा करने का मुफीद मौक़ा नज़र आ रहा है। अपने विरोधियों के मुक़ाबले वे ज़्यादा संगठित हैं और सत्ता की बड़ी ताक़त भी उनके साथ है। लेकिन सबकुछ निर्भर करेगा जनता पर।
सारा दोरामदार हिन्दी भाषी क्षेत्रों पर
पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत का बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ नहीं है। सारा दोरामदार हिन्दी भाषी क्षेत्रों पर है, जहाँ मनुवादी हिन्दुत्व की ताक़त हाल के वर्षों में बढ़ी है और कांग्रेसी-समाजवादी-वापमंथी बुरी तरह कमज़ोर हुए हैं और बहुजन आंदोलन लगभग ध्वस्त हो चुका है। इसके बावजूद सत्ता के छठे साल में बीजेपी सरकार के लिए मौजूदा जनाक्रोश को कुचलना आसान नहीं लगता।
बंगाल, केरल, पंजाब, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की राज्य सरकारों ने भी अपने-अपने सूबे में कैब-एनआरसी लागू न करने का एलान कर दिया है। यह बात ठीक है कि नागरिकता का मामला केंद्र का विषय है। पर केंद्र अगर निरंकुशता के ‘नंगे नाच’ पर उतारू हो जाए तो उससे असहमत राज्य क्या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें? केंद्र इन राज्यों में सरकारी मशीनरी के सहयोग के बगैर कैसे लागू कराएगा कैब-एनआरसी? ऐसे में देश के करोड़ों लोगों की निगाहें अब सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं। सिर्फ़ कोर्ट ही केंद्रीय सत्ता बनाम जनता और केंद्र-राज्यों के बीच जारी इस तीखी सियासी जंग से देश को बचा सकता है। सुप्रीम कोर्ट में संशोधित अधिनियम को चुनौती देने वाली दर्जन भर याचिकाएँ दायर हो चुकी हैं, देखिये सुनवाई में क्या निकलता है?
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